Bhumandalikaran aur Sarvodaya भूमंडलीकरण और सर्वोदय

9. भूमंडलीकरण और सर्वोदय
समग्र विकास की भारतीय परिकल्पना को ‘सर्वोदय’ कहते हैं। ‘सर्वोदय’ शब्द ‘सर्व’ और ‘उदय’ इन दो शब्दों के योग से बना है। ‘सर्व’ का अर्थ हैऋ ‘सब’ और ‘उदय’ का अर्थ हैऋ ‘विकास’। तदनुसार, ‘सर्वोदय’ शब्द के मुख्यतः तीन अर्थ हंैऋ ‘सबों का उदय’, ‘सब प्रकार से उदय’ और ‘सबों के द्वारा उदय’। यहाँ ‘सबों के उदय’ का अर्थ हैऋ सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं एवं चराचर जगत का विकास। ‘सब प्रकार से उदय’ का अर्थ हैऋ शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक सभी दृष्टियों से विकास और ‘सबांे के द्वारा उदय’ का अर्थ हैऋ उदय या विकास में सबों की भागीदारी।
सर्वोदय या समग्र विकास की यह परिकल्पना सदैव ही भारतीय सभ्यता संस्कृति के मूल में विद्यमान है। हजारों वर्षों पूर्व भारतीय ऋषि-मुनियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ आदि उदगारों में सर्वोदय की भावना व्यक्त किया है। ‘उपनिषद्’ (वेदांत) एवं ‘भगवद्गीता’ के ‘साम्य’ या ‘एकत्व’ और बौद्ध दर्शन के ‘संघ’ एवं‘बोधिसत्व’ और जैन दर्शन के ‘अनेकांतवाद’ में सर्वोदय की झलक है। महात्मा गाँधी पर भी अपनी इस समृद्ध विरासत का गहरा असर था। साथ ही वे ईसाई धर्म की प्रेम एवं सेवा और इस्लाम की समानता एवं भाईचारा के आदर्शों से भी प्रभावित थे। इन सबों के अलावा गाँधी पर ‘सिविल डिस्ओविडियंस’ (थोरो), ‘द किंगडम आॅफ गाॅड इज विदिन यू’ (टाॅल्सटाय) और ‘अन टू दिस लास्ट’ (रस्किन) का भी काफी प्रभाव पड़ा है। एक तरह से ‘अंटू दिस लास्ट’ ही सर्वोदय की प्रेरणा का मुख्य आधार है। क्योंकि, आज जिस अर्थ में ‘सर्वोदय’ हमारे सामने प्रस्तुत है, उसका प्रयोग सर्वप्रथम गाँधी ने 1906 ई. में ‘अंटू दिस लास्ट’ (हिंदी अर्थ-अंत्योदय) के संक्षिप्त गुजराती अनुवाद के लिए किया। उन्होंने लिखा, ‘‘उसके (अंटू दिस लास्ट) लिखे जाने का उद्देश्य सबका (केवल अधिकाश्ंा का नहीं) उदय, उत्कर्ष होने के कारण हमने इसका नाम ‘सर्वोदय’ रखा है।“1
सर्वोदय का आधार एवं साधन: सर्वोदय का आधार गाँधी का ईश्वर और आत्मा संबंधी विश्वास है। वे कहते हैं, ”जिस प्रकार एक ही सूर्य की किरणें समस्त विश्व में व्याप्त हैं, उसी प्रकार एक ही ईश्वर का अंश सभी मनुष्यों, जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों आदि में मौजूद है, इसलिए मौलिक रूप से किसी का किसी से अंतर नहीं है।“2 ऐसी स्थिति में कुछ लोगों का उदय या सुख हमारा लक्ष्य कैसे हो सकता है ? अर्थात् एक व्यापक अर्थ में सबों का उदय ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गाँधी साध्य और साधन, दोनों की पवित्राता के हिमायती थे। वे यह मानते थे कि अनुचित साधन से शुभ साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इस संदर्भ में उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि उन्हें कि उन्हें हिंसा से प्राप्त स्वराज भी मंजूर नहीं। उनके लिए सर्वोदय एक पवित्रा साध्य है और इसकी प्राप्ति का पवित्रा साधन हैऋ सत्य तथा अहिंसा। गाँधी ने सत्य को ईश्वर कहा है और अहिंसा हैऋ सभी प्रकार की हिंसा का त्याग और सबों के प्रति प्रेम। अहिंसा कायरता नहीं, वरन् आत्मा की शक्ति है। इसके माध्यम से शांतिपूर्वक सर्वोदय का लक्ष्य पूरा किया जा सकता है। सत्य एवं अहिसंा के अलावा अन्य एकादश व्रत, यथाऋ अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अभय, अस्वाद, अस्पृश्यता निवारण, शारीरिक श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी भी सर्वोदय की प्राप्ति में सहायक एवं आवश्यक हैं। इन व्रतों के माध्यम से आदर्श सर्वोदय समाज की स्थापना की जा सकती है। साथ ही अन्य नैतिक सद्गुणों का सहज एवं सहर्ष स्वीकार भी अपेक्षित है; क्योंकि वास्तव में अच्छे साध्य की प्राप्ति के लिए नैतिक साधनों का उपयेाग ही मानव की मुक्ति का रहस्य और भविष्य की मानवता का आचार है।3
‘सर्वोदय’ विकास का एक स्पष्ट ‘माॅडल’ है, जिसमें निम्न बातें शामिल हैंऋ
समष्टि का शुभ: भारतीय संस्कृति में ‘सबे भूमि गोपाल की’ या ‘संपत्ति सब रघुपति के ऐही’ का आदर्श रहा है। समग्र विकास के सिद्धांत में इसकी केंद्रीय भूमिका है। गाँधी ने भी अपने सर्वोदय सिद्धांत में रस्किन की पुस्तक ‘अंटू द लास्ट’ के उस सूत्रा को प्रमुखता दिया है, जिसमें यह कहा गया है कि ‘व्यष्टि का शुभ समष्टि के शुभ में निहित है।’4 इसका अर्थ है कि समाज के हित में ही व्यक्ति का हित है। दरअसल, गाँधी संपूर्ण विश्व की एकता एवं अभिन्नता में विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में सभी मनुष्य, मनुष्येतर प्राणी और संपूर्ण चराचर जगत एक-दूसरे से संबद्ध है। सभी एक हैं और किसी का किसी से कोई विरोध नहीं है। अर्थात् सबों के विकास में ही हमारा विकास निहित है। दूसरे शब्दों में, हम यह भी कह सकते हैं कि दूसरों के ‘उदय’ या ‘विकास’ में ही हमारा ‘उदय’ या ‘विकास’ निहित है।
श्रम का सम्मान: भूमंडलीकरण मानसिक श्रम की तुलना में शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखता है इसके कारण भी समाज में भेदभाव एवं असमानता को बढ़ावा मिला है, इसलिए कई भारतीय विचारकों ने शारीरिक श्रम की महत्ता बतलाई है। ‘अंटू दिस लास्ट’ के दूसरे एवं तीसरे सूत्रा में भी शारीरिक श्रम को प्रमुखता दी गई है। दूसरे सूत्रा के अनुसार ‘एक वकील और एक नाई दोनों के कार्यों का समान मूल्य है; क्योंकि दोनों को अपने श्रम से आजीविका चलाने का समान अधिकार है।’5 तीसरे सूत्रा के अनुसार, ‘एक कृषक, श्रमिक या शिल्पकार का जीवन ही श्रेयष्कर है, जिसमें वह अपने श्रम से अपनी आजीविका चलाता है।’6

यंत्रों का नियंत्राण: अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘हिंद-स्वराज’ में गाँधी ने मशीनों की हद बाँधने की बात कही है।7 उनका मानना था कि यंत्रों के कारण प्रकृति-पर्यावरण का अनुचित दोहन होता है और मानवीय श्रम की अवहेलना होती है। यंत्रों के प्रति पागलपन की वजह से न केवल मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण बढ़ा, वरन् राष्ट्र के द्वारा राष्ट्र के शोषण की साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों को भी बढ़ावा मिला, इसलिए विशालकाय राक्षसी यंत्रों पर नियंत्राण की जरूरत है। हमें हस्तचलित यंत्रों एवं लघु-कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए और जहाँ तक संभव हो सभी कामों में शारीरिक श्रम को प्राथमिकता देनी चाहिए।
विषमता का अंत: भूमंडलीकरण की नीतियों के कारण विषमता की खाई दिन प्रतिदिन गहरी एवं चैड़ी होती चली जा रही है। विडंबना यह है कि जहाँ एक ओर हमारे देश के कुछ उद्योगपतियों का नाम दुनिया के सर्वाधिक अमीर लोगों में शुमार हो रहा है, वहीं हमारी 78 प्रतिशत आबादी की औसत दैनिक आय महज 18 रुपए है। हम चाँद पर बस्तियाँ बसाने का सपना देख रहे हैं और आधे से अधिक लोगों को छोटा सा अपना मकान भी नसीब नहीं है। आई.टी. के क्षेत्रा में देश के विकास के दावों के बीच आज भी लगभग आधी आबादी निरक्षर है। हम खेलों के नाम पर अरबों रुपए पानी की तरह बहा रहे हैं और हमारा खेत दो बूंद पानी के लिए तरस रहा है। गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं और लोग भूख से तड़प रहे हैं। हमारे नेता भाषणबाजी में ‘मस्त’ हैं और कर्ज एवं बेबसी के मारे किसान पस्त हैं। हमारी सरकार सेंसेक्स के आँकड़ों को विकास के प्रमाण-पत्रा की तरह पेश कर रही है। लेकिन, आमलोग तो बस यही कह रहे हैं, ‘‘महंगाई देवी (डायन नहीं) खाए जात है।’’8 जाहिर है कि विकास के पश्चिमी माॅडल ने विषमता एवं वैमनस्य का दारूण संत्रास दिया है। इसके विपरीत समग्र विकास की गाँधीय परिकल्पना में समता एवं सौहार्द के लिए जमीन तैयार की गई है।
पर्यावरण-संरक्षण: भारत में ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का आदर्श मौजूद रहा है। हमारे महापुरूषों का मानना था कि यह प्रकृति-पर्यावरण सभी लोगों की आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है। लेकिन, इसमें हममें से किसी एक के भी असीमित लोभ-लालच को पूरा करने का सामथ्र्य नहीं है। उनकी समग्र विकास की अवधारणा मुनष्य, अन्य जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों एवं प्रकृति-पर्यावरण से गहरे जुड़ा है और उसमें इन सबों के बीच परस्पर प्रेम एवं सौहार्द का होना आवश्यक माना गया है। लेकिन, विकास के आधुनिक माॅडल में हम प्रकृति-पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन एवं निर्मम शोषण कर रहे हैं। इसकी वजह से पर्यावरण-प्रदूषण का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। ओजोन परत में छेद और ग्लोबल वार्मिंग ने मानवता के अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। साथ ही सुनामी, कैटरीना आदि नए-नए प्रलयंकारी प्रकोप भी सामने आ रहे हैं। सबको स्वच्छ वायु और जल उपलब्ध कराना भी मुश्किल हो रहा है। ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि 21वीं सदी में खनिज तेल एवं कोयले का संपूर्ण भंडार समाप्त हो जाएगा। ऐसे में गंभीर उर्जा संकट को देखते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश की जा रही है। कुल मिलाकर, स्थिति बड़ी नाजुक है, यदि हमने बढ़ते उपभोग पर नियंत्राण नहीं किया, तो संपूर्ण मानवता का सर्वनाश होना तय है।
निःशस्त्राीकरण: गाँधी अहिंसा के पुजारी थे। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में भी अहिंसा के पालन पर जोर दिया, लेकिन भूमंडलीकरण को हिंसा की शक्ति का गुमान है। भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों की आय का एक प्रमुख भाग सैन्यशक्ति एवं हथियारों पर खर्च हो जाता है। कई देशों के पास ऐसे-ऐसे परमाणु बम हैं, जो पूरी मानवता को तबाह करने के लिए काफी हैं। इसके बावजूद हम युद्ध के प्रति मोह नहीं छोड़ पाए हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आइंस्टीन से जब किसी ने पूछा कि तृतीय विश्वयुद्ध कब होगा? तो उन्होंने कहा था, ”तृतीय विश्वयुद्ध का तो पता नहीं है, लेकिन चैथा विश्वयुद्ध कभी नहीं होगा।“9 अर्थात् यदि तृतीय विश्वयुद्ध हुआ, तो मानवता बचेगी ही नहीं। अर्नल्ड टायनबी ने ठीक ही कहा है, ”यदि हम युद्ध का अंत नहीं करेंगें, तो युद्ध हमारा अंत कर देगा।“10
वर्तमान संदर्भ: भूमंडलीकरण के इस दौर में चारों ओर ‘विकास’ की डुगडुगी बज रही है और अमेरिकी राष्ट्रपति एवं भारतीय प्रधानमंत्राी से लेकर बिहार के मुख्यमंत्राी तक सभी राजनेता लोगों को ‘विकास’ का ख्वाब दिखाने में लगे हैं। इस ख्वाब ने ‘विकास’ को महज चंद इंफ्रास्ट्रक्चर तक समेट दिया है। फिलवक्त प्रचलित विकास का चलताऊ अर्थ हैऋ ‘बिपासा’ (बिजली, पानी और सड़क)। हमारी सरकारों ने ‘बिपासा’ का ही विकास का पर्याय मान लिया है। जनता-जनार्दन भी बस ‘बिपासा’ के लिए ही बेचैन रहती है, लेकिन यह ‘बिपासा’ न तो लोगों की प्राथमिक जरूरत है और न ही इसे समग्र विकास के समतुल्य माना जा सकता है। यह बात दीगर है कि सरकार, बाजार एवं जनसंचार ने अपने निहित स्वार्थों की पूत्र्ति के लिए लोगों के मन में ‘बिपासा’ के प्रति अतिरिक्त आकर्षण एवं हवस पैदा कर दी है।11
यहाँ इतना बताते चलें कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी आज लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। गाँव-देहात, कस्बे और शहरों की झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों के लिए यह ‘बिपासा’ भी किसी परिकथा की नायिका से कम दुर्लभ नहीं है। आज भी लगभग आधे गाँवों में बिजली की समुचित व्यवस्था नहीं है। शुद्ध पानी से भी लगभग 50 प्रतिशत लोग महरूम हैं और राजमार्गों का चाहे जितना विकास हुआ हो, आधे से अधिक गाँवों तक आज भी ‘पक्की’ सड़क नहीं पहुँची है। लोग तो बस आदम गोंडवी को दुहरा रहे हैं, ‘जो उलझ कर रह गई है, फाइलों की जाल में रोशनी (विकास) वह गाँव तक पहुँचेगी कितने सालों में।’’12
निष्कर्ष: यहाँ आगे बढ़ने से पहले थोड़ा आर्थिक विकास के आँकड़ों पर भी नजर दौराना जरूरी है। देश के प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग एक हजार रूपये कर्ज है। दूसरी बात यह है कि कथिततौर पर में देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन 6.3 करोड़ परिवार गरीबी रेखा के नीेचे गुजर बसर कर रहे हैं। सरकार का दावा है कि मोटर, मोबाइल आदि उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री बढ़ी है, लेकिन उसके साथ ही बढ़ती महँगाई ने आम लोगों का जीवन बेहाल कर दिया है और लगभग 20 करोड़ लोगों को प्रतिदिन भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता है। ये तमाम स्याह तथ्य सरकार द्वारा प्रचारित किए जा रहे ‘सशक्त भारत’ एवं ‘अतुल्य भारत’के दावों को खोखला साबित करते हैं। यहाँ यह भी काबिलेगौर है कि सुख एवं समृद्धि और विकास एवं सुशासन के साथ ‘सुरक्षा’ एवं ‘शांति’ का चोली-दामन का रिश्ता है। इस मसले पर तो सरकार पूरी तह ही ‘फेल’ है। साथ ही लोगों को गरीबी, बेरोजगारी एवं विषमता की मार ने भी ‘असुरक्षा’ में धकेल दिया है।
कुल मिलाकर, स्थिति बड़ी चिंताजनक है। विकास के आधुनिक ‘पूँजीवादी माॅडल’ ने हमें विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। आज पर्यावरण-संकट और परमाणु बम इसके ताबूत का आखिरी कील साबित होने जा रहा है। उधर, ‘साम्यवादी माॅडल’ में भी इन समस्याओं का कोई स्पष्ट समाधान नहीं है। ऐसे में समग्र विकास के ‘गाँधीय माॅडल’ ्रको अपनाने की जरूरत महसूस हो रही है। यह एक ऐसा माॅडल है, जिसमें सम्यक्, संतुलित एवं समग्र विकास की कल्पना है। इसमें न केवल भौतिक या आर्थिक, वरन् सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास भी सन्निहित है। संक्षेप में, यह ‘सर्वाेदय’ का सिद्धांत है, जिसमें एकादश व्रत (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अभय, अस्तेय, अस्पृश्यता-निवारण, स्वदेशी, सर्वधर्म समभाव एवं शारीरिक श्रम) को महत्ता प्रदान की गई है। साथ ही इसमें अन्य नैतिक गुणों का सहज एवं सहर्ष स्वीकार भी अपेक्षित है क्योंकि वास्तव में अच्छे साध्य की प्राप्ति के लिए नैतिक साधनों का उपयोग ही मानव-मुक्ति का रहस्य और भविष्य की मानवता का आचार है।13 इस तरह यह महज व्यवस्था-परिवर्तन ही नहीं, वरन् मूल्यों में भी परिवर्तन का आदर्श प्रस्तुत करता है।
अंत में, यह अभिधेय है कि आलोचकों की दृष्टि में सर्वोदय में सबों के विकास की कल्पना अव्यवहारिक है, अर्थात् यह एक आकांक्षा मात्रा है, व्यवहार में इसका विनियोग संभव नहीं है। इसके उत्तर में गाँधी का कहना है कि सर्वोदय तो एक आदर्श हैऋ व्यवहार में इसकी अनुभूति भले न हो, लेकिन यह प्रेरणा का आधार तो बन ही सकता है। वे कहते है कि नैतिक आध्यात्मिक जीवन का महत्व आदर्श को पा लेने में नहीं हैं, पाने के लिए सतत् संघर्ष में है। जाहिर है कि सर्वोदय एक श्रेष्ठ आदर्श है और आदर्श यथार्थ की व्याख्या नहीं, दिशा निर्धारित करता है। अर्थात् सबका उदय हो ऐसा विचार प्राप्य या असाध्य नहीं, वरन् प्रत्यत्न-साध्य है।
संदर्भ
1. गाँधी; सर्वोदय, ख्रस्किन के ‘अंटू दिस लास्ट’ का सार,, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण-1968, पृ. 5.
2. शेखर, सुधांशु; ‘गाँधी की दृष्टि में विकास’, वैश्वीकरण और ग्रामीण-विकास, संपादक: डाॅ. शोभा रानी एवं डाॅ. अनिल ठाकुर, नोवेल्टी एंड कंपनी, पटना (बिहार), 2013, पृ. 110.
3. सिंह, डाॅ. रामजी; गाँधी-दर्शन मीमांसा, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना (बिहार) 1973, पृ. 59.
4. धर्माधिकारी, दादा; सर्वोदय-दर्शन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), सातवाँ संस्करण-1983, पृ. 3.
5. वही.
6. वही.
7. गाँधी; हिंद स्वराज्य, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), आठवाँ संस्करण-2009, पृ. 93-97.
8. शेखर, सुधांशु; ‘गाँधी की दृष्टि में विकास’, वैश्वीकरण और ग्रामीण-विकास, पूर्वोक्त, पृ. 111.
9. वही.
10. वही.
11. वही.
12. वही.
13. सिंह, डाॅ. रामजी; गाँधी-दर्शन-मीमांसा, पूर्वोक्त पृ. 59.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।