Mrityudand aur Manvadhikar मृत्युदंड और मानवाधिकार

19. मृत्युदंड और मानवाधिकार
संप्रति ‘गैंग रेप’, ‘आतंकी हमले’ एवं ‘आॅनर-किलिंग’ जैसी घटनाओं में शामिल अभियुक्तों को ‘मृत्यदंड’ देने की माँग ज़ोर पकड़ रही है। इसके समर्थकों का कहना है कि ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने का एकमात्रा तरीका ‘मृत्युदंड’ ही हो सकता है।1 ऐसे लोगों का यह भी कहना है कि क्रूर अपराधियों के साथ सख्ती बरतना चाहिए और उनसे ‘जैसे को तैसा’ वाला बर्ताव करना चाहिए। सामान्यतः कानूनी न्याय भी इस बात का समर्थक है कि अपराधी को उसके द्वारा किए गए कुकृत्य के बराबर दंड दिया जाए, यही अपराध रूपी बीमारी का कारगर इलाज है। ब्रेडले, हीगेल, कांट एवं मैकेंजी जैसे दार्शनिकों ने भी ऐसे कठोर इलाजों का समर्थन किया है।2 मैकेंजी के शब्दों में, ”समाज से अपराध का निराकरण तभी संभव है, जबकि अपराधी अपने अपराध का दंड प्राकृतिक एवं तार्किक रूप में अपनी क्रिया के परिणाम के रूप में देखता है।“3 इस तरह ‘मृत्युदंड’ जैसी कठोर सजा अपराधी का तो खात्मा करती ही है, साथ ही अन्य लोगों को भी ऐसे अपराध करने से रोकती है। अतः, सामाजिक एवं राजकीय मर्यादा के रक्षार्थ मृत्युदंड उचित है।
मानवता के इतिहास में विभिन्न जघन्य अपराधों के लिए ‘मृत्युदंड’ का प्रावधान मिलता है। लगभग 1750 ई. पू. रचित ‘हम्मुराबी की विधान-संहिता’ में भी इसकी चर्चा है और लंबे समय तक यह दुनिया के विभिन्न भागों में मान्य रही है।4 लेकिन अठारहवीं सदी में विभिन्न विचारकों ने ‘मृत्युदंड’ के खिलाफ अभियान चलाया। ऐसे विचारकों में मांटेस्क्यू, वाल्टेयर, सीजर बकारिया इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। इन लोगों के प्रयास से सर्वप्रथम वेनेजुएला में ‘मृत्युदंड’ को प्रतिबंधित किया गया और अब तक 76 से अधिक देशों में ऐसा हो चुका है। भारत में 1949 से ही ‘अखिल भारतीय अपराध निरोध समिति’ के तत्वावधान में ‘मृत्युदंड’ की समाप्ति हेतु प्रयास चल रहे हैं। इसी क्रम में 1998 ई. में तत्कालीन दंड प्रक्रिया में धारा-367 (5) को हटाया गया, जिससे अदालतें ‘मृत्युदंड’ की जगह आजीवन कारावास की सजा देने को स्वतंत्रा हो गईं। आज भी हमारे यहाँ ‘मृत्युदंड’ की सजा जारी है। कुछ वर्ष पूर्व ही आतंकी कसाब को ‘मृत्युदंड’ दिया गया और हाल ही में दिल्ली गेंग रेप के आरोपियों को भी निचली अदालत ने ‘मृत्युदंड’ की सजा सुनाई है।5 कई बार राष्ट्रपति के स्तर से भी ‘मृत्युदंड’ में माफी दी जाती है। पूर्व राष्ट्रपति द्वय ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और प्रतिभा देवी सिंह ‘पाटिल’ ने भी ‘मृत्युदंड’ को हटाने या कम करने की दिशा में अपना योगदान दिया है।
बहरहाल, ‘मृत्युदंड’ के पक्ष एवं विपक्ष में अलग-अलग तर्क दिए जा सकते हैं। इन तर्कों की समीक्षा करने पर निम्न बातें सामने आती हैंऋ
पण् ‘मृत्युदंड’ एक क्रूर एवं अमानवीय दंड है, इसमें बदले की भावना से काम लिया जाता है। इस प्रकार के दंड का समर्थन प्रतिशोधात्मक दंड सिद्धांत को मानने वालों ने किया है, लेकिन यह समाज के दूरगामी हितों के खिलाफ है। इससे नैतिक-सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति भी नहीं होती है। साथ ही यह अपराधी को सुधारने के व्यापक मानवीय लक्ष्य के भी खिलाफ है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष पी. एन. भगवती का भी कहना है, ”वस्तुतः आपराधिक न्याय का सभ्य निर्णय तो अपराधी को सुधारने में है, लेकिन प्राणदंड का अर्थ ही हैऋ इस लक्ष्य की समाप्ति।“6
पपण् ‘मृत्युदंड’ के समर्थकों का कहना है कि ऐसे कठोर दंड के लागू करने से अपराध रूकता है। लेकिन यह बात भी पूरी तरह सही नहीं है। प्रो. सेलिन ने भी कहा है, ”ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि ‘मृत्युदंड’ के समाप्त किए जाने से अपराध बढ़ पाएंगे या इसके लागू किए रहने से अपराधों में कोई कमी आएगी।“7 फिर, यदि कुछ समय के लिए ऐसा मान भी लिया जाए, तो भी इसे टिकाऊ तो नहीं ही कहा जा सकता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भय द्वारा स्थापित शांति कभी भी स्थायी नहीं होती है।
पपपण् हम जानते हैं कि भारत जैसे देशों में न्याय प्रक्रिया काफी जटिल है। इसमें समय एवं धन का अत्यधिक अपव्यय होता है और विभिन्न स्तरों पर एकरूपता का भी घोर अभाव है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि निचली अदालतों के फैसले उच्च न्यायालयों अथवा सर्वोच्च न्यायालय में बदल जाते हैं। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति को निचली अदालत ने ‘मृत्युदंड’ की सजा सुना दी और वह किसी कारण वश उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय की शरण मंे नहीं जा पाया, तो यह उसके साथ एक अन्याय ही होगा। फिर चूँकि प्रायः आम लोग उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय की शरण में जाने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए बेहतर यही है कि किसी को ‘मृत्युदंड’ नहीं दिया जाए। कई बार न्यायिक प्रक्रिया में कुछ त्राुटियाँ रह जाती हैं और इसके कारण निर्दोष व्यक्ति को भी अपराधी मान लिया जाता है। ऐसे में यदि उसे ‘मृत्युदंड’ दे दिया जाए, तो यह मानवता के प्रति घोर अपराध होगा। इसमें न्यायिक प्रक्रिया की त्राुटियों को दूर करने की संभावना भी बाधित होगी।8
पअण् महात्मा गाँधी सहित कई मानववादी विचारकों का मानना है कि सभी मनुष्य मूलतः एक अच्छा मनुष्य है और वह सदैव एक साध्य है। मनुष्य विभिन्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की वजह से अपराध करता है और उसमें ऐसे अपराधों के दलदल से निकलने की संभावना मौजूद रहती है। अतः, आधुनिक युग में अपराधी को दंड देने की बजाय उसमें सुधार लाना ज्यादा श्रेयष्कर है। मैकेंजी के शब्दों में, ”दंड का लक्ष्य है, स्वयं अपराधी को शिक्षा देना, उसे सुधारना, वर्तमान समय में यही दृष्टिकोण सर्वाधिक प्रचलित दिखाई देता है। क्योंकि इस युग की मानवतावादी भावनाओं के साथ इसी सिद्धांत का मेल सबके अधिक बैठता है। सच तो यह है कि अनेक मामलों में दंड की अपेक्षा दयापूर्ण व्यवहार का अच्छा प्रभाव पड़ने की संभावना है।“9
अण् कई विचारकों का कहना है कि दंड एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने अनुचित कार्यों के लिए प्रायश्चित करता है और उन्हें सुधारने का प्रयास करता है। इतिहास में आदिकवि बाल्मिकी, अंगुलीमाल आदि कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपराध को छोड़कर मानवता के कल्याणार्थ काम किया।10 ऐसे में लाॅक का यह कथन सही प्रतीत होता है कि दंड ऐसा हो कि अपराधी अपराध का प्रायश्चित कर सके, जो उसे अपराध से निवृत्त करा दे और दूसरों के लिए एक उदाहरण बनकर अपराध से निवृत्त रहने में सब सहायक हो।11 स्पष्टतः ‘मृत्युदंड’ की स्थिति में ऐसा संभव नहीं है। अतः ‘मृत्युदंड’ उचित नहीं है।
अपण् हम जानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार एवं समाज के अन्य सदस्यों के साथ विभिन्न संबंधों से जुड़ा होता है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति को ‘मृत्युदंड’ देने का सीधा-सीधा अर्थ हैऋ उन तमाम पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों की भी ‘हत्या’, जो कि मानवता की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है।12
अपपण् जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म एवं गाँधी-दर्शन इत्यादि में भी ‘मृत्युदंड’ वरेण्य नहीं है। गाँधी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मानव जीवन ईश्वर की कृति है और हमें इसे नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। साथ ही उन्होंने यह भी संदेश दिया है कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।13
अपपपण् कई विचारकों ने व्यावहारिक दृष्टि से भी ‘मृत्युदंड’ को अनुचित माना है। ऐसे लोगों का कहना है कि ‘मृत्युदंड’ के द्वारा जिन लक्ष्यों की पूर्ति की बात की जाती है, उसे आजीवन कारावास एवं अन्य दंड़ों के द्वारा पूरा किया जा सकता है, लेकिन ‘मृत्युदंड’ से जो हानि होती है, वह अपूर्णीय है। प्रोफेसर हेंटिंग के शब्दों में, ”मैं मृत्युदंड को वह साधन देखता हूँ, जिसके लाभों को अन्य तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन उसकी हानियों को किसी अन्य तरीके से रोका नहीं जा सकता।“14
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि विभिन्न जघन्य मामलों को लेकर अपराधियों/दोषियों को ‘मृत्युदंड’ देने की माँग उठती रही है, लेकिन भारत में बहुत कम मामलों में इसकी अनुमति मिलती हैऋ‘रेयरेस्ट आॅफ द रेयर’ में। बहरहाल, मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने झूठी शान के लिए हत्या यानी ‘आॅनर किलिंग’ को राष्ट्र पर कलंक बताते हुए इसके दोषियों को मौत की सजा दिए जाने की वकालत की है। कोर्ट ने कहा कि ‘आॅनर किलिंग’ में कुछ भी ‘आॅनरेबल’ (सम्मानजनक) नहीं है। निष्कर्ष: सभी मनुष्य मूलतः अच्छे होते हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ खास परिस्थितियाँ किसी-किसी को अपराध करने पर मजबूर कर देती हैं। अतः, हमें ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसके कोई भी व्यक्ति अपराध की ओर प्रेरित नहीं हो। सभी नैतिकता एवं सदाचार का पालन करते हुए मिलजुल कर रहें। यदि हम ऐसा कर सकें, तो समाज से अपराध का उन्मूलन हो जाएगा और फिर अपराधियों के उन्मूलन हेतु ‘मृत्युदंड’ जैसे क्रूर कानूनों का सहारा नहीं लेना पड़ेगा।15 तो आइए जीवन को हाँ कहें और मृत्यु (मृत्युदंड) को ना।

संदर्भ
1. शेखर, सुधांशु; ‘मत्युदंड की समीक्षा’, समकालीन दर्शन, संपादक: डाॅ. यू. एस. विष्ट, सत्यम् पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2015, पृ. 52
2. वही.
3. मैकेंजी, जे. एस.; ए मेनुएल आॅफ एथिक्स, पृ. 376.
4. शेखर, सुधांशु; ‘मत्युदंड की समीक्षा’, समकालीन दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. 52
5. वही, पृ. 53.
6. दुबे, डाॅ. विजयकांत; ‘समसामयिक परिवेश में प्राणदंड उन्मूलन का नैतिक औचित्य’, समाज, धर्म एवं दर्शन, प्रधान संपादक: डाॅ. जटाशंकर, संपादक: डाॅ. शंकर दयाल द्विवेदी एवं ऋषिकांत पांडेय, भूवनेश्वरी विद्या प्रतिष्ठान, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), वर्ष: 28, अंक: 1-4, अप्रैल 2010, पृ. 36.
7. राव, बी. भी. एन. ए.; ‘डेथ पेलेंटी वर्सेस क्लेमेंसी’, क्रिमिनल लाॅ जर्नल, वााॅल्यूम-पपप, अप्रैल 2007, पृ. 85.
8. शेखर, सुधांशु; ‘मत्युदंड की समीक्षा’, समकालीन दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. 54.
9. दुबे, डाॅ. विजयकांत; ‘समसामयिक परिवेश में प्राणदंड उन्मूलन का नैतिक औचित्य’, समाज, धर्म एवं दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. 37.
10. शेखर, सुधांशु; ‘मत्युदंड की समीक्षा’, समकालीन दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. 55.
11. वही.
12. वही.
13. वही.
14. वही, पृ. 39.
15. शेखर, सुधांशु; ‘मत्युदंड की समीक्षा’, समकालीन दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. 56.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।