Bhumandalikaran aur Manvadhikar भूमंडलीकरण और मानवाधिकार

20. भूमंडलीकरण और मानवाधिकार
‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के चार्टर में मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरूष एवं स्त्राी के समान अधिकारों के प्रति विश्वास व्यक्त किया गया है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-1 में ‘मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने और उसे प्रोत्साहित करने’ की बात कही गई है। वहीं अनुच्छेद-13 में ‘जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्राताओं की प्राप्ति में सहायता देना’ निहित है। अनुच्छेद-55 में भी ‘जाति, लिंग, भाषा या धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं को बढ़ावा देने’ की बात कही गयी है।1
इसी तरह, ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-56 में यह प्रावधान है कि सभी सदस्य राष्ट्र मानव अधिकारों तथा मानव स्वतंत्राताओं की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपना सहयोग प्रदान करेंगे,2 जबकि अनुच्छेद-62 में ‘सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के संबंध में सिफारिश करने’3 की बात कही गई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि जीवन का अर्थ केवल शारीरिक रूप से बिना किसी पीड़ा के जीवित रहना ही नहीं, बल्कि गरिमापूर्ण, स्वस्थ एवं सकारात्मक जीवन गुजारना है।4 यही बात आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृति अधिकारांे के संबंध में अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्रा (3 जनवरी, 1976) में भी कही गई है। इसमें तीन प्रकार के मानवाधिकारों का वर्णन है5ऋ एक; न्यायपूर्ण और उचित परिस्थितियों में काम का अधिकार, दो; सामाजिक संरक्षण, उचित जीवन-स्तर और शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिए उपलब्ध किए जा सकने वाले उच्चतम स्तरों का अधिकार और तीन; शिक्षा और सांस्कृतिक स्वतंत्राता एवं वैज्ञानिक प्रगति से मिले लाभों का आनंद लेने का अधिकार।
इधर, भूमंडलीकरण के इस दौर में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के मानवाधिकार संबंधी सार्वभौम घोषणा-पत्रा का घोर उल्लंघन हो रहा है। इस घोषणा-पत्रा के मुख्य प्रचारक देश अमेरिका में भी मानवाधिकारों का हनन होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ”हजारों लोग मानवाधिकार हनन के शिकार हो रहे हैं और वहाँ यह उल्लंघन, दमन की उच्च तकनीक यानी हाइटेक उपकरण, बिजली के झटके देने वाले उपकरणों, जिनमें से कई उपकरणों पर तो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अंतर्गत पाबंदी लगी हुई है, रासायनिक छिड़काव (‘कैमिकल स्प्रे’) तथा जानलेवा इंजेक्शनों द्वारा किए जाते हैं।“6 इसके अलावा अमेरिकी जेल अधिकारी एवं पुलिस बल यातना के लिए इस्तेमाल होने वाले ऐसे-ऐसे खौफनाक उपकरणों का प्रयोग करते हैं, जिससे शारीरिक यंत्राणा कई गुना बढ़ जाती है। जैसे विशेष प्रकार की हथकड़ी एवं बेड़ी, जिसके पहनने के बाद अगर कोई भागने की कोशिश करे, तो अंग ही कट जाए, बिजली के चाबुक आदि जिनका अमेरिकन कानून के अंतर्गत भी प्रयोग करने की मनाही है। अपने कानून की गिरफ्त से बचने के लिए अमेरिकी सरकार तथाकथित खतरनाक बंदियों को दूसरे देशों की जेलों में भी रखती है, जैसे अलकायदा के संदिग्ध समर्थकों को अफगानिस्तान से पकड़कर गुआंताबाओ नामक द्वीप की जेल में रखकर अमानवीय यातनाएँ दी जा रही हैं।“7
इस तरह हम देखते हैं कि तथाकथित विकसित देशों में मानवाधिकार की स्थिति काफी खतरनाक है। इस बाबत शमसुल इस्लाम लिखते हैं, ”दुनिया के सबसे महान प्रजातंत्रा अमेरिका और दुनिया में प्रजातंत्रा की नर्सरी कहे जानेवाले देश इंग्लैंड में वहाँ के नागरिकों के मानवीय अधिकारों पर लगातार हमले बढ़े। सारी दुनिया को बंधुता, समानता और स्वतंत्राता का पाठ पढ़ाने वाले इन देशों में नस्लवाद और धार्मिक कट्टरता के कारण सांस्कृतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों, गैर-गोरे नागरिकों और मेहनतकशों का जीना दूभर हुआ है। … ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ के एक अध्ययन में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई कि अगर किसी गोरे की हत्या हो, तो हत्यारे को फाँसी की सजा लगभग निश्चित है, जबकि किसी काले या भूरी नस्ल के व्यक्ति के हत्यारे को प्राणदंड मिलना जरूरी नहीं है। अमेरिकी काँगे्रस ने अक्टूबर 1993 में अपनी एक रिपोर्ट में इस बात को माना कि हत्या के ज्यादातर गोरे अभियुक्त छूट जाते हैं, जबकि काले आमतौर पर फाँसी चढ़ जाते हैं।“8
जाहिर है कि अमेरिका आदि पश्चिमी देश भारत जैसे विकासशील देशों को निरंतर मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाते रहते हैं, तो इसके पीछे आम लोगों की भलाई की शुभ भावना नहीं, वरन् अपने राजनैतिक एवं आर्थिक हितों की पूर्ति कुत्सित साजिश ही रहती है। राजकिशोर लिखते हैं, ”पश्चिमी देशों की सरकारें तथा उन देशों के कार्यकत्र्ता यदि मानव अधिकारों के कुछ खास रूपों-नागरिक तथा राजनैतिक स्वतंत्राताएँ पर ही जोर देते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनमें तीसरी दुनिया के देशों की जीवन स्थितियों के प्रति पर्याप्त संवेदना नहीं है। यह संवेदना न होने का एक बड़ा कारण उनकी अर्थव्यवस्था का अनुदार पूँजीवादी स्वरूप है, जो गरीब देशों के आर्थिक शोषण के बगैर फल-फूल नहीं सकती। अतः, पश्चिम के अमीर देशों के लिए मानव अधिकारों का वह भाष्य भी, जो ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा स्वीकृत है, प्रचारित करना तथा उस पर जोर देना उनके अपने स्वार्थों के खिलाफ है। उदाहरण के लिए मानव अधिकारों की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाएगी, तो उनकी अधिकांश कंपनियों को भारत से चल देना पड़ेगा। यह भी कहा जा सकता है कि इन कंपनियों को भारत से विदा किए बगैर भारत में मानव अधिकारों की अवधारणा एक विश्व अवधारणा होने के बावजूद मानव अधिकारों का कोई सम्यक् विश्व आंदोलन उभर नहीं पा रहा है। चेतना और कर्म, दोनों ही स्तरों पर मानवता बुरी तरह विभाजित है।“9
वास्तव में, भूमंडलीकरण की मौजूदा नीतियाँ मानवाधिकारों के हनन हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। वरिष्ठ पत्राकार सुरेन्द्र रंजन ने ठीक ही लिखा है, ”इस नीति के तहत बड़ी परियोजनाएँ लाखों की संख्या में लोगों के विस्थापन का कारण बनी हैं। इन लोगों का कहीं भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है। अधिकांश विस्थापित गरीब और आदिवासी समुदाय के लोग रहे हैं। विस्थापन सम्मान के साथ जीवन और आजीविका की स्वतंत्राता के मूल अधिकारों का हनन कर ही होता है।“10 ऐसे में भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ मानवाधिकार संरक्षण की बातों का तालमेल नहीं बैठता है। अब भूमंडलीकरण के दलालों द्वारा इसे मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय से जोड़ने के पीछे के खतरनाक मंसूबों को भी लोग समझने लगे हैं। भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर में यह प्रचारित किया गया था कि अर्थव्यवस्था के विकास से नागरिकों के समान अधिकारों का भी विकास होगा, लेकिन परिणाम इसके ठीक विपरीत आया हैऋ भूमंडलीकरण की नीतियों ने विषमता की खाई को और भी गहरी एवं चैड़ी बना दिया है। एक तरफ थोड़े-से लोगों के लिए विलासिता के अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं और इसकी वजह से ज्यादा से ज्यादा लोग हो समाज के हाशिए पर फेंके जा रहे हैं, जिनके लिए आजीविका पाने की कोई भी संभावना शेष नहीं है। इसके अलावा इस औद्योगिक सभ्यता की भौतिक संसाधनों को निगलने की भूख सीमाहीन है। इसलिए, दुनिया भर में जल, जंगल और जमीन औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले किए जा रहे हैं, ताकि संसाधनों की उनकी भूख मिटाई जा सके। इसके लिए बेरहमी से करोड़ांे लोगों को उनके पारंपरिक परिवेश से विस्थापित किया जा रहा है।11
कुल मिलाकर स्थिति काफी चिंताजनक है और इससे निपटने के लिए सामूहिक प्रयास करने की जरूरत है। सिर्फ ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ या ‘भारतीय संविधान’ में मानवाधिकारों के प्रावधानों अथवा अमेरिकी राष्ट्रपति या भारतीय प्रधानमंत्राी की घोषणाओं मात्रा से मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं होने वाला है। इसके लिए हमंे आम जनता की शक्ति को जगाना होगा और हर तरह के अन्याय, उत्पीड़न एवं मानवाधिकार-हनन के प्रति प्रतिरोध की चेतना विकसित करनी होगी। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हक एवं अधिकार खैरात में नहीं मिलते हैं, बल्कि उसकी कीमत चुकानी पड़ती है और उसकी रक्षा के लिए निरंतर सजग एवं सतत् संघर्षरत रहना पड़ता है।

संदर्भ
1. गौतम, रमेश प्रसाद, सिंह पृथ्वी पाल; भारत में मानव अधिकार, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), 2001, पृ. 176-221.
उदधृत: संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर
2. वही.
3. वही.
4. वही.
5. प्रंासिस कोरेलिया वर्सेस यूनियन टेरीररी आॅफ डेल्टी, एआईआर, 1981, एससी, 746-748.
6. एमेनेस्टी इंटरनेशनल, यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ अमेरिका राइट्स फॅार आॅल, लंदन, 1998, पृ. 17-32 एवं 59-65.
7. वही.
8. इस्लाम, शम्सुल’; ‘खून से भीगी पृथ्वी’, मानवाधिकारों का संघर्ष, संपादक: राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 55.
9. रंजन, सत्येंद्र; ‘भारत का अपना किस्सा है’, मानवाधिकारों का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 68.
10. डाॅ. सिंहल, सुरेश चन्द्र; अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, 2003, पृ. 366.
11. राजकिशोर; ‘मानव अधिकारों का भविष्य’, मानवाधिकारांे का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 172.

20. निष्कर्ष

‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के चार्टर में मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरूष एवं स्त्राी के समान अधिकारों के प्रति विश्वास व्यक्त किया गया है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-1 में ‘मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने और उसे प्रोत्साहित करने’ की बात कही गई है। वहीं अनुच्छेद-13 में ‘जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्राताओं की प्राप्ति में सहायता देना’ निहित है। अनुच्छेद-55 में भी ‘जाति, लिंग, भाषा या धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं को बढ़ावा देने’ की बात कही गयी है।1

इसी तरह, ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-56 में यह प्रावधान है कि सभी सदस्य राष्ट्र मानव अधिकारों तथा मानव स्वतंत्राताओं की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपना सहयोग प्रदान करेंगे,2 जबकि अनुच्छेद-62 में ‘सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के संबंध में सिफारिश करने’3 की बात कही गई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि जीवन का अर्थ केवल शारीरिक रूप से बिना किसी पीड़ा के जीवित रहना ही नहीं, बल्कि गरिमापूर्ण, स्वस्थ एवं सकारात्मक जीवन गुजारना है।4 यही बात आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृति अधिकारांे के संबंध में अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्रा (3 जनवरी, 1976) में भी कही गई है। इसमें तीन प्रकार के मानवाधिकारों का वर्णन है5ऋ एक; न्यायपूर्ण और उचित परिस्थितियों में काम का अधिकार, दो; सामाजिक संरक्षण, उचित जीवन-स्तर और शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिए उपलब्ध किए जा सकने वाले उच्चतम स्तरों का अधिकार और तीन; शिक्षा और सांस्कृतिक स्वतंत्राता एवं वैज्ञानिक प्रगति से मिले लाभों का आनंद लेने का अधिकार।

इधर, भूमंडलीकरण के इस दौर में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के मानवाधिकार संबंधी सार्वभौम घोषणा-पत्रा का घोर उल्लंघन हो रहा है। इस घोषणा-पत्रा के मुख्य प्रचारक देश अमेरिका में भी मानवाधिकारों का हनन होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ”हजारों लोग मानवाधिकार हनन के शिकार हो रहे हैं और वहाँ यह उल्लंघन, दमन की उच्च तकनीक यानी हाइटेक उपकरण, बिजली के झटके देने वाले उपकरणों, जिनमें से कई उपकरणों पर तो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अंतर्गत पाबंदी लगी हुई है, रासायनिक छिड़काव (‘कैमिकल स्प्रे’) तथा जानलेवा इंजेक्शनों द्वारा किए जाते हैं।“6 इसके अलावा अमेरिकी जेल अधिकारी एवं पुलिस बल यातना के लिए इस्तेमाल होने वाले ऐसे-ऐसे खौफनाक उपकरणों का प्रयोग करते हैं, जिससे शारीरिक यंत्राणा कई गुना बढ़ जाती है। जैसे विशेष प्रकार की हथकड़ी एवं बेड़ी, जिसके पहनने के बाद अगर कोई भागने की कोशिश करे, तो अंग ही कट जाए, बिजली के चाबुक आदि जिनका अमेरिकन कानून के अंतर्गत भी प्रयोग करने की मनाही है। अपने कानून की गिरफ्त से बचने के लिए अमेरिकी सरकार तथाकथित खतरनाक बंदियों को दूसरे देशों की जेलों में भी रखती है, जैसे अलकायदा के संदिग्ध समर्थकों को अफगानिस्तान से पकड़कर गुआंताबाओ नामक द्वीप की जेल में रखकर अमानवीय यातनाएँ दी जा रही हैं।“7

इस तरह हम देखते हैं कि तथाकथित विकसित देशों में मानवाधिकार की स्थिति काफी खतरनाक है। इस बाबत शमसुल इस्लाम लिखते हैं, ”दुनिया के सबसे महान प्रजातंत्रा अमेरिका और दुनिया में प्रजातंत्रा की नर्सरी कहे जानेवाले देश इंग्लैंड में वहाँ के नागरिकों के मानवीय अधिकारों पर लगातार हमले बढ़े। सारी दुनिया को बंधुता, समानता और स्वतंत्राता का पाठ पढ़ाने वाले इन देशों में नस्लवाद और धार्मिक कट्टरता के कारण सांस्कृतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों, गैर-गोरे नागरिकों और मेहनतकशों का जीना दूभर हुआ है। … ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ के एक अध्ययन में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई कि अगर किसी गोरे की हत्या हो, तो हत्यारे को फाँसी की सजा लगभग निश्चित है, जबकि किसी काले या भूरी नस्ल के व्यक्ति के हत्यारे को प्राणदंड मिलना जरूरी नहीं है। अमेरिकी काँगे्रस ने अक्टूबर 1993 में अपनी एक रिपोर्ट में इस बात को माना कि हत्या के ज्यादातर गोरे अभियुक्त छूट जाते हैं, जबकि काले आमतौर पर फाँसी चढ़ जाते हैं।“8

जाहिर है कि अमेरिका आदि पश्चिमी देश भारत जैसे विकासशील देशों को निरंतर मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाते रहते हैं, तो इसके पीछे आम लोगों की भलाई की शुभ भावना नहीं, वरन् अपने राजनैतिक एवं आर्थिक हितों की पूर्ति कुत्सित साजिश ही रहती है। राजकिशोर लिखते हैं, ”पश्चिमी देशों की सरकारें तथा उन देशों के कार्यकत्र्ता यदि मानव अधिकारों के कुछ खास रूपों-नागरिक तथा राजनैतिक स्वतंत्राताएँ पर ही जोर देते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनमें तीसरी दुनिया के देशों की जीवन स्थितियों के प्रति पर्याप्त संवेदना नहीं है। यह संवेदना न होने का एक बड़ा कारण उनकी अर्थव्यवस्था का अनुदार पूँजीवादी स्वरूप है, जो गरीब देशों के आर्थिक शोषण के बगैर फल-फूल नहीं सकती। अतः, पश्चिम के अमीर देशों के लिए मानव अधिकारों का वह भाष्य भी, जो ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा स्वीकृत है, प्रचारित करना तथा उस पर जोर देना उनके अपने स्वार्थों के खिलाफ है। उदाहरण के लिए मानव अधिकारों की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाएगी, तो उनकी अधिकांश कंपनियों को भारत से चल देना पड़ेगा। यह भी कहा जा सकता है कि इन कंपनियों को भारत से विदा किए बगैर भारत में मानव अधिकारों की अवधारणा एक विश्व अवधारणा होने के बावजूद मानव अधिकारों का कोई सम्यक् विश्व आंदोलन उभर नहीं पा रहा है। चेतना और कर्म, दोनों ही स्तरों पर मानवता बुरी तरह विभाजित है।“9

वास्तव में, भूमंडलीकरण की मौजूदा नीतियाँ मानवाधिकारों के हनन हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। वरिष्ठ पत्राकार सुरेन्द्र रंजन ने ठीक ही लिखा है, ”इस नीति के तहत बड़ी परियोजनाएँ लाखों की संख्या में लोगों के विस्थापन का कारण बनी हैं। इन लोगों का कहीं भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है। अधिकांश विस्थापित गरीब और आदिवासी समुदाय के लोग रहे हैं। विस्थापन सम्मान के साथ जीवन और आजीविका की स्वतंत्राता के मूल अधिकारों का हनन कर ही होता है।“10 ऐसे में भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ मानवाधिकार संरक्षण की बातों का तालमेल नहीं बैठता है। अब भूमंडलीकरण के दलालों द्वारा इसे मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय से जोड़ने के पीछे के खतरनाक मंसूबों को भी लोग समझने लगे हैं। भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर में यह प्रचारित किया गया था कि अर्थव्यवस्था के विकास से नागरिकों के समान अधिकारों का भी विकास होगा, लेकिन परिणाम इसके ठीक विपरीत आया हैऋ भूमंडलीकरण की नीतियों ने विषमता की खाई को और भी गहरी एवं चैड़ी बना दिया है। एक तरफ थोड़े-से लोगों के लिए विलासिता के अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं और इसकी वजह से ज्यादा से ज्यादा लोग हो समाज के हाशिए पर फेंके जा रहे हैं, जिनके लिए आजीविका पाने की कोई भी संभावना शेष नहीं है। इसके अलावा इस औद्योगिक सभ्यता की भौतिक संसाधनों को निगलने की भूख सीमाहीन है। इसलिए, दुनिया भर में जल, जंगल और जमीन औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले किए जा रहे हैं, ताकि संसाधनों की उनकी भूख मिटाई जा सके। इसके लिए बेरहमी से करोड़ांे लोगों को उनके पारंपरिक परिवेश से विस्थापित किया जा रहा है।11

कुल मिलाकर स्थिति काफी चिंताजनक है और इससे निपटने के लिए सामूहिक प्रयास करने की जरूरत है। सिर्फ ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ या ‘भारतीय संविधान’ में मानवाधिकारों के प्रावधानों अथवा अमेरिकी राष्ट्रपति या भारतीय प्रधानमंत्राी की घोषणाओं मात्रा से मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं होने वाला है। इसके लिए हमंे आम जनता की शक्ति को जगाना होगा और हर तरह के अन्याय, उत्पीड़न एवं मानवाधिकार-हनन के प्रति प्रतिरोध की चेतना विकसित करनी होगी। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हक एवं अधिकार खैरात में नहीं मिलते हैं, बल्कि उसकी कीमत चुकानी पड़ती है और उसकी रक्षा के लिए निरंतर सजग एवं सतत् संघर्षरत रहना पड़ता है।

 

संदर्भ

1. गौतम, रमेश प्रसाद, सिंह पृथ्वी पाल; भारत में मानव अधिकार, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), 2001, पृ. 176-221.

उदधृत: संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर

2. वही.

3. वही.

4. वही.

5. प्रंासिस कोरेलिया वर्सेस यूनियन टेरीररी आॅफ डेल्टी, एआईआर, 1981, एससी, 746-748.

6. एमेनेस्टी इंटरनेशनल, यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ अमेरिका राइट्स फॅार आॅल, लंदन, 1998, पृ. 17-32 एवं 59-65.

7. वही.

8. इस्लाम, शम्सुल’; ‘खून से भीगी पृथ्वी’, मानवाधिकारों का संघर्ष, संपादक: राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 55.

9. रंजन, सत्येंद्र; ‘भारत का अपना किस्सा है’, मानवाधिकारों का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 68.

10. डाॅ. सिंहल, सुरेश चन्द्र; अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, 2003, पृ. 366.

11. राजकिशोर; ‘मानव अधिकारों का भविष्य’, मानवाधिकारांे का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 172.

20. निष्कर्ष
‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के चार्टर में मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरूष एवं स्त्राी के समान अधिकारों के प्रति विश्वास व्यक्त किया गया है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-1 में ‘मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने और उसे प्रोत्साहित करने’ की बात कही गई है। वहीं अनुच्छेद-13 में ‘जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्राताओं की प्राप्ति में सहायता देना’ निहित है। अनुच्छेद-55 में भी ‘जाति, लिंग, भाषा या धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं को बढ़ावा देने’ की बात कही गयी है।1
इसी तरह, ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के अनुच्छेद-56 में यह प्रावधान है कि सभी सदस्य राष्ट्र मानव अधिकारों तथा मानव स्वतंत्राताओं की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपना सहयोग प्रदान करेंगे,2 जबकि अनुच्छेद-62 में ‘सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्राताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के संबंध में सिफारिश करने’3 की बात कही गई है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि जीवन का अर्थ केवल शारीरिक रूप से बिना किसी पीड़ा के जीवित रहना ही नहीं, बल्कि गरिमापूर्ण, स्वस्थ एवं सकारात्मक जीवन गुजारना है।4 यही बात आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृति अधिकारांे के संबंध में अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्रा (3 जनवरी, 1976) में भी कही गई है। इसमें तीन प्रकार के मानवाधिकारों का वर्णन है5ऋ एक; न्यायपूर्ण और उचित परिस्थितियों में काम का अधिकार, दो; सामाजिक संरक्षण, उचित जीवन-स्तर और शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिए उपलब्ध किए जा सकने वाले उच्चतम स्तरों का अधिकार और तीन; शिक्षा और सांस्कृतिक स्वतंत्राता एवं वैज्ञानिक प्रगति से मिले लाभों का आनंद लेने का अधिकार।
इधर, भूमंडलीकरण के इस दौर में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के मानवाधिकार संबंधी सार्वभौम घोषणा-पत्रा का घोर उल्लंघन हो रहा है। इस घोषणा-पत्रा के मुख्य प्रचारक देश अमेरिका में भी मानवाधिकारों का हनन होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ”हजारों लोग मानवाधिकार हनन के शिकार हो रहे हैं और वहाँ यह उल्लंघन, दमन की उच्च तकनीक यानी हाइटेक उपकरण, बिजली के झटके देने वाले उपकरणों, जिनमें से कई उपकरणों पर तो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अंतर्गत पाबंदी लगी हुई है, रासायनिक छिड़काव (‘कैमिकल स्प्रे’) तथा जानलेवा इंजेक्शनों द्वारा किए जाते हैं।“6 इसके अलावा अमेरिकी जेल अधिकारी एवं पुलिस बल यातना के लिए इस्तेमाल होने वाले ऐसे-ऐसे खौफनाक उपकरणों का प्रयोग करते हैं, जिससे शारीरिक यंत्राणा कई गुना बढ़ जाती है। जैसे विशेष प्रकार की हथकड़ी एवं बेड़ी, जिसके पहनने के बाद अगर कोई भागने की कोशिश करे, तो अंग ही कट जाए, बिजली के चाबुक आदि जिनका अमेरिकन कानून के अंतर्गत भी प्रयोग करने की मनाही है। अपने कानून की गिरफ्त से बचने के लिए अमेरिकी सरकार तथाकथित खतरनाक बंदियों को दूसरे देशों की जेलों में भी रखती है, जैसे अलकायदा के संदिग्ध समर्थकों को अफगानिस्तान से पकड़कर गुआंताबाओ नामक द्वीप की जेल में रखकर अमानवीय यातनाएँ दी जा रही हैं।“7
इस तरह हम देखते हैं कि तथाकथित विकसित देशों में मानवाधिकार की स्थिति काफी खतरनाक है। इस बाबत शमसुल इस्लाम लिखते हैं, ”दुनिया के सबसे महान प्रजातंत्रा अमेरिका और दुनिया में प्रजातंत्रा की नर्सरी कहे जानेवाले देश इंग्लैंड में वहाँ के नागरिकों के मानवीय अधिकारों पर लगातार हमले बढ़े। सारी दुनिया को बंधुता, समानता और स्वतंत्राता का पाठ पढ़ाने वाले इन देशों में नस्लवाद और धार्मिक कट्टरता के कारण सांस्कृतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों, गैर-गोरे नागरिकों और मेहनतकशों का जीना दूभर हुआ है। … ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ के एक अध्ययन में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई कि अगर किसी गोरे की हत्या हो, तो हत्यारे को फाँसी की सजा लगभग निश्चित है, जबकि किसी काले या भूरी नस्ल के व्यक्ति के हत्यारे को प्राणदंड मिलना जरूरी नहीं है। अमेरिकी काँगे्रस ने अक्टूबर 1993 में अपनी एक रिपोर्ट में इस बात को माना कि हत्या के ज्यादातर गोरे अभियुक्त छूट जाते हैं, जबकि काले आमतौर पर फाँसी चढ़ जाते हैं।“8
जाहिर है कि अमेरिका आदि पश्चिमी देश भारत जैसे विकासशील देशों को निरंतर मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाते रहते हैं, तो इसके पीछे आम लोगों की भलाई की शुभ भावना नहीं, वरन् अपने राजनैतिक एवं आर्थिक हितों की पूर्ति कुत्सित साजिश ही रहती है। राजकिशोर लिखते हैं, ”पश्चिमी देशों की सरकारें तथा उन देशों के कार्यकत्र्ता यदि मानव अधिकारों के कुछ खास रूपों-नागरिक तथा राजनैतिक स्वतंत्राताएँ पर ही जोर देते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनमें तीसरी दुनिया के देशों की जीवन स्थितियों के प्रति पर्याप्त संवेदना नहीं है। यह संवेदना न होने का एक बड़ा कारण उनकी अर्थव्यवस्था का अनुदार पूँजीवादी स्वरूप है, जो गरीब देशों के आर्थिक शोषण के बगैर फल-फूल नहीं सकती। अतः, पश्चिम के अमीर देशों के लिए मानव अधिकारों का वह भाष्य भी, जो ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा स्वीकृत है, प्रचारित करना तथा उस पर जोर देना उनके अपने स्वार्थों के खिलाफ है। उदाहरण के लिए मानव अधिकारों की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाएगी, तो उनकी अधिकांश कंपनियों को भारत से चल देना पड़ेगा। यह भी कहा जा सकता है कि इन कंपनियों को भारत से विदा किए बगैर भारत में मानव अधिकारों की अवधारणा एक विश्व अवधारणा होने के बावजूद मानव अधिकारों का कोई सम्यक् विश्व आंदोलन उभर नहीं पा रहा है। चेतना और कर्म, दोनों ही स्तरों पर मानवता बुरी तरह विभाजित है।“9
वास्तव में, भूमंडलीकरण की मौजूदा नीतियाँ मानवाधिकारों के हनन हेतु सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। वरिष्ठ पत्राकार सुरेन्द्र रंजन ने ठीक ही लिखा है, ”इस नीति के तहत बड़ी परियोजनाएँ लाखों की संख्या में लोगों के विस्थापन का कारण बनी हैं। इन लोगों का कहीं भी उचित पुनर्वास नहीं हुआ है। अधिकांश विस्थापित गरीब और आदिवासी समुदाय के लोग रहे हैं। विस्थापन सम्मान के साथ जीवन और आजीविका की स्वतंत्राता के मूल अधिकारों का हनन कर ही होता है।“10 ऐसे में भूमंडलीकरण की नीतियों के साथ मानवाधिकार संरक्षण की बातों का तालमेल नहीं बैठता है। अब भूमंडलीकरण के दलालों द्वारा इसे मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय से जोड़ने के पीछे के खतरनाक मंसूबों को भी लोग समझने लगे हैं। भूमंडलीकरण के प्रारंभिक दौर में यह प्रचारित किया गया था कि अर्थव्यवस्था के विकास से नागरिकों के समान अधिकारों का भी विकास होगा, लेकिन परिणाम इसके ठीक विपरीत आया हैऋ भूमंडलीकरण की नीतियों ने विषमता की खाई को और भी गहरी एवं चैड़ी बना दिया है। एक तरफ थोड़े-से लोगों के लिए विलासिता के अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं और इसकी वजह से ज्यादा से ज्यादा लोग हो समाज के हाशिए पर फेंके जा रहे हैं, जिनके लिए आजीविका पाने की कोई भी संभावना शेष नहीं है। इसके अलावा इस औद्योगिक सभ्यता की भौतिक संसाधनों को निगलने की भूख सीमाहीन है। इसलिए, दुनिया भर में जल, जंगल और जमीन औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले किए जा रहे हैं, ताकि संसाधनों की उनकी भूख मिटाई जा सके। इसके लिए बेरहमी से करोड़ांे लोगों को उनके पारंपरिक परिवेश से विस्थापित किया जा रहा है।11
कुल मिलाकर स्थिति काफी चिंताजनक है और इससे निपटने के लिए सामूहिक प्रयास करने की जरूरत है। सिर्फ ‘संयुक्त राष्ट्र चार्टर’ या ‘भारतीय संविधान’ में मानवाधिकारों के प्रावधानों अथवा अमेरिकी राष्ट्रपति या भारतीय प्रधानमंत्राी की घोषणाओं मात्रा से मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं होने वाला है। इसके लिए हमंे आम जनता की शक्ति को जगाना होगा और हर तरह के अन्याय, उत्पीड़न एवं मानवाधिकार-हनन के प्रति प्रतिरोध की चेतना विकसित करनी होगी। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हक एवं अधिकार खैरात में नहीं मिलते हैं, बल्कि उसकी कीमत चुकानी पड़ती है और उसकी रक्षा के लिए निरंतर सजग एवं सतत् संघर्षरत रहना पड़ता है।

संदर्भ
1. गौतम, रमेश प्रसाद, सिंह पृथ्वी पाल; भारत में मानव अधिकार, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), 2001, पृ. 176-221.
उदधृत: संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर
2. वही.
3. वही.
4. वही.
5. प्रंासिस कोरेलिया वर्सेस यूनियन टेरीररी आॅफ डेल्टी, एआईआर, 1981, एससी, 746-748.
6. एमेनेस्टी इंटरनेशनल, यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ अमेरिका राइट्स फॅार आॅल, लंदन, 1998, पृ. 17-32 एवं 59-65.
7. वही.
8. इस्लाम, शम्सुल’; ‘खून से भीगी पृथ्वी’, मानवाधिकारों का संघर्ष, संपादक: राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 55.
9. रंजन, सत्येंद्र; ‘भारत का अपना किस्सा है’, मानवाधिकारों का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 68.
10. डाॅ. सिंहल, सुरेश चन्द्र; अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, 2003, पृ. 366.
11. राजकिशोर; ‘मानव अधिकारों का भविष्य’, मानवाधिकारांे का संघर्ष, पूर्वोक्त, पृ. 172.