Manvadhikar गाँधी-अंबेडकर और मानवाधिकार पुस्तक प्रकाशित

विश्व मानवाधिकार दिवस की बधाई                                                                                                                                                                                                                                                                  गाँधी-अंबेडकर और मानवाधिकार पुस्तक प्रकाशित

ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय, मधेपुरा में दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष एवं बीएनएमयू के उपकुलसचिव (स्थापना) डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘गाँधी-अंबेडकर और मानवाधिकार’ प्रकाशित हुई है। कुल 202 पृष्ठों की इस पुस्तक को के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) के तरूण विजय पचौरी ने हार्ड कवर में उच्च गुणवत्ता के साथ प्रकाशित किया है।लेखक डॉ. सुधांशु शेखर ने बताया कि प्रस्तुत पुस्तक में प्रस्तावना एवं उपसंहार सहित कुल तेरह अध्याय हैं। प्रस्तावना में विषय की आवश्यकता को रेखांकित किया है। अध्याय दो से पाँच तक क्रमशः ‘दलित’, ‘स्त्री’, ‘धर्म’ एवं ‘राष्ट्र’ को गाँधी की दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है। आगे अध्याय छः से नौ तक पुनः क्रमशः ‘दलित’, ‘स्त्री’, ‘धर्म’ एवं ‘राष्ट्र’ को डॉ. अंबेडकर की दृष्टि से व्याख्यायित किया गया है। तदुपरांत अध्याय दस से बारह तक ‘गाँधी’, ‘डॉ. अंबेडकर एवं ‘गाँधी- अंबेडकर’ की मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा की गई है। अंतिम (तेरहवें) अध्याय उपसंहार में निष्कर्ष रूप में कहा गया है समग्रता में देखने पर गाँधी-अंबेडकर एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, पूरक साबित होते हैं।                                                                                                                                                                     उन्होंने बताया कि इस पुस्तक में महात्मा गाँधी एवं डॉ. भीमराव अंबेडकर के कुछ प्रमुख विचारों को उसके मूल अर्थ संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस क्रम में पक्षपात एवं रागद्वेष से बचने की हरसंभव कोशिश की गई है।           उन्होंने बताया कि महात्मा गाँधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर दोनों की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति और वैचारिक निर्मिति भिन्न-भिन्न है, जो उनके जीवन-दर्शन में मौजूद विभिन्नताओं का मुख्य कारक है। दलित-मुक्ति के सवालों और विशेषकर मुक्ति के साधनों या तरीकों को लेकर गाँधी-अंबेडकर के बीच काफी मतभेद रहे हैं। ये मतभेद इतिहास में दर्ज हैं और इनसे इनकार करना न तो उचित है और न ही वांछनीय। हम दोनों के विचारों के बीच तुलना करने और उनमें से किसी को भी श्रेष्ठ बताने हेतु भी स्वतंत्र हैं, लेकिन किसी एक विचारक का अंधभक्त बनकर दूसरे के योगदानों को पूरी तरह नजरअंदाज करना और कुत्सित स्वार्थवश इन मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, तो सरासर अन्याय एवं बौद्धिक छल भी है।                                                                                                                                                                                                                                                                                   उन्होंने बताया कि गाँधी और डॉ. अंबेडकर दोनों ने अपने युगधर्म को समझा और तत्कालीन चुनौतियों का अपने-अपने ढंग से मुकाबला किया। इस क्रम में दोनों को जब जैसा उचित लगा, तब उन्होंने वैसा कदम उठाया। बेशक ज्यादातर मामलों में दोनों के लक्ष्य एक होते हुए भी उनकी राहें जुदा थीं। तात्कालीन परिस्थितियों में गाँधी और डॉ. अंबेडकर में से किसका रास्ता ज्यादा सही था, यह कहना तो बहुत कठिन है। लेकिन, यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि यदि गाँधी-अंबेडकर साथ-साथ चले होते, तो भारत की तकदीर कुछ और ही होती!