Bhumandalikaran aur Gram-Swaraj

8. भूमंडलीकरण और ग्राम-स्वराज
‘स्वराज’ (स्वराज्य) का अर्थ आत्म-शासन और आत्म-संयम है। हम अपने ऊपर राज करें, वही स्वराज है, और वह स्वराज हमारी हथेली में है। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेन्स’ अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त ‘निरंकुश आजादी’ या ‘स्वच्छंदता’ का अर्थ देता है; यह अर्थ ‘स्वराज’ शब्द में नहीं है। स्वराज लोक-सम्मति से होने वाला शासन है। लोक-सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी-से-बड़ी तादाद के मत के जरिये होना चाहिए, फिर वे चाहे स्त्रिायाँ हों या पुरूष, इसी देश के हों या इस देश में आकर बस गए हों। वे लोग ऐसे हों, जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। स्वराज का अर्थ हैऋ सरकारी नियंत्राण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्राण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। गाँधी कहना है कि सच्चा स्वराज थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उनमें है। यदि स्वराज हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें, तो वह स्वराज-सरकार किसी काम की नहीं होगी। अगर लोग एक बार सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी मालूम हो, उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसी का जुल्म बाँध नहीं सकता। यही स्वराज की कुंजी है। स्वराज की रक्षा केवल वहीं हो सकती है, जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो, जिनके लिए दूसरी सब चीजों सऋ अपने निजी लाभ से भीऋ देश की भलाई का ज्यादा महत्व हो।
ग्राम स्वराज में जाति, नस्ल, धर्म, संप्रदाय, लिंग, क्षेत्रा, भाषा, राष्ट्र आदि के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज सबके लिए-सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों-करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।2 महात्मा गाँधी अपने सपने के स्वराज को ‘रामराज’ कहा है। इससे कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि स्वराज तो बहुसंख्य हिंदुओं का ही राज्य है। मगर, यह एक भ्रामक मान्यता है। गाँधी ने स्वयं कहा है, ”अगर यह सही सिद्ध हो, तो मैं उसे स्वराज मानने से इनकार कर दूँगा और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा। मेरे लिए ‘हिंद-स्वराज’ का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है।“3 यह जितना किसी राजा के लिए होगा, उतना ही किसान के लिए, जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा, उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिंदुओं के लिए होगा, उतना ही मुसलमानों के लिए, जितना जैन, बौद्ध और सिख लोगों के लिए होगा उतना ही यहूदियों, पारसियों और ईसाइयों के लिए। इसमें जाति-पांति, धर्म अथवा दरजे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा।4 साथ ही यह भी स्पष्ट रहे कि पूर्ण स्वराज की कल्पना दूसरे देशों से कोई नाता न रखने वाली स्वतंत्राता का नहीं, बल्कि स्वस्थ और गंभीर किस्म की स्वतंत्राता की है। इसमें किसी दूसरे राष्ट्र या व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने की भावना नहीं है।
गाँधी का मानना था कि स्वराज के माध्यम से सर्वोदय रूपी पवित्रा लक्ष्य की प्राप्ति होगी। यह सबों के लिए समान रूप से लाभदायी होगा। इसमें ऐसी संभावना नहीं है कि यह किसी के लिए तो अधिक होगा और किसी के लिए कम, किसी के लिए लाभकारी होगा ओर किसी के लिए हानिकारी या कम लाभकारी।5 स्वराज तो गरीबों का स्वराज होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वह गरीबों को भी सुलभ होगी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सबों के पास बड़े-बड़े महल होंगे। सुखी जीवन के लिए महलों की कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन सबों को जीवन की वे समान्य सुविधाएँ अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपभोग अमीर आदमी करता है। हमारा स्वराज तब तक पूर्ण स्वराज नहीं होगा, जब तक वह सबों को सारी बुनियादी सुविधाएँ देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता।6
गाँधी के अनुसार पूर्ण स्वराज का आशय है कि जनता में जागृति होनी चाहिए, उसे अपने सच्चे हित का ज्ञान होना चाहिए और सारी दुनिया के विरोध का सामना करने की योग्यता होनी चाहिए। यदि पूर्ण स्वराज के द्वारा हम भीतरी या बाहरी आक्रमण से रक्षा और जनता की आर्थिक स्थिति में उत्तरोत्तर सुधार चाहते हों, तो हम अपना उद्देश्य राजनैतिक सत्ता के बिना ही, सत्ता जिनके हाथ में हो उन पर अपना सीधा प्रभाव डालकर, सिद्ध कर सकते हैं।7 अगर, स्वराज का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा। हमारी सभ्यता का मूल तत्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं। गाँधी ने साफ-साफ कहा है, ”मेरा स्वराज तो हमारी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है। मैं बहुत सी नई चीजें लिखना चाहता हूँ, परंतु वे तमाम हिंदुस्तान की स्लेट पर लिखी जानी चाहिए। हाँ, मैं पश्चिम से भी खुशी से उधार लूँगा, पर तभी जब कि मैं उसे अच्छे सूद के साथ वापस कर सकूँ।“8
गाँधी के स्वराज में विदेशी नियंत्राण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्राता के अलावा भी कई बातें शामिल हैं, जिसमें एक छोर पर हैऋ नैतिक और सामाजिक उद्देश्य और दूसरे छोर पर इसी तरह का दूसरा उद्देश्य हैऋ धर्म। यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है। उसमें हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म आदि सबका समावेश होता है, लेकिन वह इन सबसे ऊँचा है। इसे हम स्वराज का समचतुर्भुज कह सकते हैं। यदि उसका एक भी कोण विषम हुआ, तो उसका रूप विकृत हो जाएगा।9 गाँधी ने अपनी राजनीति को ‘स्वराज’ पर केंद्रित किया। उन्होंने कहा कि स्वराज सत्य का भाग है और यह विचार राष्ट्रीय मुक्ति या स्वतंत्राता के कार्य को पवित्राता या आध्यात्मिकता प्रदान करने के समान है। व्यक्ति का आत्मिक व्यक्तित्व स्वतंत्राता का सारांश है। यदि स्वतंत्राता का त्याग कर दिया जाए, तो व्यक्ति एक यंत्रा की भाँति कार्य करता है। अतः, स्वतंत्राता को इनकार कर समाज-निर्माण का प्रयास व्यक्ति की प्रकृति के विरूद्ध है।10
हम जानते हैं कि स्वराज हमारी आंतरिक शक्ति पर निर्भर करता है। इसे पाने के लिए अनवरत संघर्ष और इसे बचाए रखने के लिए सतत् जागृति की जरूरत होती है। गाँधी भी मानते थे कि स्त्राी-पुरूषों के विशाल समूह का राजनैतिक स्वराज एक-एक शख्स के अलग-अलग स्वराज से बेहतर नहीं है; इसलिए, वे सामूहिक राजनैतिक स्वराज को पाने के लिए भी वही तरीका अपनाना चाहते थे, जो एक-एक आदमी के आत्म-स्वराज या आत्म-संयम का है।11 यही कारण है कि उन्होंने स्वराज प्राप्ति को सत्य एवं अहिंसा जैसे उदात्त मानवीय व्रतों से जोड़ा और इस बात पर जोर दिया कि स्वराज सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों द्वारा ही हासिल करना है, उन्हीं के द्वारा हमें उसका संचालन करना है और उन्हीं के द्वारा हमें उसे कायम रखना है; क्योंकि सच्चा स्वराज कभी भी गोला-बारूद से नहीं पाया जा सकता है।12 यदि सच्ची लोकसत्ता या जनता के स्वराज में असत्यमय और हिंसक उपायों का प्रयोग किया गया, तो सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खत्म हो जाएगा। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक स्तंत्राता की रक्षा नहीं हो सकती। वैयक्तिक स्वतंत्राता को प्रकट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा पर आधारित शासन में ही मिल सकता है।
ग्राम-स्वराज मानव-अधिकारों का राजनैतिक घोषणा-पत्रा से कहीं अधिक मानव-कर्तव्यों की धार्मिक आचार-संहिता है। इसलिए स्वराज में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। हर एक कर्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार जुड़ा हुआ होता ही है, और सच्चे अधिकार तो वे ही हैं, जो अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करके प्राप्त किए गए हों। इसलिए नागरिकता के अधिकार सिर्फ उन्हीं को मिल सकते हैं, जो जिस राज्य में वे रहते हों, उसकी सेवा करते हों और सिर्फ वे ही इन अधिकारों के साथ पूरा न्याय कर सकते हैं। जो व्यक्ति सेवा एवं त्याग का मार्ग अपनाते हैं और हमेशा सदाचार (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आदि) का पालन करता है, उसे प्रतिष्ठा मिलती है और इस प्रतिष्ठा के फलस्वरूप उसे अधिकार मिल जाते हैं। जिन लोगों को अधिकार अपने कर्तव्यों के पालन के फलस्वरूप मिलते हैं, वे उनका उपयोग समाज-सेवा के लिए ही करते हैं, अपने स्वार्थसिद्धि के लिए कभी नहीं। गाँधी के शब्दों में, ”किसी राष्ट्रीय समाज के स्वराज का अर्थ उस समाज के विभिन्न व्यक्तियों के स्वराज (अर्थात् आत्म-शासन) का योग ही है। ऐसा स्वराज व्यक्तियों के द्वारा नागरिकों के रूप में अपने कर्तव्य के पालन से ही आता है। उसमें कोई अपने अधिकारों की बात नहीं सोचता। जब उनकी आवश्यकता होती है, तब वे उन्हें अपने-आप मिल जाते हैं और इसलिए मिलते हैं कि वे अपने कर्तव्य का संपादन ज्यादा अच्छी तरह कर सकें।“13
ग्राम-स्वराज एक आदर्श राज होगा। इसमें हर जगह प्रेम एवं शांति होगीऋ कोई किसी का शत्राु नहीं होगा, सारी जनता की भलाई का सामान्य उद्देश्य सिद्ध करने में हर एक अपना अभीष्ट योग देगा। इसमें सभी लिख-पढ़ सकेंगे और उनका ज्ञान दिन-दिन बढ़ता रहेगा। बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँगे, ऐसी व्यवस्था की जाएगी। कोई कंगाल नहीं होगा और सभी लोगों को आजीविका चलाने भर का काम अवश्य मिल जाएगा। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ, शराबखोरी और दुराचार का या वर्ग-विद्वेष का कोई स्थान नहीं होगा। अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक समाजोपयोगी कार्यों में करेंगे; अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं होगा कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोंपड़ियों में, जिनमें हवा एवं प्रकाश का प्रवेश न हो। इसमें न्यायपूर्ण अधिकारों का किसी के भी द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं होगा और इसी तरह किसी को कोई अन्यायपूर्ण विशेषाधिकार भी नहीं मिलेगा। इसमें किसी के न्यायपूर्ण अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीना जाना असंभव होगा और कभी ऐसा हो जाए, तो अपहर्ता को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का आश्रय लेने की जरूरत नहीं होगी।14
गाँधी के अनुसार अपने मन का राज्य स्वराज है। इसकी कुँजी सत्याग्रह, आत्मबल या करूणाबल है। इस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है। हम जो करना चाहते हैं, वह अंग्रेजों के लिए हमारे मन में द्वेष है, इसलिए या उन्हें सजा देने के लिए न करें, बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है।15 उन्होंने कहा था कि सिर्फ अंग्रेजों को बाहर निकाला और आपने स्वराज पा लिया, ऐसा अगर आप मानते हों, तो यह ठीक नहीं है। ‘स्वराज’ का मतलब सिर्फ अंग्रेजों के शासन से मुक्ति नहीं है, बल्कि इसमें भारतीय आदर्शों एवं मूल्यों पर आधारित विकेंद्रीत शासन व्यवस्था की स्थापना का स्वप्न भी अंतर्निहित है।
ग्राम-स्वराज का केंद्र बिन्दु हैऋ‘गाँव’।16 गाँधी बार-बार यह दुहराया है कि भारत अपने चंद शहरों में नहीं, बल्कि सात लाख गाँवों में बसा हुआ है।17 इसलिए यदि गाँव का नाश होगा, तो भारत का भी नाश हो जाएगा। अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘हिंद-स्वराज’ में भी गाँधी ने वस्तुतः ग्राम-स्वराज की ही रूपरेखा प्रस्तुत की है।18 दरअसल, गाँधी के सपनों का स्वराज्य ग्राम-स्वराज ही है, जिसे वे एक पूर्ण प्रजातंत्रा का आदर्श बताते है। इसमें सभी ग्राम स्वावलंबी और परस्पर परावलंबी होंगे। हर एक गाँव अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा करेगा। खेल-कूद के लिए मैदान आदि का बंदोबस्त होगा। इसके बाद भी जमीन बची, तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोएगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तम्बाकू, अफीम बगैरह की खेती से बचेगा। प्रत्येक गाँव अपने पड़ोसी गाँव के साथ भाईचारा एवं परस्पर सहयोग की भावना से काम करेगा।19
गाँधी कहते हैं कि ग्राम-इकाई मजबूत-से-मजबूत होगी। एक हजार आदमी का एक गाँव होगा। ऐसे गाँव को अगर स्वावलंबन के आधार पर अच्छी तरह संगठित किया जाए, तो वह बहुत कुछ कर सकता है।20 ऐसा समाज अनगिनत गाँवों का बना होगा। इसका फैलाव एक के ऊपर एक के ढंग पर नहीं, बल्कि लहरों की तरह एक के बाद एक की शकल में होगा। जिंदगी मीनार जैसी नहीं होगी, जहाँ ऊपर की तंग चोटी को नीचे के चैड़े पाए पर खड़ा होना पड़ता है। यहाँ तो समुद्र की लहरों की तरह जिंदगी एक के बाद एक घेरे की शक्ल में होगी और व्यक्ति उसका मध्यबिंदु होगा। यह व्यक्ति हमेशा अपने गाँव के खातिर मरने-मिटने को तैयार रहेगा। प्रत्येक गाँव अपने पड़ोसी गाँवों के साथ प्रेम से रहेगा। इस तरह सारा समाज ऐसे लोगों का बन जाएगा, जो कभी किसी पर हमला नहीं करेंगे, बल्कि हमेशा नम्र रहेंगे और अपने में समुद्र की उस शान को महसूश करेंगे, जिसके वे एक जरूरी अंग हैं। इसलिए, सबसे बाहर का घेरा या दायरा अपनी ताकत का उपयोग भीतर वालों को कुचलने में नहीं करेगा, बल्कि उन सबको ताकत देगा और उनसे ताकत पाएगा।21
गाँधी के ग्राम-स्वराज में आजादी नीचे से श्ुारू होगी। हर एक गाँव में पंचायत-राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत हो। ग्राम-सभा को गाँव के हित में योजनाएँ बनाने और उसके क्रियान्वयन का पूरा अधिकार होगा। गाँव का शासन चलाने के लिए हर साल गाँव के पाँच आदमियों की एक पंचायत-समिति चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यता वाले गाँव के बालिग स्त्राी-पुरूषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। उसमें बहुमत की तानाशाही के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी। सारे निर्णय सर्वसम्मति या सर्वानुमति से लिए जाएँगे। इस ग्राम-स्वराज में आज के प्रचलित अर्थों में सजा या दंड का भी कोई रिवाज नहीं रहेगा। सारे विवादों का शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत के द्वारा समाधान किया जाएगा। यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारा सभा, न्याय सभा और कार्यकारिणी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी।22
गाँधी कहते हैं कि हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाट्यशाला, पाठशाला, पूजास्थल और सभा-भवन हों। मवेशियों के लिए पर्याप्त चारागाह हो। सहकारी डेयरी और सामूहिक हाट हो। पानी के लिए उसका अपना इन्तजाम होऋ ‘वाटर वक्र्स’ हों, जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिले। कुओं एवं तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्राण रहे और वे सबों के लिए समान रूप से खुले हों। बुनियादी तालिम के आखिरी दरजे तक शिक्षा सब के लिए लाजिमी हो। सबों को पर्याप्त भोजन और आवश्यक दवाइयाँ सहज ही उपलब्ध हों। जहाँ तक हो, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएँ। जात-पात और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-स्वराज में बिलकुल नहीं रहे।23
गाँधी कहते हैं कि देहात वालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत हो। जब गाँवों का पूरा-पूरा विकास हो जाएग, तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला-कारीगरों के धनी स्त्राी-पुरूषों की गाँवों में कमी नहीं रहेगी। गाँव में कवि होंगे, चित्राकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित और शोध करने वाले लोग भी होंगे। थोड़े में, जिंदगी की सभी आवश्यक चीजें गाँव में मिलेगी। वहां पर्याप्त अनाज, साग-सब्जियाँ, दूध, फल एवं खादी वस्त्रा भी उपलब्ध होगा।24 आगे वे कहते हैं कि आज हमारे देहात उजड़े हुए और कूड़े-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल वहीं सुंदर बगीचे होंगे और ग्रामवासियों को ठगना या उनका शोषण करना असंभव हो जाएगा।
गाँधी यह चाहते थे कि गाँव के विकास को प्राथमिकता मिले और इसमें जीवन के सभी आयामों का ध्यान रखा जाए। गाँव में उद्योग, हुनर, तन्दुरूस्ती और शिक्षा इन चारों का सुंदर समन्वय हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है, ”मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकड़े नहीं करूँगा, बल्कि यह कोशिश करूँगा कि इन चारों का आपस में मेल बैठे। इसलिए, मैं किसी उद्योग एवं शिक्षा को अलग नहीं मानूँगा, बल्कि उद्योग को शिक्षा का जरिया मानूँगा और इसीलिए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिल करूँगा।“25 कुल मिलाकर, गाँधी गाँवों को अपने चंगुल में जकड़ रखने वाली ‘त्रिविध बीमारी’ का इलाज चाहते हैं। ये बीमारियाँ हैंऋ सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, पर्याप्त एवं संतुलित पोषक आहार की कमी और ग्रामवासियों की जड़ता।26 यदि इन बीमारियों को दूर कर दिया जाए, तो सचमुच भारतीय गाँव स्वर्ग जैसे बन जाएँगे। अतः, आज यह जरूरी है कि हमारी सरकार महानगरों की बजाय गाँव को केंद्र में रखकर सोचें और हम भी गाँव को छोड़कर शहर की ओर नहीं भागें, बल्कि गाँव का नवनिर्माण करेंऋ गाँव बनाएँेंऋ देश बचाएँ।27
आलोचना: आलोचकों का कहना है कि गाँधी का ग्राम-स्वराज मात्रा एक ‘यूटोपिया’ है। इसके उत्तर में गाँधी कहते हैं कि यह सब तो खयाली तस्वीर है, इसके बारे में सोचकर वक्त क्यों बिगाड़ा जाय? युक्लिड की परिभाषा वाला बिंदु कोई मनुष्य खींच नहीं सकता, फिर भी उसकी कीमत हमेशा रही है और रहेगी। अगर इस तस्वीर को पूरी तरह बनाना या पाना संभव नहीं है, तो भी इस सही तस्वीर को पाना या इस हद तक पहुँचना हिंदुस्तान की जिंदगी का मकसद होना चाहिए। जिस चीज को हम चाहते हैं उसकी सही-सही तस्वीर हमारे सामने होनी चाहिए, तभी हम उससे मिलती-जुलती कोई चीज पाने की आशा रख सकते हैं।28 अगर हिंदुस्तान के हर एक गाँव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वरी की सच्चाई साबित कर सकूँगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी। गाँधी यह मानते थे कि ऐसा संभव है कि ऐसे गाँव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी लग जाए। सच्चे प्रजातंत्रा का और ग्राम-जीवन का कोई भी प्रेमी एक गाँव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारी दुनिया मानकर उसके काम में मशगूल रह सकता है। निश्चय ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा। वह गाँव में बैठते ही एक साथ गाँव के भंगी, चैकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गाँव का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी वह संतोष के साथ अपने सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।29 इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए गाँधी ने आजादी के बाद ‘भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस’ को भंग कर ‘लोक सेवक संघ’ बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन सत्ता के लोभ में उनके अनुयायियों ने ऐसा नहीं किया। फिर, अपने असमय निधन (हत्या) की वजह से गाँधी को इस दिशा में कार्य करने का पर्याप्त अवसर भी नहीं मिला।30
यहाँ यह भी गौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू एवं डाॅ. भीमराव अंबेडकर आदि कई नेताओं ने ग्राम-स्वराज की आलोचना की है। ऐसे आलोचकों का कहना है कि गाँव अस्पृश्यता, अंधविश्वास एवं अज्ञानता आदि बुराईयों की जड़ है, उसे केन्द्र में रखकर प्रगतिशील एवं न्यायपूर्ण समाज नहीं बनाया जा सकता है। यह एक कटु सत्य है कि प्राचीन भारतीय गाँव अस्पृश्यता आदि बुराइयों से ग्रसित रहे हैं और वहाँ अंधविश्वास एवं अज्ञानता का भी बोलबाला रहा है, लेकिन वहाँ हमेशा इन बुराइयों को दूर करने के प्रयास भी होते रहे हैं। गाँधी इससे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे गाँव की इन बुराईयों को स्वीकार कर उसे दूर करने और गाँवों में मौजूद स्वावलंबन, सदाचार एवं सहकारिता आदि नैतिक मूल्यों के संरक्षण पर जोर देते हैं। जाहिर है कि ‘ग्राम-स्वराज’ जड़ नहीं, प्रगतिशील अवधारणा है। अब तो पूँजीवाद एवं साम्यवाद दोनों की सीमाएँ प्रकट हो चुकी हैं, इसलिए ‘ग्राम-स्वराज’ रूपी ‘विकल्प’ को ‘यथार्थ’ रूप देना युगधर्म बन गया है। हम इस ‘युगधर्म’ को निभाने में जितना सफल होंगे, उतनी ही यह दुनिया सुंदर, समृद्ध एवं न्यायपूर्ण बनेगी।
वर्तमान संदर्भ: भारत सरकार का दावा है कि देश एक महाशक्ति बनकर उभर रहा है। लेकिन, सरकारी दावों से इतर भारत की तस्वीर का दूसरा पहलू बड़ा ही विभत्स है। देश पर विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है और हमारी उत्पादन-क्षमता में अपेक्षाकृत वृद्धि नहीं हो पा रही है। हम मानव विकास सूचकांक में भी लगातार पिछड़ते चले जा रहे हैं। शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि के मामलों मंे हम काफी पीछे हैं। लगभग 78 प्रतिशत जनता की औसत दैनिक आय महज 18 रुपए है।31 आज ग्रामीण भारत बदहाली के कगार पर है। बढ़ते शहरीकरण ने कई गाँवों को निगल लिया है और ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ की कल्पना धूमिल पड़ती जा रही है। गाँव की ‘शस्यश्यामला धरती’ को रासायनिक खादों एवं कीटनशकों ने ‘अपवित्रा’ बना दिया है। धरतीपुत्रा किसान घाटे एवं कर्ज के बोझ से आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। मजदूरों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है और पशुपालकों की स्थिति भी दयनीय है। इसके बावजूद सरकार गाँव एवं खेती-किसानी के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है। कई जगहों पर किसानों की उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहीत कर ‘हाइवे’, ‘टाउनशिप’ एवं ‘सेज’ बनाए जा रहे हैं। ऐसे में पता नहीं हमारे प्रधानमंत्राी अपने ‘मन की बात’ कैसे करेंगे? वे कृषि में लगे लोगों को ‘मंगल ग्रह’ के लिए ‘जाॅब गारंटी कार्ड’ देंगे या स्वर्ग का टिकट!32
निष्कर्ष: भूमंडलीकरण के इस दौर में ‘ग्लोबल-विलेज’ (‘विश्व-ग्राम’) का झूठा प्रचार किया जा रहा है और विकास के बड़े-बड़े आँकड़े पेश किए जा रहे हैं। मगर, सच्चाई यह है कि आज ‘गाँव’ अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। गाँव का रहन-सहन, खान-पान, भाषा-विचार, इतिहास-दर्शन, सभ्यता-संस्कृति एवं जीवनशैली भी प्रदूषित हो रही है और हमारा स्वाभिमान, स्वावलंबन एवं स्वायत्ता खतरे में है। ‘गाँव की सत्ता गाँव के हाथ’ के नारे के साथ पंचायती राज-व्यवस्था को लागू करने में भी बेइमानी की गई है। यह शासन-सत्ता का ‘वैकल्पिक माॅडल’ नहीं होकर, संसदीय लोकतंत्रा की ही एक प्रतिलिपि मात्रा बनकर रह गई है।33 इसमें संसदीय लोकतंत्रा की सभी बुराईयाँ मौजूद हैं। पंचायतों में भी जातिवाद, सांप्रदायिकता, अपराधीकरण एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है और यह महज लूट का विकेंद्रीकरण साबित हुआ है। इंदिरा आवास, बीपीएल कार्ड, वृद्धा पेंशन, आँगनबाड़ी योजना आदि से लेकर ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) तक सभी भ्रष्टाचार में डूबे हैं। पूरी स्थिति पर समग्रता से विचार करने से यही लगता है कि गाँधी का सपना अधूरा है। ‘स्वराज्य’ एवं ‘सुराज’ दोनों अभी बाकी है। इसलिए साम्राज्यवादी-बाजारवादी ताकतों द्वारा प्रायोजित भूमंडलीकरण को नकारते हुए गाँधी के ग्राम-स्वराज्य की अवधारणा को मूर्तरूप देने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर सकें, तो हमारे गाँवों की तस्वीर बदलेगी और उसके आँखों के आँसू पोछे जा सकंेंगे।34 चलो गाँव की ओर!
संदर्भ
1. गाँधी; हिंद स्वराज्य, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, आठवाँ संस्करण-2009, पृ. 104.
2. गाँधी; हरिजन सेवक, 22 अप्रैल, 1939.
3. गाँधी; हरिजन, 27 मई, 1939.
4. गाँधी; हरिजन सेवक, 18 मई, 1990.
5. वही, 27 मई, 1939.
6. गाँधी; हरिजन, 27 मई, 1939.
7. वही, 23 सितंबर, 1939.
8. वही, 11 जनवरी, 1936.
9. वही, 18 जनवरी, 1948.
10. गाँधी; इन सर्च आॅफ सुप्रीम, खंड: 1, पृ. 267.
11. देसाई, महादेव; वीद गाँधी इन सीलोन, 1928, पृ. 98.
12. गाँधी; हिंद स्वराज्य, पूर्वोक्त, पृ. 97.
13. गाँधी; यंग इंडिया, 8 सितंबर, 1920.
14. वही, 22 सितंबर, 1920.
15. गाँधी; हिंद स्वराज्य, पूर्वोक्त, पृ. 104.
16. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, दर्शना पब्लिकेशन, भागलपुर (बिहार), 2015, पृ. 66.
17. गाँधी; हरिजन, 4 अप्रैल, 1936.
18. सिंह, डाॅ. रामजी; गाँधी-विचार, मानक पब्लिकेशंस प्रा. लि., दिल्ली, 1995, पृ. 85.
19. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, पूर्वोक्त, पृ. 66.
20. गाँधी; हरिजन, 4 अगस्त, 1946.
21. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, पूर्वोक्त, पृ. 66.
22. वही.
23. गाँधी; हरिजन सेवक, 28 जुलाई, 1946.
24. गाँधी; संपूर्ण गाँधी वाङ्मय, दिल्ली, खंड: 4, पृ. 144.
25. गाँधी; हरिजन, 10 नवंबर, 1996.
26. वही, 6 मई, 1936.
27. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, पूर्वोक्त, पृ. 66.
28. वही.
29. गाँधी; हरिजन सेवक, 28 जुलाई, 1946
30. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, पूर्वोक्त, पृ. 66.
31. वही.
32. वही.
33. वही.
34. वासनिक, यशवंत; ‘बूढा गाँव’, युवा संवाद, संपादक: ए. के. अरूण, युवा संवाद प्रकाशन, नई दिल्ली, अगस्त 2005, कवर पृ. 2.
ख्इस संदर्भ में ‘युवा भारत’ के साथियों द्वारा तैयार किया गया यह सामूहिक गीत स्मरणीय है। इसमें भारतीय गाँव के भूत एवं वर्तमान की सच्ची तस्वीर तो है ही, साथ ही भविष्य की भावी योजना को स्पष्ट करने की कोशिश भी की गई है। यह गीत हैऋ ‘मेरा बूढ़ा गाँव / आँखों में आँसू लिए रे / कुम्हारों की भट्टी बुझ गई / लोहारों का लोहा गल गया / लकड़ी छिन गई बढ़ई से मेरे / जुलाइे का करघा छिन गया / बरगद के नीचे रोए रे / मेरा बूढ़ा गाँव…/ झरने सूख गए, नाले भर गए / पनिहारन की राह देखते / कुओं के भी पानी सूख गए / बिकने के लिए बोतल में पानी रे / मेरा बूढ़ा गाँव…/ माचिस की डिबिया में साड़ी / रेशम की सी जरी किनारी / कारीगरी की शान पुरानी / सात-समंदर तक पहचानी / पावरलूम ने खत्म किया रे / मेरा बूढ़ा गाँव…/ हरिश्चंद्र और तारामती की / लोरिक-चंदा अल्हा-उदल की / हीर-राँझे की प्रेम कहानी / थके जीवन को मिले जवानी / चैनल ने बर्बाद किय रे / मेरा बूढ़ा गाँव…/ पीढ़ियों का वो गाँव हमारा / लगता है अब थका सा हारा / किसने उसकी रौनक छीनी / किसने उसके पेट में मारा / गद्दारों ने गिरवी रखी रे / मेरा बूढ़ा गांँव../ गाँव से उजड़ा शहर में आया / चाँद के नीचे चुल्हा जलाया / बुलडोजर ने रौंद डाला रे / मेरा बूढ़ा गाँव…/ कुत्ते-बिल्ली को मिलता खाना, जंगल के पशुओं को ठिकाना / जिन ग्रामीणों ने जग को संवारा / नष्ट हो रहा उसका घराना / साम्राज्यवाद से लड़ना होगा रे / आँखों में आशा लिए रे …।”

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।