Bhumandalikaran and Rastravad भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद

10. भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद
हम जानते हैं कि ‘राष्ट्र’1 शब्द ‘रज्’ धातु में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय लगाने पर बना है। इसका अर्थ हैऋ ‘देश’, ‘मुल्क’, ‘नेशन’ आदि। राष्ट्र के कुछ विशेष गुण हैं, जो उसे अराष्ट्रिक जनसमूहों से अलग करते हैं। यह किसी भौगोलिक क्षेत्रा की सीमा मात्रा नहीं है, बल्कि सभी नागरिकों के सम्मिलित अस्तित्व का नाम है।2 इसमें राष्ट्र के प्रति सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक कर्तव्य एवं निष्ठा के तत्व निहित हैं। ‘राष्ट’ª की व्यापकता में सारी वैयक्तिक संकीर्णताएँ विलीन हो जाती हैं और सांस्कृतिक विभिन्नताओं का लोप हो जाता है। यही कारण है कि राष्ट्र-आराधना समस्त आराधनाओं में सर्वोपरि है। राष्ट्र का गौरवगान सर्वोत्तम भजन, राष्ट्रहित साधन सर्वश्रेष्ठ तप और राष्ट्र के लिए निःस्वार्थ निष्ठा पवित्रातम् यज्ञ माना गया है।3 संपूर्ण भारतीय जीवन-दर्शन में राष्ट्रवाद के तत्व विद्यमान हैं, लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद पश्चिमी दुनिया के हिंसक राष्ट्रवाद से भिन्न है। भारतीय ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय संस्कृति की अस्मिता को बनाए रखने के लिए एक राष्ट्रीय विचारधारा अपेक्षित है, किंतु यह राष्ट्रीय विचारधारा पश्चिम की छायाप्रति (फोटोकाॅपी) नहीं होगी; क्योंकि पश्चिम का राष्ट्रवाद आक्रामक है। राष्ट्र के अंदर उसकी निष्पत्ति शोषण है और राष्ट्र के बाहर साम्राज्यवाद। दोनों स्थितियों में वह मनुष्य की गरिमा को नष्ट करता है।
कुल मिलाकर, राष्ट्रवाद के व्यामोह में वैयक्तिक स्वतंत्राता एवं मानवता का बलिदान किया जाता है। इसके विपरीत भारतीय राष्ट्रवाद वैयक्तिक स्वतंत्राता का रक्षक है और संपूर्ण मानवता से प्रेम का आदर्श प्रस्तुत करता है। यहाँ उदाहरणार्थ हम गाँधी के राष्ट्रवाद को देख सकते हैं, जिसमें अंतरराष्ट्रीयता का पुट है।4 गाँधी का कहना है कि उनके लिए देशप्रेम और मानवप्रेम में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं। उनके शब्दों में, ”मैं देशप्रेमी हूँ; क्योंकि मैं मानवप्रेमी हूँ। मेरा देशप्रेम संकीर्ण नहीं है। मैं भारत के हित में इंग्लैंड या जर्मनी का नुकसान नहीं करूँगा। जीवन की मेरी योजना में साम्राज्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि कोई देशप्रेम में उतना ही उग्र मानवप्रेमी नहीं है, तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है। वैयक्तिक आचरण और राजनैतिक आचरण में कोई विरोध नहीं है; सदाचार का नियम दोनों पर लागू होता है।“5
वास्तव में, देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए। किसी राष्ट्र को इसलिए स्वतंत्रा होना चाहिए कि वह आवश्यकता पड़ने पर संसार के कल्याण हेतु अपना बलिदान दे सके। गाँधी ने स्पष्ट कहा, ”मेरा देश इसलिए स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का अलिंगन करे। उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है।“6 उन्होंने यह भी कहा है, ”मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि सारी दुनिया उससे लाभ उठा सके। मैं यह नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे देशों के नाश की नींव पर हो।“7 अपने देश की सेवा दुनिया की सेवा से असंगत नहीं है; क्योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्वराज के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।8 जाग्रत और स्वतंत्रा भारत दर्द से कराहती हुई दुनिया को शांति और सद्भाव का संदेश अवश्य देगा।9 जाहिर है कि राष्ट्रवाद एक उत्तम सिद्धांत है। इस सिद्धांत को स्वीकार करके ही दुनिया की मौजूदा कठिनाइयाँ आसान की जा सकती हैं और विभिन्न राष्ट्रों में जो पारस्परिक द्वेषभाव नजर आता है, उसे रोका जा सकता है।10
भारतीय दृष्टि से देखें, तो राष्ट्रवादी हुए बिना कोई अंतरराष्ट्रीयतावादी नहीं हो सकता। अंतरराष्ट्रीयतावाद तभी संभव है, जब राष्ट्रवाद सिद्ध हो चुके-यानी जब विभिन्न देशों के निवासी अपना संघटन कर लें और हिल-मिलकर एकतापूर्वक काम करने की सामथ्र्य प्राप्त कर लें। ऐसे राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं है; बुराई तो उस संकुचितता, स्वार्थवृत्ति और बहिष्कारवृत्ति में है, जो मौजूदा राष्ट्रों के मानस में जहर की तरह मिली हुई है। हरएक राष्ट्र दूसरे की हानि करके अपना लाभ करना चाहता है और उसके नाश पर अपना निर्माण करना चाहता है; लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया रास्ता लिया है। वह अपना संघटन या अपने लिए आत्म-प्रकाशन का पूरा अवकाश विशाल मानव-जाति के लाभ के लिए, उसकी सेवा के लिए ही चाहता है।11 इस बावत गाँधी ने कहा, ”भगवान ने मुझे भारत में जन्म दिया है और इस तरह मेरा भाग्य इस देश की प्रजा के भाग्य के साथ बाँध दिया है, इसलिए यदि मैं उसकी सेवा न करूँ, तो मैं अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूँगा। यदि मैं यह नहीं जानता कि उसकी (भारत की) सेवा कैसे की जाए, तो मैं मानव-जाति की सेवा करना सीख ही नहीं सकता। यदि अपने देश की सेवा करते हुए मैं दूसरे देशों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाता, तो मेरे पथभ्रष्ट होने की कोई संभावना नहीं है।“12
भारतीय संदर्भ में देशप्रेम कोई बहिष्कारशील वस्तु नहीं, बल्कि अतिशय व्यापक वस्तु है। देशप्रेम की यह कल्पना हमेशा, बिना किसी अपवाद के हर एक स्थिति में, मनव-जाति के विशालतम हित के साथ सुसंगत है। गाँधी कहते हैं, ”मैं न केवल मनुष्य नाम से पहचाने जाने वाले प्राणियों के साथ बंधुता और एकात्मता सिद्ध करना चाहता हूँ, बल्कि समस्त प्राणियों के साथ-रेंगने वाले साँप आदि जैसे प्राणियों के साथ भी-उसी एकात्मता का अनुभव करना चाहता हूँ। कारण, हम सब उसी एक सृष्टा की संतति होने का दावा करते हैं और इसलिए सब प्राणी, उनका रूप कुछ भी हो मूल में एक ही हैं।“13
वर्तमान संदर्भ: भूमंडलीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी ताकतें राष्ट्र-राज्य के अंत की घोषणा कर रही हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) का जमाना लद गया और विश्वयारी (काॅसमो-पाॅलिटाॅनिज्म) का नया युग आया है। मगर, वास्तव में यह एक नव-साम्राज्यवादी साजिश है, जिसकी आड़ में दुनिया में बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद का विचार फैलाया जा रहा है। साम्राज्यवादी ताकतें चाहती हैं कि लोग क्षणिक सुखों के नशे में डूबे रहें और राष्ट्र-राज्य की चिंता नहीं करें। इन ताकतों की यह भी कोशिश है कि दुनिया की सभी देशों की सरकारें साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के दलालों के हाथों रहें राष्ट्रवादी-जनवादी नायकों के हाथों नहीं।
साम्राज्यवादी ताकतों ने बुद्धिजीवियों को भी अपना गुलाम बना लिया है। तीसरी दुनिया के देशों में जहाँ राष्ट्रवादी भावनाओं की कमी हो गई है, बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि को भाड़े पर लगा रहा है। इस वक्त यूरोप, अमेरिका एवं जापान में राष्ट्रीय भावना सबसे अधिक है, जबकि सबसे कम हैऋ भारत जैसे विकासशील देशों के सत्ताधीशों एवं बुद्धिजीवियों में। तभी तो सरकार राष्ट्रीय संप्रभूता की अनदेखी कर अमेरिका से अपमानजनक परमाणु-करार करती है, पूँजीपतियों के लिए ‘सेज’ सजाती है; मुनाफे में चल रहे राष्ट्रीय उपक्रमों का भी निजीकरण करती है रक्षा, सीमा एवं खुदरा व्यापार में भी प्रत्यक्ष विदेश निवेश (एफडीआई) की अनुमति देती है और क्या-क्या नहीं करती है … ! संक्षेप में, देश नई गुलामी में फँसता जा रहा है। समाजवादी विचारक किशन पटनायक के शब्दों में, ”जिन अधिकारों को हथियाने के लिए ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ को इतने सारे युद्ध करने पड़े थे, उन सारे अधिकारों को बेचने के लिए आज दिल्ली एक बाजार बना हुआ है।“14
अंत में, अभिधेय है कि जहाँ एक राष्ट्र जानबूझकर साम्राज्यवादी नहीं है, अगर वहाँ का राष्ट्रवाद भी संकीर्ण या आक्रामक रवैया प्रदर्शित करता है, तो उसकी असली वजह आधुनिक विकास-पद्धति ही है। उदाहरण के लिए, भारतीय राष्ट्र देश के आदिवासी जनसमूहों को पिछड़ा रखना चाहता है, तो इसका कारण राष्ट्रवाद नहीं है, इसका कारण हैऋ आधुनिक विकास-पद्धति। अतः, विकास-पद्धति को बदलने से राष्ट्रवाद की बहुत सारी रूढ़ियाँ खत्म हो जाएगी।15 इसके बावजूद यदि कोई राष्ट्रवाद को संकीर्णता कहता है, तो वह गद्दार एवं मानवता विरोधी ही कहलाएगा।17 किशन पटनायक के शब्दों में, ”राष्ट्रवाद को उग्र राष्ट्रवाद कहकर उसका रचनात्मक उपयोग नहीं करना एक अजीब किस्म का बौद्धिक पलायनवाद है। साम्राज्यवाद से लड़ने का और कौन-सा दूसरा साधन है?“17 जाहिर है कि साम्राज्यवाद से लड़ने और देश की एकता एवं अखंडता को बचाने के लिए उदात्त राष्ट्रवाद की जरूरत है। ऐसे राष्ट्रवाद को अपनाकर राष्ट्र के विरोधियों, विदेशीकरण के पुजारियों और छद्म राष्ट्रवाद के खिलाड़ियों को भी माकूल जवाब दिया जा सकता है।
निष्कर्ष: अंग्रेजों ने भारत का राजनैतिक एवं आर्थिक शोषण तो किया ही, इसके सामाजिक-सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों को भी आघात पहुँचाया। उन्होंने एक (कु) नियोजित साजिश के तहत भारत की नकारात्मक एवं कायरतापूर्ण छवि को प्रचारित-प्रसारित किया। दुनिया भर में यह झूठ फैला दिया कि भारत सपेरों, लूटेरों, संन्यासियों एवं भिखारियों का देश है। यहाँ के लोग असभ्य, अज्ञानी, अंधविश्वासी, भीरू एवं कायर हैं और उनमें परस्पर एकता एवं राष्ट्रीयता का घोर अभाव है। इस तरह जो भारत हजारों वर्षों की गौरवशाली यात्रा करते हुए न केवल आर्थिक दृष्टि से, वरन् सभ्यता-संस्कृति, धर्म-नीति एवं ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से भी उच्च शिखर छू चुका था, उसे व्यक्तित्वहीन करार दिया गया। इससे भारतीयों के स्वावलंबन, स्वदेशी एवं स्वराष्ट्रवाद की भावना कुप्रभावित हुई। दुर्भाग्य से, भारत की इसी नकारात्मक छवि को प्रायः सभी विदेशियों एवं अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी अंगीकार कर लिया और भारतीयता के बरक्स पाश्चात्यता (विशेषकर अंग्रेजियता) को निर्विवाद रूप से ‘श्रेष्ठ’ घोषित कर दिया गया। इसके बाद एक मृगमारीचिका की तरह अंग्रेजों के नेतृत्व में वहीं के ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-दर्शन, भाषा-विचार, आचार-व्यवहार एवं सभ्यता-संस्कृति के अनुकरण में ही भारतवर्ष का सर्वकालिक हित दिखाई देने लगा। शायद यही वह समय था, जब नेल्सन मंडेला के शब्दों में, औपनिवेशिक मनुष्य (जिनमें भारतीय भी शामिल थे) ने सोचना छोड़ दिया था और उसका समर्थ होने का एहसास लुप्त होने लगा था। संकट की उस घड़ी में गाँधी ने उसे सोचना सिखाया और उसके सामथ्र्य के एहसास को पुनर्जीवित किया।
भारतीय राष्ट्रवाद में ‘जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरियसी …’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम् …’ का आदर्श एक साथ बिना किसी ‘कंट्राडिक्सन’ के मौजूद हैं। गाँधी का राष्ट्रवाद ‘समायोजन’ पर आधारित है, जिसमें भारत के विभिन्न समुदायों के बीच राष्ट्रवादी समरसता का महान आदर्श अंतर्निहित है।18 इस संबंध में रवीन्द्र कुमार का कहना है, ”गाँधी के मानस में भारत की वास्तविक तस्वीर वर्गों, जातियों, समुदायों तथा धार्मिक समूहों के एक स्वच्छंद घनीभूत इकाई के रूप में थी। वे इस उपमहाद्वीप के जन-मानस में राष्ट्रीय भावना भरने में जितना समर्थ थे, उतना न तो उनके पहले कोई था और न कोई बाद में हुआ।“19 उन्होंने ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना की है, जिसमें विश्व-कल्याण के निमित्त अपने राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने का आदर्श निहित है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्र कुमार के अनुसार, ”आगे दुनिया में गाँधी की कल्पना का समाज होगा, जिसमें व्यक्ति अपने को परिवार के हित में, परिवार को समाज के हित में, समाज को राष्ट्र के हित में और राष्ट्र को विश्व के हित में आहुति देने में अपनी उन्नति देखेगा। … यदि ऐसा नहीं हो सका, तो मानवता नहीं बचेगी।“20 तो आइए हम अपने राष्ट्र-विमर्श को पहचानें।21 अपने राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता को जानें-समझें।
संदर्भ
1. ‘हिंद स्वराज’ उसी पुनर्जीवन या नवजीवन का ‘बीजमंत्रा’ है। इसलिए, आज जबकि भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है और सब कुछ अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा परिचालित-संचालित एवं नियोजित हो रहा है, तो भारतीय राष्ट्र को उसकी शक्ति का एहसास दिलाने हेतु ‘राष्ट्र’ पर नए सिरे से विमर्श की जरूरत है।
2. देसाई, ए. आर.; भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, अनुवादक: प्रज्ञादत्त त्रिपाठी, मैकमिलन इंडिया लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम हिंदी संस्करण-1976, पृ. 2.
ख्उद्धृत: कार, ई. एच.; नेशनलिज्म, 1939, पृ. 20.
ख्किसी भी मानव समूह का एक राष्ट्र होने के लिए उसमें कुछ खास विशेषताओं का होना जरूरी है। इतिहासकार ई. एच. कार ने राष्ट्रीय मानव समूह की निम्न विशेषताएँ बतलाई हैंऋ एक, अतीत और वर्तमान में वास्तविक, अथवा भविष्य के लिए आकांक्षा के रूप में सर्वनिष्ठ सरकार की धारणा; दो, अपना अलग विशिष्ट आकार और सदस्यों का पारस्परिक संपक्र्य सामीप्य; तीन, न्यूनाधिक निर्धारित भूभाग; चार, ऐसी चरित्रागत विशेषताएँ (भाषा इनमें सर्वाधिक बहुल है), जो किसी राष्ट्र को अन्य राष्ट्रों और अराष्ट्रिक समुदायों से अलग करती हैं; पाँच, सदस्यों में सम्मिलित स्वार्थ; और छह, सदस्यों के मन में राष्ट्र की जो छवि है, उससे संबंधित समवेत भाव या इच्छाशक्ति।,
3. त्रिवेदी, डाॅ. सुरचना; ‘राष्ट्र आराधना’, दैनिक जागरण, 7 अगस्त, 2011, पटना (बिहार), संपादक: संजय गुप्त, पृ. 14.
4. यादव, आर. एस. एवं मिश्रा, श्वेता; ‘गाँधी का राष्ट्रवाद’, गाँधी: एक अध्ययन, संपादक: सुरजीत कौर जौली, कंसैप्ट पब्लिशिंग कंपनी, नई दिल्ली, पृ. 254-255.
5. गाँधी; यंग इंडिया, 16 मार्च, 1921.
6. गाँधी, महात्मा; मेरे सपनों का भारत, राजपाल एंड संज, दिल्ली, संस्करण-2008, पृ. 17.
7. गाँधी, यंग इंडिया, 12 मार्च, 1925.
8. वही, 16 अप्रैल, 1931.
9. वही, 1 जून, 1921.
10. गाँधी; हरिजन, 17 नवंबर, 1933.
11. गाँधी, यंग इंडिया, 18 जून, 1925.
12. वही.
13. वही, 4 अप्रैल, 1929.
14. पटनायक, किशन; ‘धार्मिक राष्ट्रीयता बनाम आर्थिक राष्ट्रवाद’, युवा संवाद, संपादक:
ए. के. अरूण, नई दिल्ली, फरवरी 2004, पृ. 9.
15. वही, पृ. 8.
16. शेखर, सुधांशु; ‘हिंद-स्वराज में राष्ट्र: एक विमर्श’, दर्शन के आयाम ख्डाॅ. श्रीप्रकाश दुबे अभिनंदन ग्रंथ,, संपादक: रमेशचंद्र सिंहा, जटाशंकर एवं अम्बिकादत्त शर्मा, अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत एवं न्यू भारतीय बुक काॅरपोरेशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 413
ख्भूमंडलीकरण प्रायोजित साम्राज्यवादी विकास-पद्धति ने राष्ट्रवाद को चंद लोगों के विकास तक सीमित कर दिया है और इसके कारण आम लोगों के मानवाधिकारों का घोर हनन हो रहा है। ऐसे में कोई बार शोषित, पीड़ित एवं वंचित समूह अपने जीवन एवं जीविका की रक्षा हेतु अपने औजारों को हथियार बनाने को मजबूर हो जाते हैं, ऐसे लोगों को नक्सली या आतंकवादी करार देना उचित नहीं है। दूसरी ओर उग्र राष्ट्रवाद ने भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में राष्ट्रवाद बनाम अंतरराष्ट्रीयतावाद की समस्या पैदा कर दिया है, जिससे एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का अस्तित्व मिटाने पर तुल जाता है। विश्व के कई देशों का संपूर्ण विकास दूसरे देशों के साथ युद्ध में स्वाहा हो जा रहा है। कुछ बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों को अधीन किए हैं या उनको अपने हित के लिए उपयोग कर रहे हैं। ेेराष्ट्रवाद का अर्थ पड़ोसी राष्ट्रों से घृणा या युद्ध नहीं है और राष्ट्रवाद अंतरराष्ट्रीयतावाद या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विपरीत भी नहीं है।,
17. पटनायक, किशन; विकल्पहीन नहीं है दुनिया, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, पृ. 235.
18. हार्डिमैन, डेविड; गाँधी इन हिज टाइम एंड आवर्स, नई दिल्ली, 2003, पृ. 12-38.
19. कुमार, रवीन्द्र (सं.); ‘कास्ट, कम्यूनिटी एंड नेशन?: गाँधीज क्वेस्ट फाॅर ए पाॅपुलर कंसेंसश इन इंडिया’, एसेज इन द सोशल हिस्ट्री आॅफ माॅडर्न इंडिया, नई दिल्ली, 1983, पृ. 51.
20. कुमार, जैनेंद्र; ‘अहिंसा, प्रजातंत्रा और राष्ट्रीयतावाद’, अकाल पुरुष गाँधी, संपादक: धर्मवीर, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली, 1968, पृ. 140.
21. सिंह, विजय बहादुर; ‘एक संपादकीय भड़ास’ (संपादकीय), वागर्थ, अंक: 174, जनवरी 2010, संपादक: विजय बहादुर सिंह, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता (पश्चिम बंगाल), पृ. 18-23.
ख्”अगर तुम्हारे लाने से आजादी आ सकती है /और बड़ी से बड़ी सरकारें संसद से उठाकर /पटकी जा सकती है सड़क पर /अगर तुम जलियाँवाले बाग में /सामूहिक आत्मबलिदान कर सकते हो /निकल पड़ सकते हो दाँडी मार्च पर /चैरी-चैरा कर सकते हो /कर सकते हो सन बयालीस /तो क्या कुछ नहीं कर सकते तुम /…क्या तुम्हारा यह देश अब सिर्फ एक कंपनी है /जिसे चला रहे हैं, कारपोरेट्स /किसी एक के बेटे को कोई एक बड़ी कुर्सी मिल गई है /कोई एक और बैठा-बैठा कागज के नोट पर दस्तखत मार रहा है /किसी एक और का भाई लाल बत्तीवाली गाड़ी में बैठा रौब झाड़ रहा है /किसी की जात-विरादर फहरा रहा है, तिरंगा /और भाषण झाड़ रहा है /कोई तीसरा या चैथा पढ़ रहा है, राष्ट्र के नाम संदेश /चीजें कितनी उलट-पुलट हो गई हैं /राष्ट्र रो रहा है और तिल-तिल मर रहा है /और कुछ पेशेवर जन-गण-मन गा रहे हैं /…पहचाना /कि तुम्हारा अपना जरूरी राष्ट्र-विमर्श क्या है?“
विजय बहादुर सिंह की यह कवितानुमा पंक्तियाँ समसामयिक संदर्भों में ‘राष्ट्र’ पर आए संकटों को सामने लाती हैं और ‘राष्ट्र-विमर्श’ की जरूरत को भी बयाँ करती हैं।,