Bhumandalikaran भूमंडलीकरण और मानवाधिकार

1. भूमिका
भूमंडलीकरण को विकास, शांति एवं मानवाधिकार की कुंजी के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, लेकिन वास्तव में यह इन तीनों के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है। भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हितों का संरक्षण करती है और इसमें बहुसंख्य आबादी के मान-सम्मान एवं हक-अधिकारों का घोर हनन होता है। यह एक तरह से गरीबी, विषमता, हिंसा एवं मानवाधिकार-हनन के अन्य रूपों का ही वैश्विक विस्तार है। ऐसे में भूमंडलीकरण और मानवाधिकार के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जाना आवश्यक है। यही इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘भूमिका’ का प्रस्थान बिंदु है।
दूसरे अध्याय ‘भूमंडलीकरण और लोकतंत्रा’ में यह बताया गया है कि भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया लोकतंत्रा की मूल भावनाओं को कुचलती है और उसमें आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक न्याय का निषेध है। जहाँ भूमंडलीकरण बाजार के निष्क्रिय उपभोक्ताओं के दम पर फलता-फूलता है, वहीं लोकतंत्रा की सफलता समाज के सभी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी से सुनिश्चित होती है। लोकतंत्रा को भी कहीं यांत्रिक रूप में न तो आरोपित किया जा सकता है और न ही कृत्रिम तरीके से उत्पन्न किया जा सकता है। प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट सभ्यता-संस्कृति, इतिहास एवं परंपराएँ होती हैं और वहाँ के लोगों की अपेक्षाएँ एवं आकाँक्षाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। संबंधित समाज की मिट्टी एवं आवोहवा के अनुकूल होने पर ही कोई व्यवस्था फल-फूल सकती है और यह बात लोकतंत्रा पर भी लागू होती है।
तीसरा अध्याय ‘भूमंडलीकरण और आतंकवाद’ है। इसमें यह दिखाया गया है कि भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण आतंकवाद को बढ़ावा मिला है।
चैथे अध्याय ‘भूमंडलीकरण और विश्वशांति’ में यह दिखाया गया है कि भूमंडलीकरण के समर्थक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सारी सुविधाएँ, प्राकृतिक संसाधन, मानव श्रम और बाजार उपलब्ध कराने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसके लिए वह ‘युद्ध एवं प्रेम की नीति’ अपनाते हैं, जहाँ जीत के लिए ‘सब कुछ जायज है।’ इसी की बानगी है कि राष्ट्र-राज्य के अंत की घोषणा करने वाले देश अपने राष्ट्रीय हितों की खातिर ‘युद्ध’ को भी ‘जायज’ ठहराते हैं और आर्थिक लाभ के लिए हर जगह अशांति को हवा देने में लगे रहते हैं। अतः, अब समय आ गया है कि हम ‘विश्वशांति’ को सही संदर्भों में देखें-समझें।
पाँचवें अध्याय ‘भूमंडलीकरण और सामाजिक न्याय’ में यह बताया गया है कि भूमंडलीकरण की नीतियाँ सामाजिक न्याय के प्रतिकूल हैं। जिन देशों ने भूमंडलीकरण के जरिए तथाकथित समृद्धि पाई है, वहाँ भी सामाजिक न्याय की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। उलटे वहाँ आंतरिक जनतंत्रा, मानवाधिकार एवं समानता की बलि चढ़ाई गई है।8 वास्तव में, भूमंडलीकरण के प्रचारक इसकी श्रेष्ठता का झूठा दंभ भर रहे हंै, मगर यह प्रक्रिया अंदर से खोखली हो चुकी है और इसका गतितत्व समाप्त होने को है। उसके अंतर्विरोध भी खुलकर सामने आ रहे हैं। यह दिखाने के लिए भले ही एकाध ‘अश्वेत’ को ‘श्वेत घर’ (‘ह्नाइट हाऊस’) पहँुचा दे और एक-दो ‘स्लमडाॅग’ को करोड़पति (‘मिलिनियर’) बना दे, लेकिन यह ‘सामाजिक न्याय’ एवं ‘सर्वोदय’ नहीं ला सकता।
छठा अध्याय हैऋ ‘भूमंडलीकरण और स्त्राी-मुक्ति’। भूमंडलीकरण के पैरोकारों ने स्त्राी-मुक्ति को देह-मुक्ति तक सीमित कर दिया है। इस तरह उनके द्वारा मनाया जा रहा स्त्राी-मुक्ति-उत्सव महज छलावा भर है। भूमंडलीकरण-प्रायोजित स्त्राी-मुक्ति वरेण्य नहीं है। सातवाँ अध्याय ‘भूमंडलीकरण और पर्यावरण’ है। भूमंडलीकरण की नीतियों ने प्रकृति-प्रयावरण को नुकसान पहुँचाया है। इसलिए, आज पर्यावरण-संरक्षण पर काफी गंभीरता से विचार-विमर्श हो रहा है। यह कहा जा रहा है कि पर्यावरण-संरक्षण का प्रश्न पूरब और पश्चिम, उत्तर और दक्षिणऋ सभी के समान हित का प्रश्न है। आज दुनिया के अधिकांश चिंतक और वैज्ञानिक इस बात की चेतावनी दे रहे हैं कि विकास का वर्तमान रास्ता विनाश की ओर ले जाने वाला है। मौजूदा औद्योगिक ढाँचे को चलाने वाले लोग भी प्राकृतिक परिवेश के संरक्षण और पर्यावरण-संतुलन की बात करने लगे हैं, भले ही उनके काम इस भावना के विपरीत पड़ते हों।
आठवाँ अध्याय ‘भूमंडलीकरण और ग्राम-स्वराज’ है। भूमंडलीकरण के इस दौर में ‘ग्लोबल-विलेज’ (‘विश्व-ग्राम’) का झूठा प्रचार किया जा रहा है और विकास के बड़े-बड़े आँकड़े पेश किए जा रहे हैं। मगर, सच्चाई यह है कि आज ‘गाँव’ अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। गाँव का रहन-सहन, खान-पान, भाषा-विचार, इतिहास-दर्शन, सभ्यता-संस्कृति एवं जीवनशैली भी प्रदूषित हो रही है और हमारा स्वाभिमान, स्वावलंबन एवं स्वायत्ता खतरे में है
नवें अध्याय में ‘भूमंडलीकरण और सर्वोदय’ की चर्चा है। हम जानते हैं कि भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण दुनिया के मुट्ठी भर लोगों का खूब विकास हो रहा है, लेकिन इससे बहुसंख्यक आबादी को गरीबी, बेरोजगारी एवं पलायन का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में भूमंडलीकरण के बरअक्श सर्वाेदय की नीतियों को अपनाने की जरूरत है, जिसमें सबों के विकास की कल्पना की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि सभी के विकास के बगैर दुनिया का विकास नहीं हो सकता।
दसवें अध्याय का विषय हैऋ ‘भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद’। भूमंडलीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी ताकतें राष्ट्र-राज्य के अंत की घोषणा कर रही हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) का जमाना लद गया और विश्वयारी (काॅसमो-पाॅलिटाॅनिज्म) का नया युग आया है। मगर, वास्तव में यह एक नव-साम्राज्यवादी साजिश है, जिसकी आड़ में दुनिया में बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद का विचार फैलाया जा रहा है। साम्राज्यवाद से लड़ने और देश की एकता एवं अखंडता को बचाने के लिए उदात्त राष्ट्रवाद की जरूरत है। ऐसे राष्ट्रवाद को अपनाकर राष्ट्र के विरोधियों, विदेशीकरण के पुजारियों और छद्म राष्ट्रवाद के खिलाड़ियों को भी माकूल जवाब दिया जा सकता है। भूमंडलीकरण और भारतीय सभ्यता आज भूमंडलीकरण के इस दौर में भारत की सच्ची सांस्कृतिक दृष्टि दब-सी गई है।
ग्यारहवें अध्याय में ‘भूमंडलीकरण और भारतीय सभ्यता’ और बारहवें अध्याय में ‘भूमंडलीकरण और भारतीय विकल्प’ की चर्चा है। आज भूमंडलीकरण द्वारा संपोषित नीतियों को खूब प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, लेकिन इसकी दिशा वास्तव में विनाशकारी साबित हो रही है। ऐसे में भूमंडलीकरण के भारतीय विकल्प की ओर ध्यान जाना स्वभाविक है।
तेरहवें अध्याय में ‘विकास और मानवाधिकार’ की चर्चा है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि भूमंडलीकरण के इस नव-साम्राज्यवादी समय में ‘विकास’ और ‘मानवाधिकार’ के बीच छत्तीस का आँकड़ा हो गया है; क्योंकि नव-साम्राज्यवादी ताकतों ने विकास के नाम पर दुनिया की प्राकृतिक संपदाओं एवं मानव संसाधनों पर कब्जे की होड़ लग गई है। इस तरह प्रकृति-पर्यावरण को नुकसान पहुँचा कर लोगों के जीवन को संकट में डाला जा रहा है। दूसरी ओर जल, जंगल एवं जमीन आदि से लोगों के बेदखल कर उनकी आजीविका भी छीनी जा रही है। साथ ही विकास की इस अवधारणा ने बेरोजगारी, विषमता, विस्थापन एवं हिंसा को भी बढ़ावा दिया है। ऐसे में आज मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता एवं सम्मान बढ़ाने की जरूरत है।
चैदहवें अध्याय ‘वर्ण-व्यवस्था और मानवाधिकार’ में हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में मानवाधिकार का सिद्धांत सर्वप्रथम चातुर्वण्र्य-व्यवस्था के साथ जुड़ा रहा है, जो मानवाधिकार के बिल्कुल प्रतिकूल है। यही कारण है कि भारतीय संविधान में वर्ण-व्यवस्थाजन्य भेदभाव को समाप्त कर सबों के लिए सामाजिक स्वतंत्राता एवं सामाजिक समानता के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा की गारंटी दी गई है। इसलिए, इसमें न केवल दलितों अपितु पिछड़ों, आदिवासियों, घुमंतू जातियों, महिलाओं, बच्चों, विकलांगों एवं वृद्धों सहित सभी नागरिकों के लिए मानवाधिकार सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है। यही पंद्रहवें अध्याय ‘भारतीय संविधान और मानवाधिकार’ में दिखाया गया है।
सोलहवाँ अध्याय ‘आरक्षण और मानवाधिकार’ भी तेरहवें एवं चैदहवें अध्याय से जुड़ा है। हम जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के कारण सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसकी मूल भावना है कि मानवाधिकारों से वंचित बहुजन समाज को विशेष सुविधाएँ प्राप्त करने का हक है, ताकि वे सदियों की दासता से मुक्त होकर समाज की मुख्यधारा में आएँ।
सत्राहवें एवं अठारहवें अध्याय में क्रमशः ‘दलित-मुक्ति और मानवाधिकार’ एवं ‘दलित-अधिकार और मानवाधिकार’ की चर्चा है। स्वतंत्रा भारत में दलितों के मानवाधिकारों की रक्षा हेतु कई संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं; मगर हम इन प्रावधानों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में आज भी सफल नहीं हो पाए हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों को आज भी कइ तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में दलितों-वंचितों के मानवाधिकारों के संरक्षण और उनकी समुचित हिस्सेदारी एवं भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हर क्षेत्रा में अमूलचूल संरचनात्मक एवं मूल्यात्मक परिवर्तन अपेक्षित है।
उन्नीसवाँ अध्याय ‘मृत्युदंड एवं मानवाधिकार’ है। इसमें कहा गया है कि सभी मनुष्य मूलतः अच्छे होते हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ खास परिस्थितियाँ किसी-किसी को अपराध करने पर मजबूर कर देती हैं। अतः, हमें ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसके कोई भी व्यक्ति अपराध की ओर प्रेरित नहीं हो। सभी नैतिकता एवं सदाचार का पालन करते हुए मिलजुल कर रहें। यदि हम ऐसा कर सकें, तो समाज से अपराध का उन्मूलन हो जाएगा और फिर अपराधियों के उन्मूलन हेतु ‘मृत्युदंड’ जैसे क्रूर कानूनों का सहारा नहीं लेना पड़ेगा।
अंतिम अध्याय ‘निष्कर्ष’ में हम पाते हैं कि वास्तव में, भूमंडलीकरण की मौजूदा नीतियाँ मानवाधिकारों के हनन हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। कुल मिलाकर स्थिति काफी चिंताजनक है और सिर्फ ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ या ‘भारतीय संविधान’ में मानवाधिकारों के प्रावधानों अथवा अमेरिकी राष्ट्रपति या भारतीय प्रधानमंत्राी की घोषणाओं मात्रा से मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं होने वाला है। इसके लिए हमंे आम जनता की शक्ति को जगाना होगा और हर तरह के अन्याय, उत्पीड़न एवं मानवाधिकार-हनन के प्रति प्रतिरोध की चेतना विकसित करनी होगी। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हक एवं अधिकार खैरात में नहीं मिलते हैं, बल्कि उसकी कीमत चुकानी पड़ती है और उसकी रक्षा के लिए निरंतर सजग एवं सतत् संघर्षरत रहना पड़ता है।