Dalit-Adhikar aur Manvadhikar दलित-अधिकार और मानवाधिकार

18. दलित-अधिकार और मानवाधिकार

”मैं सोचता हूँ कि डाॅ. अंबेडकर को हिंदू-समाज की अन्यायपूर्ण विषमताओं के प्रति विद्रोह करने वाले के रूप में याद किया जाएगा। मुख्य बात यह है कि उन्होंने ऐसी स्थिति के विरूद्ध विद्रोह किया, जिसके प्रति हमें करना चाहिए और वास्तव में हमने किसी न किसी रूप में किया भी है।“1 जवाहरलाल नेहरू का यह कथन डाॅ. भीमराव अंबेडकर द्वारा मानवाधिकारों हेतु किए गए संघर्षों की ओर इशारा करता है। सचमुच, डाॅ. अंबेडकर का संपूर्ण जीवन-दर्शन मानवाधिकारों के लिए समर्पित था। उनके मानवाधिकार संबंधी विचारों के दो मुख्य तत्व हैंऋ नकारात्मक रूप से यह वर्ण-व्यवस्था की स्तरीय असमानताओं एवं अमानवीय निर्योग्यताओं का विरेधी है और सकारात्मक रूप में संविधान में परिलक्षित स्वतंत्राता, समानता एवं बंधुता आदि मानवीय मूल्यों का पोषक है। इस तरह इसमें न केवल दलितों, अपितु सभी शोषित-पीड़ित एवं वंचित समूहों के भी कल्याण की भावना निहित है।

हम जानते हैं कि डाॅ. अंबेडकर का मुख्य फोकस दलित-मुक्ति पर ही था; क्योंकि भारत में मानवाधिकारों का संघर्ष वर्ण-व्यवस्था (जाति-प्रथा) से जन्मी अस्पृश्यता के उन्मूलन के बगैर अधूरा है, जिससे मुख्यतः दलित जातियाँ कुप्रभावित थीं। डाॅ. अंबेडकर ने स्वयं भी इस बात को स्वीकार किया है कि वे सभी चीजों का मूल्यांकन दलित हितों के सापेक्ष करते हैं। एक बार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया, ”मैं जिस दलित जाति में पैदा हुआ हूँ, उसे मुक्ति दिलाना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। यदि मैं इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सका, तो गोली मारकर अपना जीवन समाप्त कर दूँगा।“2 डाॅ. अंबेडकर यह मानते थे कि भारत में अस्पृश्यों की मुसीबतें विश्व में अन्यत्रा रह रहे दासों एवं गुलामों से ज्यादा कठिन हैं। इसलिए यह जरूरी है कि साम्राज्यवाद और नस्लवाद आदि से लड़ते समय अस्पृश्यता से लड़ना न भूला जाए।3 इस तरह, डाॅ. अंबेडकर ने महात्मा गाँधी आदि भारतीय नेताओं के साथ-साथ अंग्रेज सरकार और विश्व समुदाय का ध्यान भी अस्पृश्यों की ओर खींचने की कोशिश की और अस्पृश्यता-निवारण को मानवाधिकार-संरक्षण का एक आवश्यक एवं अनिवार्य पहलू बना दिया। डाॅ. धर्मवीर के शब्दों में, ”उन्होंने एक तरह से अस्पृश्यों की माँ बनकर शोर मचा दिया था कि मेरेे बेटे खा लिए गए हैं। उनकी आवाज को दबाने के लिए उस समय के कट्टरपंथी और उदारवादी हिंदुओं के दोनों वर्गों ने पूरी कोशिश की थी, लेकिन बाबा साहब अपने काम में सफल हो कर रहे।“4

डाॅ. अंबेडकर के प्रयासों से आजादी के बाद अस्पृश्यता पर कानूनन रोक लगाई गई। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-17 में कहा गया, ”अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।“5 इसके अलावा संविधान के कई अन्य प्रावधानों में भी दलितों के मानवाधिकारों के संरक्षण की व्यवस्था की गई है। लेकिन, डाॅ. अंबेडकर का कहना है कि अधिकारों की रक्षा कानून के द्वारा नहीं, बल्कि समाज की सामाजिक तथा नैतिक चेतना द्वारा की जाती है। वे जोर देकर कहते हैं, ”यदि सामाजिक चेतना ऐसी है कि वह उन अधिकारों को मान्यता देने के लिए तैयार हैं, जिनका अधिनियम कानून करता है, तो अधिकार सुरक्षित रहेंगे। इसके विपरीत यदि मूल अधिकारों का समुदाय द्वारा विरोध किया जाता है, तो कोई कानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका, वास्तविक अर्थ में उनकी गारंटी नहीं दे सकती।“6

डाॅ. अंबेडकर न केवल सिद्धांत, वरन् व्यवहार में भी सभी व्यक्ति के मानवाधिकारों के हिमायती थे। वास्तव में, उनका पूरा जीवन-दर्शन ही मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा का संघर्ष है।7 इस क्रम में उनके द्वारा ‘मनुस्मृति-दहन’ के पूर्व की गई हिंदू अधिकारों की घोषणा का ऐतिहासिक महत्व है। इस घोषणा में कहा गया है, ”हर व्यक्ति का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह जाने कि मानव के जन्मसिद्ध अधिकार क्या हैं, वह यह देखने का प्रयास करे कि मानव एवं मानव और वर्ग एवं वर्ग के संघर्ष में वे पैरों तले कुचले नहीं जाएँ।“8 इसी तरह, डाॅ. अंबेडकर की ‘अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी’ के सिद्धांतों में भी मानवाधिकारों के संरक्षण की भावना का समावेश है। ये सिद्धांत निम्न हैं9ऋ

प. यह सब भारतीयों को कानून के समक्ष केवल समान ही नहीं समझेगी, वरन् उसको समानता का अधिकारी मानेगी और तदनुसार समानता का प्रचार करेगी और जहाँ समानता नहीं है, वहाँ माँग करेगी।

पप. यह प्रत्येक भारतीय नागरिक को साध्य के रूप में समझेगी और आत्म-विश्वास का अधिकार प्रदान करेगी और राज्य को एक साधन के रूप में मानेगी।

पपप. यह प्रत्येक भारतीय नागरिक को धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्वतंत्राता इस प्रकार प्रदान करेगी, ताकि अन्य लोगों या राज्य के हितों की सरलता से रक्षा हो सके, अर्थात् जन-साधारण हित में कुछ प्रतिबंध लगाएगी।

पअ. यह प्रत्येक भारतीय को समान अवसर प्रदान करेगी और भूतकाल में जिन्हें ये अवसर कतई प्राप्त नहीं थे, उन्हें कुछ प्राथमिकताएँ, उनकी शीघ्र प्रगति हेतु देगी।

अ. यह राज्य को अपने कर्तव्य के प्रति सजग करती रहेगी कि कोई भी नागरिक भय एवं भूख से पीड़ित न हो किसी के भी साथ अन्य दबाव एवं शोषण न होने पाए।

अप. यह स्वतंत्राता, समानता एवं बंधुता का वातावरण बनाने पर बल देगी और प्रयत्न करेगी कि मनुष्य-मनुष्य का, वर्ग-वर्ग का तथा राष्ट्र-राष्ट्र का शोषण न करे और एक-दूसरे के ऊपर अन्याय न करे।

मुक्ति का संकल्प: डाॅ. अंबेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को महाड़ (महाराष्ट्र) में ‘मनुस्मृति’ का सार्वजनिक रूप से दहन कर अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का ऐलान किया था। उस समारोह में पारित संकल्पों का न केवल दलित-मुक्ति, वरन् संपूर्ण मानवता की मुक्ति में भी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये संकल्प हैं10ऋ

पण् हिंदू के अधिकारों की घोषणा: इस सम्मेलन का यह दृढ़ मत है कि हिंदू समाज की वर्तमान दयनीय दशा केवल यह दर्शाती है कि किस प्रकार, किसी समाज का पतन हो जाता है, जब वह सामाजिक अन्याय को सहन करने लगता है, गलत धार्मिक आस्थाओं का अनुशरण करने लगता है और आर्थिक अन्यायों का समर्थन करने लगता है। हिंदू समाज का पतन केवल इस कारण हुआ है कि आम लोगों ने यह जानने की चेष्टा नहीं की है कि किसी मानव के जन्मसिद्ध अधिकार क्या हैं। इसकी भी उन्होंने चेष्टा नहीं की है कि उन्हें मान्यता मिले और स्वार्थी लोगों के घटिया कारनामों और कुकृत्यों की अवज्ञा की जाए। हर व्यक्ति का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह जाने की मानव के ये जन्मसिद्ध अधिकार क्या हैं, वह यह देखने का प्रयास करे कि मानव एवं मानव और वर्ग एवं वर्ग के बीच इस संघर्ष में वे पैरों तले कुचले न जाएँ। हो सकता है कि हर हिंदू को यह पता न हो कि सम्मेलन की राय में मानव के जन्मसिद्ध अधिकार क्या हैं। अतः, यह सम्मेलन संकल्प करता है कि वह उनकी सूची वाली निम्न उद्घोषणा जारी करेऋ

ंण् सभी हिंदुओं की सामाजिक हैसियत जन्म से एक जैसी होती है। सामाजिक हैसियत की यह समता उनका एक ऐसा गुण है, जो मृत्युपर्यन्त बना रहता है। हो सकता है कि समाज में उनके कृत्यों की दृष्टि से उनमें विभेद और अंतर हों। लेकिन, उनके कारण उनकी हैसियत में कोई अंतर नहीं होने चाहिए। अतः, यह सम्मेलन ऐसे किसी भी कार्य का विरोध करता है, भले ही वह जीवन के राजनैतिक, आर्थिक अथवा सामाजिक क्षेत्रा में हों, जिसके कारण सामाजिक हैसियत में अंतर पैदा होता हो।

इण् सभी राजनैतिक, आर्थिक अथवा सामाजिक परिवर्तनों का अंतिम लक्ष्य यही होना चाहिए कि सभी हिंदुओं की समान हैसियत ज्यों की त्यों बनी रहे। सम्मेलन का यह दृष्टिकोण है। अतः, वह हिंदुओं के ऐसे समूचे साहित्य का, चाहे वह प्राचीन हो या आधुनिक, घोर विरोध करता है, जो हिंदू समाज-व्यवस्था में व्याप्त असमानता के घृणित सिद्धांत का किसी भी प्रकार समर्थन करता है।

बण् समस्त सत्ता की स्रोत जनता है। किसी व्यक्ति अथवा वर्ग का विशेषाधिकारों का दावा तब तक वैध नहीं होता, जब तक उसे जनता मान्यता न दे। अतः, यह सम्मेलन हिंदुओं के कुछ वर्गों को प्राप्त सामाजिक तथा धार्मिक विशेषाधिकारों का खंडन करता है; क्योंकि वे वेदों, स्मृतियों और पुराणों पर आधारित हैं, न कि स्वतंत्रा लोकमत पर।

कण् हर व्यक्ति का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि उसे काम करने और बोलने की आजादी हो। इस आजादी पर केवल इसलिए अंकुश लगाया जा सकता है कि उसकी आजादी किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार में बाधा न डाले। इसके अलावा यह अंकुश केवल जनादेश से लगाया जा सकता है, हिंदू शास्त्रों की किसी निषेधाज्ञा से नहीं। अतः, सम्मेलन धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक आजादी संबंधी उन सभी प्रतिबंधों का खंडन करता है, जो हिंदुओं के विचार और कर्म पर लगाए गए हैं; क्योंकि उन्हें शास्त्रों ने लगाया है, जनता ने नहीं।

मण् हिंदुओं को जन्मसिद्ध अधिकारों के अलावा उनके अन्य अधिकारों से केवल कानून द्वारा ही वंचित किया जा सकता है। कानून जिसका निषेध नहीं करता, उसे करने की पूरी छूट हिंदू को होनी ही चाहिए और कानून जिसे बाध्यकारी नहीं ठहराता, उसे करने के लिए हिंदू को बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। इस कारण व्यक्तियों के लिए ऐसी कोई रोक होनी ही नहीं चाहिए कि वे सार्वजनिक मंदिरों तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग नहीं कर सकते। जिन मामलों पर कानून ने रोक नहीं लगाई है, उनमें जो रोक लगाते हैं, वे सम्मेलन की राय में जन-शत्राु हैं।

ण् िकानून किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का आदेश नहीं है। कानून तो परिवर्तन के लिए जनादेश है। ऐसी स्थिति में श्रद्धास्पद कानून को सबकी सहमति से ही बनाया जाए और निश्चय ही उसे बिना किसी भेदभाव के सब पर लागू किया जाए। जरूरी होने पर सामाजिक विभाजन समाज के हित में किए जा सकते हैं, लेकिन उसका एकमात्रा आधार योग्यता (कर्म) हो, न कि जन्म। यह सम्मेलन हिंदू समाज-व्यवस्था का खंडन एक तो इस आधार पर करता है कि वह समाज का अहित करती है। दूसरा आधार यह है कि वह जन्म पर आधारित है। तीसरा यह कि उसे कोई जनादेश प्राप्त नहीं है।

पपण् ‘मनुस्मृति’ की प्रति को भस्म करने की घोषणा: इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि हिंदुओं के लिए संहिता के रूप में मान्य ‘मनुस्मृति’ में जो नियम दिए गए हैं, और जिनकी घोषणा हिंदू काूनन के निर्माता मनु के नाम से की जाती है, वे मानव मात्रा को उसके अधिकारों से वंचित करते हैं और उसके व्यक्तित्व को रौंदते हैं। समूचे सभ्य जगत में मान्य मानव-अधिकारों से तुलना करते हुए इस सम्म्मेलन की राय है कि इस ‘मनुस्मृति’ का आदर नहीं होना चाहिए और उसे पवित्रा पुस्तक भी नहीं कहा जाना चाहिए। उसके प्रति घोर घृणा और अनादर व्यक्त करने के लिए यह सम्मेलन उसकी एक प्रति को भस्म करने का संकल्प करता है। यह कार्य सम्मेलन की समाप्ति पर धर्म की आड़ में सामाजिक असमानता को बनाए रखने वाली प्रथा के प्रतिरोध में होगा।

पृथक् निर्वाचन हेतु संघर्ष: ‘मनुस्मृति-दहन’ के बाद डाॅ. अंबेडकर ने अस्पृश्यों को हिंदू धर्म से स्वतंत्रा करने का आंदोलन छेड़ा। उन्होंने ‘गोलमेज सम्मेलन’ में कहा कि अस्पृश्यों को ‘अवर्ण हिंदू’, ‘प्रोटेस्टैंट हिंदू’ या ‘नान कंफर्मिस्ट हिंदू’ माना जाए। उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व है। ये तो क्रीत, दास और गुलाम के बीच के लोग हैं। हिंदू इन्हें अपना भाई इसलिए बता रहे हैं कि इनके अधिकार खुद हड़प कर जाएँ। उन्होंने माँग की कि चुनाव की दृष्टि से दलित जातियों को अलग समुदाय माना जाए और वे उस समय तक भारत के किसी की स्वशासी संविधान पर सहमति प्रकट नहीं कर सकते, जब तक की उनकी माँगें सही तौर पर स्वीकार नहीं कर ली जाती। उन्होंने समान नागरिकता, नागरिक अधिकारों के मुक्त उपभोग और विधायिकाओं, सरकारी सेवाओं तथा मंत्रिमंडल में उनके उचित प्रतिनिधित्व की माँग की।

डाॅ. अंबेडकर ने कहा कि सभी संप्रदाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपात से सत्ता में अधिकार दिए जाएँ। उन्होंने अल्पसंख्यक समिति को एक पूरक ज्ञापन दिया, जिसमें दलित जातियों के लिए विशेष प्रतिनिधित्व की माँग की गई थी। इसके बाद 17 अगस्त, 1932 को रैमंजे मैकडोनल्ड ने अल्पसंख्यकों के आरक्षण के लिए ‘कम्यूनल आवार्ड’ कार्यक्रम की घोषणा की। इस योजना के अनुसार राज्यों की कौंसिलों में इन वर्गों के लिए पहले की अपेक्षा लगभग दुगुणे स्थान सुरक्षित रखे गए थे। अल्पसंख्यकों के लिए ‘पृथक् निर्वाचन मंडल’ की व्यवस्था थी। यद्यपि बंगाल और पंजाब में मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी, तथापि उन्हें निर्वाचन मंडल का पृथक् अधिकार था। उन प्राँतों में मुसलमानों को रियायतें दी गई थीं, जहाँ वे अल्पसंख्या में थे, पंजाब में सिखों और हिंदुओं के लिए भी, जिसमें दलितों को भी अल्पसंख्यक मान लिया गया और उन्हें ‘पृथक् निर्वाचन’ का अधिकार प्राप्त हो गया। अस्पृश्यों के लिए बहुत-से विशेष सुरक्षित स्थानों के अतिरिक्त उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव लड़ने की छूट थी। यह भी प्रावधान था कि 20 साल के बाद विशेष मताधिकार और आरक्षण की व्यवस्था स्वमेव समाप्त हो जाएगी। पहली बार अछूतों का पृथक् राजनैतिक अस्तित्व सामने आया और अपनी मातृभूमि के भविष्य का फैसला करने का उन्हें कानूनी अधिकार प्राप्त हुआ।

डाॅ. अंबेडकर ने इस योजना से अस्पृश्यों को दो लाभ बताए11ऋ

पण् अस्पृश्यों को सुरक्षित स्थानों का कोटा और पृथक् मताधिकार प्राप्त होना।

पप. उन्हें दोहरे मतदान का अवसर मिलना। एक सुरक्षित उम्मीदवार चुनने के लिए और दूसरा सामान्य उम्मीदवार के लिए।

डाॅ. अंबेडकर ने ‘पृथक् निर्वाचन मंडल’ की माँग करके हिंदू समाज का अहित नहीं सोचा था। वे तो बस इतना चाहते थे कि अस्पृश्यों को अपने भाग्य निर्धारित करने में सवर्ण हिंदुओं की कृपा पर निर्भर न रहना पड़े। उनका मानना था, ”केवल पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था द्वारा ही अस्पृश्य अपना सच्चा प्रतिनिधि चुन सकते हैं, जिन पर अस्पृश्यों का पूरा विश्वास हो और जो व्यवस्थापिका में अस्पृश्यों के हितों की लड़ाई लड़ सकें।“12

लेकिन, डाॅ. अंबेडकर के विपरीत महात्मा गाँधी ने ‘पृथक् निर्वाचन’ को अस्पृश्यों सहित पूरे देश के लिए घातक माना। उन्होंने डाॅ. अंबेडकर के रवैये को अलगाववादी और हिंदू धर्म के लिए खतरा बताया। इसलिए, उन्होंने दलितों के लिए ‘पृथक् निर्वाचन’ किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देने की ठान ली। इस बावत उन्होंने तात्कालीन भारत मंत्राी सर सैमुएल होर्ट को पत्रा लिखकर कहा कि ‘पृथक् निर्वाचन’ देश के टुकड़े-टुकड़े कर देगा और उसे पंगु बना डालेगा। साथ ही इससे दलित जातियों का भी कोई कल्याण नहीं होगा। ‘पृथक् निर्वाचन’ से न तो सवर्णों का प्रायश्चित ही हो सकेगा और न ही दलितों की वह अपमानजनक स्थिति बदलेगी, जिसमें वे सदियों से पड़े सड़ रहे हैं। उन्होंने आगे लिखा, ”यदि दलित जातियों के लिए ‘पृथक् निर्वाचन मंडल’ का निर्णय किया जाता है, तो मैं आमरण अनशन शुरू कर दूँगा। मेरा अनशन तभी समाप्त हो सकेगा, जब सरकार स्वयं ही या लोकमत के दबाव में आकर अपने फैसले पर पुनर्विचार करेगी और दलित जातियों के लिए ‘पृथक् निर्वाचन मंडल’ बनाने का फैसला वापस ले लेगी।“13

डाॅ. अंबेडकर ने गाँधी के आमरण-अनशन को एक राजनैतिक पाखंड बताया। एक बयान में उन्होंने कहा कि अगर गाँधी इस अस्त्रा का उपयोग सर्वोच्च लक्ष्य स्वाधीनता प्राप्ति के लिए करते, तो इसका औचित्य भी था।14 गाँधी का जवाब था, ”मेरे लिए इस ‘पृथक निर्वाचन’ का निवारण चरम लक्ष्य की शुरूआत है और मैं बंबई में एकत्रा सभी नेताओं और अन्य लोगों को भी चेतावनी देता हूँ कि वे जल्दबाजी में कोई फैसला न करें। मैं अपने अनशन को न्याय की तराजू में तौलने के लिए तैयार हूँ और अगर सवर्ण हिंदुओं की आँखें खुल जाती हैं और वे अपने कर्तव्य को समझ लेते हैं, तो इससे मेरा उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा।“15

डाॅ. अंबेडकर हमेशा दलितों के मानवीय अधिकारों के प्रति काफी सजग रहे और जहाँ कहीं भी उन्हें मौका मिला, उन्होंने दलितों की पक्षधरता में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी की बानगी है कि उन्होंने जोर देकर कहा कि अस्पृश्यों के लिए पर्याप्त सुरक्षात्मक उपाय किए बगैर स्वराज या आजादी का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वे अंग्रेजों के पक्षधर थे। उन्होंने तो स्पष्ट कहा, ”अंग्रेज सरकार हमारी (दलितों) की समस्या का समाधान नहीं कर सकती। हमारे अतिरिक्त हमारे दुख-दर्द को कोई भी दूर नहीं कर सकता और जब तक राजनैतिक शक्ति हमारे हाथों में नहीं आती, हम भी उसे दूर नहीं कर सकते। जब तक अंग्रेज सरकार बनी रहेगी, तब तक इस राजनैतिक सत्ता का अंशमात्रा भी हमें मिलने वाला नहीं है। स्वराज के अंतर्गत ही हमें राजनैतिक सत्ता में साझेदारी का कोई अवसर मिल सकता है।“16

निष्कर्ष: यह एक निर्विवाद सत्य है कि डाॅ. अंबेडकर ने ‘दलित-मुक्ति’ को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य माना था। और इस सत्य को स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। लेकिन, उन्होंने ‘दलित-मुक्ति’ को इस तरह परिभाषित किया है कि वह राष्ट्र-मुक्ति एवं मानव-मुक्ति से एकाकार हो गया है।17 अतः, डाॅ. अंबेडकर केवल दलितों के ही नहीं, वरन् पूरे राष्ट्र एवं पूरी मानवता के नेता एवं उन्नायक थे। डाॅ. अंबेडकर के अथक प्रयासों से स्वतंत्रा भारत के संविधान में सबों के लिए मानवाधिकार सुनिश्चित करने की घोषणा की गई। साथ ही मानवाधिकारों के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु कई सुरक्षात्मक उपायों एवं सुविधालब्ध उपचारों का प्रावधान किया गया। इन प्रावधानों से दलितों सहित अन्य वंचित वर्गों की स्थिति में काफी सुधार भी हुआ है, लेकिन दुख की बात यह है कि संविधान में अस्पृश्यता-निवारण संबंधी कानूनी प्रावधान के बावजूद कहीं-कहीं आज भी अस्पृश्यता (छुआछूत) जारी है। प्रायः दलित-उत्पीड़न के मामले भी सामने आते रहते हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि हमने सैद्धांतिक रूप से तो जनतंत्रा को अपना लिया है, लेकिन हमारे व्यावहारिक जीवन में जनतांत्रिक मूल्यों की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ नहीं हो पाई है। हमारा सामाजिक जीवन विषमताओं एवं विरोधाभासों से भरा है और हमारे लोकतांत्रिक सत्ता-स्तंभों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं मीडिया) में भी अधिकांशतः दुहरे चरित्रा वालों का ही कब्जा है। ऐसे में दलितों-वंचितों के मानवाधिकारों के संरक्षण और उनकी समुचित हिस्सेदारी एवं भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हर क्षेत्रा में अमूलचूल संरचनात्मक एवं मूल्यात्मक परिवर्तन अपेक्षित है।

 

संदर्भ

1. जाटव, डाॅ. डी. आर.; डाॅ. अंबेडकर का नैतिक-दर्शन, समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), द्वितीय संस्करण-1990, पृ. 141.

ख्उद्धृत: द टाइम्स आॅफ इंडिया, 6 दिसंबर, 1956.,

2. कीर, धनंजय; डाॅ. अंबेडकर: लाइफ एंड मिशन, पाॅपुलर प्रकाशन, मुंबई (महाराष्ट्र), 1981, पृ. 3.

3. कश्यप, सुभाष; हमारा संविधान, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2004, पृ. 91-92.

4. धर्मवीर; ‘अस्पृश्य किस देश के नागरिक हैं’, मानव अधिकारों का संघर्ष, संपादक: राजकिशोर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1995, पृ. 77.

5. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर: राइटिंग एंड स्पीचेज (संपादित), खंड: 9, शिक्षा मंत्रालय, महाराष्ट्र सरकार, मुम्बई (महाराष्ट्र), 1991, पृ. 6.

6. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 1, प्रधान संपादक: डाॅ. श्याम सिंह शशि, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशन, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली, 1993, पृ. 267.

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8. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 10, संपादक: जगनाथ प्रसाद, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-अक्टूबर 1966, पृ. 159-161.

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10. अंबेडकर, डाॅ. बी.आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 10, संपादक: ओम प्रकाश कश्यप, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, नई दिल्ली, अगस्त 2000, पृ. 159-161.

11. कुबेर, डब्ल्यू. एन.; आधुनिक भारत के निर्माता भीमराव अंबेडकर, अनुवादक: सीताराम खोड़ावाल, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2004, पृ. 31.

12. अम्बेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 17, संपादक-जगनाथ प्रसाद, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,1966, पूर्वोक्त, पृ. 14.

13. अम्बेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 10, पूर्वोक्त, पृ. 251.

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15. कुबेर, डब्ल्यू. एन.; आधुनिक भारत के निर्माता भीमराव अंबेडकर, पूर्वोक्त, पृ. 33.

16. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 5, प्रधान संपादक: डाॅ. श्याम सिंह शशि, संपादक: कैलाश चंद्र सेठ एवं भारती नरसिंहमन, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1998, पृ. 16-18.

17. शेखर, सुधांशु; सामाजिक न्याय: अंबेडकर विचार और आधुनिक संदर्भ, दर्शना पब्लिकेशन, भागलपुर (बिहार), 2014, पृ. 81.

  • -डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।