Dalit-Mukti aur Manvadhikar दलित-मुक्ति और मानवाधिकार

17. दलित-मुक्ति और मानवाधिकार
‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा जारी ‘मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्रा’ में कहा गया है, ”किसी भी व्यक्ति के साथ प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीयता एवं घृणित व्यवहार नहीं किया जाएगा।“ भारतीय संविधान में भी सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के छह मुख्य अधिकार दिए गए हैं। उन अधिकारों में मोटे तौर पर निम्न बातें शामिल हैं1, एक, समानता का अधिकार (अनुच्छेद-14-18), दो, स्वतंत्राता का अधिकार (अनुच्छेद-19 एवं 21), तीन, शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 एवं 24), चार, अंतःकरण की तथा धर्म को अबाध रूप में मानने, तदनुसार आचरण एवं उसका प्रचार करने की स्वतंत्राता (अनुच्छेद-23 एवं 24), पाँच, अल्पसंख्यकों का अपनी संस्कृति, भाषा एवं लिपि को बनाए रखने तथा अपनी रूचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना एवं प्रशासन का अधिकार (अनुच्छेद-29 एवं 30) और छह, इन सभी मूल अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद-32)।
भारतीय संविधान की कई अन्य धाराएँ भी दलित सहित देश के सभी नागरिकों के मानवाधिकारों का संरक्षण करती हैं। मसलन, धारा-14 में सभी नागरिकांे को समता का अधिकार दिया गया है, जिसमें कहा गया है, ”राज्य भारत के अंदर हर किसी को विधि के समक्ष समानता एवं कानूनों की समान सुरक्षा से इंकार नहीं करेगा।“ इसी तरह धारा 15;पद्ध में कहा गया है, ”राज्य किसी नागरिक के साथ मात्रा धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।“ साथ ही धारा 15 ;पपद्ध में प्रावधान है, ”दुकान, होटल, सार्वजनिक, मनोरंजन-स्थल, कुआँ, तालाब, स्नान घाट, सड़क, जनता के ठहरने के स्थान, जो अंशतः या पूर्णतः सरकारी निधि से संधारित हो, या आम जनता के उपयोग के लिए घोषित हों, के बावत किसी नागरिक को मात्रा धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई रोक या शर्त नहीं होगी।“ फिर धारा 16 ;पद्ध में कहा गया है, ”राज्य के अधीन किसी रोजगार या नियुक्ति हेतु सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।“ आगे 16 ;पपद्ध मंे इसे और स्पष्ट किया गया है, ”राज्य के अधीन किसी रोजगार या कार्यालय हेतु कोई नागरिक, धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, वंश, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर अयोग्य नहीं होगा अथवा उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। आगे धारा-17 में अस्पृश्यता निवारण की बात है और धारा-18 में शिक्षा एवं सेना को छोड़कर शेष सभी उपाधियों का अंत किया गया है। इसके अतिरिक्त धारा 19-22 तक विभिन्न प्रकार की स्वतंत्राताएँ दी गई हैं, जैसे-अभिव्यक्ति एवं भाषण की स्वतंत्राता, भारत में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्राता, भारत में कहीं भी बसने की स्वतंत्राता, भारत में कहीं भी कोई व्यवसाय या नौकरी आदि करने की स्वतंत्राता, ससम्मान जीने के अधिकार आदि।
उक्त संवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्त संविधान की धारा 23 ;पद्ध भी मानवाधिकारों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है, जिसमें दलितों के लिए समता एवं स्वतंत्राता के अधिकारों का प्रावधान है और बेकारी या बंधुआ मजदूरी एवं शोषण आदि के निषेध की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम’, 1955 को लागू करकेे भी भारत सरकार ने अस्पृश्यता आदि कुप्रथाओं से निजात दिलाने के उपाय किए हैं। इस कानून की धारा-3 में धार्मिक अधिकार, धारा-4 में सामाजिक अधिकार, धारा-5 में अस्पताल आदि में भेदभाव न किए जाने का अधिकार, धारा-6 में वस्तुएँ बेचने एवं सेवाएँ देने का अधिकार दिया गया है और धारा-7 में अस्पृश्यता पर आधारित अपराधों के लिए दंड आदि की समुचित व्यवस्था की गई है। इसकी धारा 7 ;पद्ध ;ंद्ध में स्पष्टतः कहा गया है, ”जो कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद-17 के अधीन अस्पृश्यता उन्मूलन के कारण किसी व्यक्ति को प्राप्त किसी अधिकार के प्रयोग किए जाने पर विरोध स्वरूप या प्रतिशोध लेने की भावना से उसके जानमाल के विरूद्ध अपराध करता है, तो वह दो वर्ष की अवधि के कारावास से दंडनीय है, वह कम-से-कम दो वर्ष की अवधि के कारावास एवं जुर्माना से भी दंडनीय होगा।“
जाहिर है कि स्वतंत्रा भारत में दलितों के मानवाधिकारों की रक्षा हेतु कई संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं; मगर हम इन प्रावधानों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में आज भी सफल नहीं हो पाए हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दलितों को आज भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
इनमें से कुछ समस्याओं की बानगी निम्न हैऋ
पण् संविधान में अस्पृश्यता निवारण संबंधी कानूनी प्रावधान के बावजूद कहीं-कहीं अभी भी वर्ण-जाति आधारित अस्पृश्यता (छुआछूत) जारी है। उदाहरण के लिए वर्ष 2007 में बिहार राज्य अंतर्गत जहानाबाद जिले के घोसी ब्लाक में परावन पंचायत की नव-निर्वाचित मुखिया जयंती देवी (दलित वर्ग) को पंचायत सेवक (सचिव) रामवचन शर्मा ने कुर्सी पर नहीं बैठने दिया और उसे अपमानजनक जातिसूचक शब्दों से संबोधित कर जलील किया। इसके बाद मुखिया जयंती देवी ने थाने में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत (मई 2007 में) मामला दर्ज कराया। इधर, उत्तर प्रदेश के कुछ विद्यालयों में दलित वर्ग के लोगों द्वारा मध्याह्न भोजन बनाने के विरोध के कई मामले प्रकाश में आए। इन मामलों में विरोध करने वालों में उच्च जातियाँ ही नहीं, मध्य जातियाँ भी शामिल थीं। छुआछूत की ऐसी भावना हिंदुओं के अलावा सिख धर्म (मजहबी सिख को जार सिख अछूत समझते हैं और अमृतसर गुरूद्वारा में उनके लिए दरवाजा है), इस्लाम (अशरफ, अजलाफ एवं अजलान) तथा ईसाई धर्म में भी अछूत हैं।2
पपण् सैकड़ों वर्षों से भारत तथा कई अन्य देशों में दलितों के एक समुदाय ‘मेहतर’ द्वारा सिर पर मैला ढोने की प्रथा रही है। वे अपने हाथों से मल-मूत्रा जमा करते हैं और उन्हें किसी बर्तन में डालकर सिर पर ढ़ोते हुए बाहर गंदे नाले आदि में फेंकते हैं। भारत सरकार ने इस अमानवीय प्रथा पर कानूनन रोक लगा दी है। मगर, व्यवस्था में कई जगहों पर यह प्रथा जारी है। भागलपुर (बिहार) जैसे छोटे शहरों में तो कई लोग दलित बच्चों से शौचालय एवं उसकी टंकी आदि साफ कराने का काम करवाते हैं; आर्थिक मजबूरी एवं जागरूकता का अभाव ऐसी घटनाओं की मुख्य वजह है, इसलिए इस दृष्टि से भी प्रयास करने की जरूरत हैै। भारत को 2012 तक खुले में मल त्याग से भी मुक्ति दिलाने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन यह आज तक पूरा नहीं हो पाया है। इस मामले में अभी और अधिक जन-जागरूकता बढ़ाने जरूरत है।
पपपण् दलित उत्पीड़न की घटनाएँ आए दिन जहाँ-तहाँ प्रकाश में आते रहती हैं। ऐसी ही कुछ घटनाएँ 2005-06 में हरियाणा के दुलीना/गोहाना जैसे गाँवों में घटी, जहां दलितों को दबंग जाटों ने मारा-पीटा और जिंदा जला दिया। वर्ष 2010 में बिहार में एक ऊँची जाति की बराती में कुर्सी पर बैठने के कारण एक दलित युवक को गोली मार दी गई। ऐसी कई घटनाएँ अक्सर अखबारों में आती रहती हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश में हर एक घंटे में दो दलितों को हिंसक हमले का शिकार होना पड़ता है, प्रत्येक दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है और दो दलितों के घरों में आग लगा दी जाती है।3
पअण् दलितों की एक अन्य समस्या जाति के आधार पर चिढ़ाना और मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न देना है। हमारे समाज में प्रचलित ‘मार-मार कर भंगी बनाने’ की कहावत भी दलित उत्पीड़न से जुड़ी है। इसके अलावा प्रायः जाने-अनजाने चोरी-चमारी, चमार-चूहाड़ आदि शब्दों का प्रयोग कर दलितों को बदनाम एवं अपमानित किया जाता है। इसे रोकने के लिए ‘हरिजन एक्ट’ बना है, लेकिन कई बार जानकारी के अभाव में दलित इसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। कुछ मामलों में स्वार्थी तत्व दलितों के कंधे पर बंदूक रखकर इस ‘एक्ट’ का बेवजह दुरूपयोग कर लेते हैं, इससे भी मानवाधिकार की भावना आहत होती है।
अण् दलितों की एक प्रमुख समस्या गरीबी है। लगभग 65-70 प्रतिशत दलित आज भी गरीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। देश की कुल आबादी में 16 प्रतिशत दलित हैं, लेकिन उनके पास कुल खेती योग्य जमीन का केवल एक प्रतिशत हिस्सा ही है।4 करीब तीन-चैथाई दलित भूमिहीन हैं। दलितों में बेरोजगारी की समस्या भी काफी विकराल है। यद्यपि, बंधुआ मजदूरी से उन्हें बहुत हद तक निजात मिल गई है, लेकिन वे अभी भी न्यूनतम मजदूरी, अनियमित काम और ज्यादातर कठिन शारीरिक काम आदि की समस्याओं से जूझ रहे हंै। मनरेगा की रोशनी भी गाँधी के अंतिम व्यक्ति (दलित/महादलित) तक कम ही पहुँच पाती है।
अपण् दलित महिलाओं को तो दुहरी मार झेलनी पड़ती है। एक तो दलित होने का देश ही अपने आप में भयावह है और ऊपर से महिला होने की मजबूरी भी उसे परेशान करती है। इतिहास साक्षी है कि दिन के उजाले में छूआछूत बरतने वाले उच्च एवं मध्यम जातियों के लोग रात के अंधेरे में दलित महिलाओं का यौन-शोषण करते थे। आज भी दलित महिलाओं के बलात्कार प्रायः उच्च तथा मध्यम जातियों को पुरुषों द्वारा होता है।5 दुर्भाग्य यह है कि कई बार हमारी अदालतें भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रसित होकर सवर्णों को दलित महिला से बलात्कार के जुर्म में यह कहकर बरी कर देती है कि स्वर्ण दलितों को नहीं छू सकते!
अपपण् हम जानते हैं कि भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था के तहत दलितों को शिक्षा के अधिकारों से वंचित किया गया था। बाद में महात्मा बुद्ध, ज्योतिबा फूले, सावित्राी बाई फूले, महात्मा गाँधी, डाॅ. भीमराव अम्बेडकर आदि के प्रयासों से दलितों को इस क्षेत्रा में प्रवेश मिला। स्वतंत्रा भारत में दलितों सहित सभी नागरिकों को शिक्षा के अवसर दिलाने के काफी प्रयास हुए हैं। इसके बावजूद दलितों की शिक्षा में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि शिक्षा में प्रसार का लाभ पासवान (दुसाध), रविदास (चमार) एवं रजक (धोबी) आदि कुछ खास जातियों को ही ज्यादा मिला है। बहुत सी दलित जातियों, यथाऋ मुसहर, भंगी, मेहतर, नट, पासी आदि में साक्षरता एवं शिक्षा का स्तर आज भी काफी नीचे है। उदाहरण के लिए बिहार में मुसहर जाति में साक्षरता मात्रा दो प्रतिशत है और उनकी महिलाओं में यह मात्रा आधा प्रतिशत है। आरक्षण का लाभ भी कुछ खास दलित को ही ज्यादा मिलता रहा है। यही सब देखते हुए बिहार की नीतीश सरकार ने निम्नवर्गीय दलितों को महादलित की श्रेणी में रखकर उनके लिए विशेष प्रावधान किए हैं, जिसका सकारात्मक फल मिल रहा है। लेकिन, अभी यह इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
अपपपण् शिक्षण संस्थानों में दलित छात्रा-छात्राओं के साथ भेदभाव अभी भी जारी है। इनमें कई नामी-गिरामी संस्थानों के नाम भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए 2006-07 में ‘आॅल इंडिया इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेज’ (एम्स), नई दिल्ली में दलितों के साथ भेदभाव का मुद्दा प्रकाश में आया। इस पर स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार ने ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ (यूजीसी) के तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में एक जाँच-समिति गठित की। इस समिति ने अपने जाँच में पाँच चीजें पाईं6ऋ
एक, प्रशासन ने मंडल दो के विरूद्ध चले आंदोलन को हवा दी और समर्थन नहीं करने वाले विद्यार्थियों/स्टाफ को परेशान किया।
दो, शिक्षक अनुसूचित जाति/जनजाति के विद्यार्थियों के प्रति उदासीनता बरतते हैं।
तीन, परीक्षा के मूल्यांकन में अनुसूचित जाति/जनजाति के विद्यार्थियों के साथ भेदभाव किया जाता है।
चार, प्रशासन रेजिडेंट चिकित्सकों एवं अध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण नियमों का उल्लंघन करता है।
पाँच, अनुसूचित जाति-जनजाति के विद्यार्थियों को छात्रावास में कमरा देने, भोजन सुविधा, खेलकूद तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के मामले में अलग-थलग रखा जाता है।
पगण् दलित उत्पीड़न का मामला धर्मांतरण से भी जुड़ा हुआ है। मालूम हो कि 1956 ई. में डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने नागपुर की दीक्षा भूमि में पाँच लाख दलितों के साथ हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। इसी तरह कुछ वर्षों पूर्व भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी को छोड़कर राजनीति में आए ‘इंडियन जस्टिस पार्टी’ के अध्यक्ष उदित राज ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में दस लाख दलितों का हिंदू धर्म से बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करने की घोषणा की थी, लेकिन, सरकार ने उन्हें उक्त मैदान आवंटित नहीं किया और उदित राज सहित कुछ सौ लोग ही बौद्ध धर्म स्वीकार कर सके। ऐसे लोगों का मानना है कि हिंदू धर्म मंे रहते हुए दलितों के मानवाधिकार सुरक्षित नहीं हैं; इसलिए इस धर्म का त्याग करना जरूरी है। वैसे, जगजीवन राम, कांशी राम आदि अन्य दलित नेताओं ने हिंदू धर्म में ही दलितों के लिए सुरक्षित ‘स्पेस’ बनाने की बात कही है। इस विचारधारा पर भी कई लोग काम कर रहे हैं। दलित लेखक डाॅ. धर्मवीर का मानना है कि दलितों का हिंदू एवं बौद्ध दोनों धर्माें से अलग अपना स्वतंत्रा धर्म है।
निष्कर्ष: भारत में दलितों के मानवाधिकार का मामला सामाजिक न्याय के संघर्ष से जुड़ा है। जाति-व्यवस्था एवं वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन इसकी प्राथमिक शत्र्त है। इसके लिए गौतम बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फूले, सावित्राी बाई फूले, महात्मा गाँधी, डाॅ. अंबेडकर, जयप्रकाश नारायण और डाॅ. राममनोहर लोहिया आदि महापुरुषों ने अपने-अपने स्तर से प्रयास किया है। परिणामतः आज दलितों की स्थिति में बहुत कुछ बदलाव आया है, लेकिन अभी हम सबों को मिलजुलकर और अधिक प्रयास करने की जरूरत है। जैसा कि कवि राम गोपाल बेवस लिखते हैं, ”उम्र खपा दी मसीहों ने बेहतरी के लिए/फिर भी बदला नहीं जमाने का मिजाज/बदलना मुश्किल है, इस जमात को/किसी एक के लिए जरूरत है कि आज/ हर कोई भीम बने/मनु के अक्स को धरती से मिटाने के लिए।’’7 आइए हम अपना कुछ समय समाज की बेहतरी के लिए दें …!
संदर्भ
1. कश्यप, सुभाष; हमारा संविधान, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृ. 76-77.
2. शर्मा, सुभाष; ‘दलितों और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार’, भारत में मानवाधिकार,
नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृ. 175.
3. ह्मूमनस्कोप, सितंबर 2001, मुंबई आवरण।
4. दुबे, अभय कुमार; ‘अछूत की शिकायत’, आधुनिकता के आईने में दलित, वाणी
प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ. 24.
5. शर्मा, सुभाष; ‘दलितों एवं अल्संख्यकों के मानवाधिकार’, भारत में मानवाधिकार, पूर्वाेक्त,
पृ. 175.
6. वही, पृ. 180.
7. बेवस, राम गोपाल; ज़िंदगीनामा, भारतीय प्रकाशन, भोपाल (मध्य प्रदेश), 1999, पृ. 4-5.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।