Bhartiy Samvidhan aur Manvadhikar भारतीय संविधान और मानवाधिकार

15. भारतीय संविधान और मानवाधिकार

”मैं महसूस करता हूँ कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकलें, तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों, तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा। संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है। राज्य के उन अंगों का संचालन लोगों पर और उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले राजनैतिक दलों पर निर्भर करता है। कौन कह सकता है कि भारत के लोगों और उनके राजनैतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? जातियों तथा संप्रदायों के रूप में हमारे पुराने शत्राुओं के अलावा भिन्न तथा परस्पर, विरोधी विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दल बन जाएँगे। क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता। लेकिन, यह बात निश्चित है कि यदि राजनैतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे, तो हमारी स्वतंत्राता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और संभवतः हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए।“1

डाॅ. अंबेडकर के एक भाषण से लिए गए इस लंबे उद्धरण से जाहिर है कि वे न केवल अच्छा संविधान, वरन् उसके क्रियान्वयन के लिए अच्छे लोगों की भी जरूरत महसूस करते थे। ये दोनों ही बातें मानवाधिकार को व्यावहारिक रूप देने के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए, वे संवैधानिक प्रावधानों में भी किसी तरह की कोताही नहीं बरतना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि राष्ट्र का सर्वप्रमुख लक्ष्य सामाजिक न्याय की स्थापना है, यह बात स्वतंत्रा भारत के संविधान में भी दृष्टिगोचर होना चाहिए। यही कारण है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही मानवाधिकार संरक्षण का प्रावधान किया गया। संविधान की प्रस्तावना में, जिस रूप में उसे संविधान सभा ने पास किया था, कहा गया है, ”हम, भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्राता एवं समानता दिलाने तथा सब में बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं। न्याय की परिभाषा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय के रूप में की गई है। स्वतंत्राता में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं उपासना की स्वतंत्राता सम्मिलित है और समानता का अर्थ है ऋ प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता।“2

डाॅ. अंबेडकर को यह मालूम था कि केवल संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’ (या सामाजिक न्याय) शब्द को शामिल करने अथवा इसके लिए कुछ कानूनी प्रावधान करने मात्रा से मानवाधिकार-संरक्षण की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है। उन्होंने कहा था, ”26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी पर सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमें समानता प्राप्त नहीं होगी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट एक मूल्य’ सिद्धांत को मान्यता देंगे। हमारे सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में, हम, हमारे सामाजिक तथा आर्थिक ढाँचे के कारण, ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।“3 इससे स्पष्ट है कि डाॅ. अंबेडकर राजनैतिक जनतंत्रा से अधिक आर्थिक एवं सामाजिक जनतंत्रा या सामाजिक न्याय के लिए चिंतित थे। वे हमेशा मानवाधिकार के प्रति सजग रहे और उन्होंने जनता को साफ-साफ कहा कि वे सिर्फ 26 जनवरी, 1950 के संविधान से संतुष्ट नहीं हो जाएँ। इसके विपरीत वे दुहरा प्रयास करें। एक, मानवाधिकार से जुड़े संवैधानिक प्रावधान को लागू करने के लिए संघर्ष करें। दूसरा, खुद संविधान कैसे अधिक से अधिक न्यायपूर्ण एवं जनोपयोगी बने इसका भी प्रयास करते रहें। डाॅ. अंबेडकर भारतीय संविधान से संतुष्ट भी नहीं थे। एक बार उन्होंने कहा, ”मैंने बहुमत वाली सरकार के आग्रह पर संविधान बनाया है। उसमें मेरी मजबूरी थी। जनमत के अनुसार मुझे संविधान बनाना पड़ा। भारत के संविधान में अस्पृश्यों की उचित सुरक्षा नहीं हो पाई और आगे होगी भी नहीं। इसलिए, सबसे पहले मैं इस संविधान को जला दूँगा।“4

खैर, कई कमियों के बावजूद भारतीय संविधान में मानवाधिकार-संरक्षण हेतु कई प्रावधान मौजूद हैं। इस दृष्टि से संविधान के निम्न अनुच्छेदों का काफी महत्व है5ऋ

प. अनुच्छेद-14: इसके तहत कानून के समक्ष समानता का प्रावधान है। राज्य भारत क्षेत्रा के भीतर किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता अथवा समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

पप. अनुच्छेद-15: इसके अंतर्गत धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है। इसमें प्रावधान है कि राज्य किसी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर या इनमें से किसी एक के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। कोई नागरिक निम्न संबंध में धर्म, नस्ल, जाति, जन्मस्थान के आधार पर या इनमें से किसी के आधार पर किसी अक्षमता, भार, निषेध या शर्त के अधीन नहीं होगा। इस अनुच्छेद का कोई भी विषय राज्य को स्त्रिायों एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगा। इस अनुच्छेद में या अनुच्छेद-29 का पद या ‘क्लाॅज’ का कोई विषय राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों के किसी वर्ग या अनुसूचित जाति या जनजाति की प्रगति के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगा।

पपप. अनुच्छेद-16: यह अनुच्छेद मानवाधिकारों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत सरकारी क्षेत्रा में रोजगार के मामलों में अवसरों की समानता की बात कही गई है। इसमें कहा गया है कि राज्य के अंतर्गत किसी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति से संबंधित मामले में सभी नागरिकों को अवसर की समानता होगी। कोई नागरिक धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, उत्पत्ति, निवास या इनमें से किसी के भी आधार पर राज्य के किसी रोजगार या कार्यालय के संबंध में अयोग्य नहीं होगा या उसके खिलाफ भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस अनुच्छेद का कोई विषय संसद को किसी रोजगार की श्रेणी या श्रेणियों अथवा राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश की सरकार या किसी स्थानीय अथवा अन्य प्राधिकरण के अधीन किसी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति के संबंध में उस राज्य के भीतर प्राथमिकता या वरीयता, जो ऐसे रोजगार या नियुक्ति के लिए आवश्यक हो, तय करने से नहीं रोकेगा। अनुच्छेद का कोई विषय राज्य को किसी पिछड़े वर्ग के नागरिकों, जिनका राज्य के विचार में, राज्य की नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, के लिए पदों या नियुक्तियों में आरक्षण के लिए कोई प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगा। अनुच्छेद का कोई विषय राज्य को राज्य की नौकरियों में अनुसूचित जाति व जनजाति के पक्ष में किसी पद के वर्ग या वर्गों के अनुवर्ती वरिष्ठता के साथ पदोन्नति के मामले में कोई प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगा, जबकि राज्य के विचार में राज्य की नौकरियों में अनुसूचित जाति व जनजाति का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। अनुच्छेद का कोई विषय राज्य को किसी वर्ष न भरी गई ऐसी जगहों, जो उस वर्ष पद (पअ) और (पअ . ।) की संगति में भरे जाने के लिए आरक्षित हैं, की रिक्तियों को अलग वर्ग के रूप में आगामी किसी वर्ष या वर्षों में भरे जाने पर विचार करने से नहीं रोकेगा और ऐसी रिक्तियों का वर्ग उस वर्ष रिक्तियों की कुल संख्या पर पचास फीसदी सीलिंग को निर्धारित करने के लिए तद्वर्ष भरी जाने वाली रिक्तियों के साथ विचार नहीं किया जाएगा। इस अनुच्छेद का कोई विषय या अनुच्छेद-29 के पद (पप) का कोई विषय किसी ऐसे कानून के कार्य को प्रभावित नहीं करेगा, जो व्यवस्था करता है कि किसी धर्म या संप्रदाय से संबंधित मामले या उसकी गवर्निंग बाॅडी के किसी सदस्य के संबंध में कोई पदधारक धर्म विशेष या संप्रदाय विशेष का होगा।

पअ. अनुच्छेद 17: भारतीय समाज को मानवीय बनाने की दृष्टि से यह अनुच्छेद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत भारत में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही अमानवीय बुराई अस्पृश्यता (छुआछूत) के उन्मूलन का प्रावधान है। इसमें कहा गया है कि ‘अस्पृश्यता’ उन्मूलित की जाती है और किसी भी रूप में इसका व्यवहार निषिद्ध है। ‘अस्पृश्यता’ से पैदा होने वाली कोई भी अशक्तता कानून सम्मत रूप से दंडनीय अपराध होगा।

अ. अनुच्छेद-23: यह शोषण के विरूद्ध अधिकार बेगारी एवं मानव व्यापार या ट्रैफिकिंग का निषेध है। इसमें कहा गया है कि मानव जाति के व्यापार (ट्रैफिकिंग) एवं बेगार तथा बेगार के समान अन्य कार्य प्रतिबंधित किए जाते हैं। इस का उल्लंघन कानून के अनुसार दंडनीय होगा। इस अनुच्छेद का कोई विषय राज्य को लोक उद्देश्यों के निमित्त अनिवार्य सेवा को लागू करने से नहीं रोकेगा और ऐसी सेवा लागू करने में राज्य धर्म, नस्ल, लिंग, जाति अथवा वर्ग या इनमें से किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

अप. अनुच्छेद-24: यह अनुच्छेद भी शोषण के विरूद्ध अधिकार से संबंधित है। इसके तहत कारखानों इत्यादि में बच्चों के रोजगार का निषेध किया गया है। इसमें कहा गया है कि 14 वर्ष से कम उम्र का कोई बच्चा किसी कारखाने या खान में काम पर नहीं लगाया जाएगा अथवा किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाएगा।

अपप. अनुच्छेद-25: यह अनुच्छेद धर्म की स्वतंत्राता का अधिकार, अंतःकरण की स्वतंत्राता और स्वतंत्रा आस्था, धार्मिक आचरण अपनाने तथा उसे प्रचार-प्रसार का अधिकार देता है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि लोक-व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को लेकर और इस भाग के अन्य प्रावधानों के तहत सभी व्यक्ति अंतःकरण की स्वतंत्राता एवं स्वतंत्रा रूप से किसी धर्म को अपनाने, तद्नुसार आचरण करने एवं उसका प्रचार करने के लिए समान रूप से अधिकारी हैं। इस अनुच्छेद का कोई विषय किसी विद्यमान कानून के कार्य पर प्रभाव नहीं डालेगा या राज्य का कोई कानून बनाने से नहीं राकेगा, जिसमें कोई आर्थिक, वित्तीय या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि, जो धार्मिक व्यवहार/आचरण से जुड़ी हो सकती है, को विनियमित अथवा प्रतिबंधित किया जा रहा हो। सामाजिक कल्याण एवं सुधार की व्यवस्था की जा रही हो अथवा सार्वजनिक प्रकृति की किसी हिंदू संस्था को हिंदुओं के सभी वर्गों या भागों के लिए खोला जा रहा हो।

अपपप. अनुच्छेद-29: यह अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार भारतीय क्षेत्रा अथवा उसके किसी भाग में निवास करने वाले नागरिकों के किसी भी हिस्से को अपनी खास भाषा, लिपि या संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है। किसी नागरिक को ऐसे शैैक्षिक संस्थान, जिसका रखरखाव राज्य सरकार द्वारा हो रहा हो या उसे राज्य निधि से सहायता मिल रही हो, में धर्म, नस्ल, जाति, भाषा या इनमें से किसी एक के आधार पर प्रवेश देने से इनकार नहीं किया जाएगा।

पग. अनुच्छेद-350 (ं): इसके अंतर्गत प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा प्रदान की गई है। प्रत्येक राज्य या राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकृत संस्था का यह प्रयास होगा कि भाषाई अल्पसंख्यक समूहों से संबंधित बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर उनकी मातृभाषा में पर्याप्त सुविधाएंँ मुहैया कराई जाएँ। राष्ट्रपति किसी भी राज्य को ऐसे निर्देश जारी कर सकता है, जो उन्हें ऐसी सुविधाओं को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक या उचित लगते हों।

ग. अनुच्छेद-350 (इ): इसमें भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारों की चर्चा है। इसके अंतर्गत प्रावधान है कि भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। उस विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान के अंतर्गत भाषार्यी अल्पसंख्यकों को मुहैया कराए गए सुरक्षा से संबंधित किसी भी मामले की जाँच करे तथा उन मामलों पर राष्ट्रपति को ऐसे अंतराल पर रिपोर्ट दे, जैसा राष्ट्रपति निर्देश दें और राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्टों को संसद के दोनों सदनों के समक्ष पेश करवाएँगे तथा संबंधित राज्य की सरकार को प्रेषित करवाएँगे।

गप. अनुच्छेद-46: इसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति एवं अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक व आर्थिक हितों की समुन्नति का प्रावधान है। राज्य जनता के कमजोर वर्गों के शैक्षिक व आर्थिक हितों पर खास ध्यान देकर उन्हें बढ़ावा देगा और विशेष रूप से अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से सुरक्षा करेगा।

गपप. अनुच्छेद-164 (प): यह चयनित राज्यों में जनजातीय कल्याण तथा अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्गों के कल्याण के प्रभारी मंत्राी की नियुक्ति की व्यवस्था करता है। राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्राी की नियुक्ति की जाएगी तथा मुख्यमंत्राी की सलाह पर राज्यपाल अन्य मंत्रियों को नियुक्त करेगा। मंत्राी राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त पद पर बने रहेंगे। बिहार, मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा राज्य में, जनजातीय कल्याण के विभाग में एक मंत्राी होगा, जिसके पास अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण या अन्य किसी कार्य का अतिरिक्त प्रभार हो सकता है।

गपपप. अनुच्छेद-330: इसके अंतर्गत लोकसभा में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। इसमें प्रावधान है कि लोकसभा में सीटों का आरक्षण अग्रलिखित वर्गों के लिएऋ अनुसूचित जातियों के लिए, असम के स्वायत्त जिलों में अनुसूचित जनजातियों के सिवाय अनुसूचित जनजातियों के लिए, और असम में स्वायत्त जिलों में अनुसूचित जनजाति के लिए। पद ;ंद्ध के तहत किसी भी राज्य (या संघशासित प्रदेश) में अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या, राज्य (या संघशासित प्रदेश) में अनुसूचित जातियों की आबादी या राज्य (या संघशासित प्रदेश) अथवा राज्य (या संघशासित प्रदेश) के हिस्से में अनुसूचित जनातियों की आबादी जैसी भी स्थिति हो, के अनुपात में होगी, जो अनुपात राज्य (या संघशासित प्रदेश) की कुल आबादी और लोकसभा में उस राज्य (या संघशासित प्रदेश) के लिए आवंटित सीटों की कुल संख्या का है। पद ;इद्ध में कही गई किसी बात के बावजूद असम राज्य के स्वायत्तशासी जिलों में अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा में आरक्षित सीटों की संख्या उस राज्य के लिए आवंटित सीटों की कुल संख्या के उस अनुपात से कम नहीं होगी जो उपरोक्त स्वायत्तशासी जिलों में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या तथा राज्य की कुल जनसंख्या के अनुपात के बीच है।

गपअ. अनुच्छेद-332: इसके द्वारा राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। इसके अंतर्गत प्रावधान हैं प्रत्येक राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (असम के स्वायत्तशासी जिलों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर) के लिए सीटें आरक्षित की जाएगी। असम राज्य की विधानसभा में आने वाले स्वायत्तशासी जिलों के लिए भी सीटें आरक्षित की जाएंगी। असम राज्य के एक स्वायत्तशासी जिले के लिए आरक्षित सीटों की संख्या उस विधानसभा में सीटों की कुल संख्या के उस अनुपात से कम नहीं हो, जो राज्य की कुल आबादी से जिले की आबादी के बीच है। असम के किसी भी स्वायत्तशासी जिले के लिए आरक्षित सीटों हेतु निर्धारित क्षेत्रों में उस जिले के बाहर का कोई क्षेत्रा शामिल नहीं होगा। ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो असम राज्य के किसी स्वायत्तशासी जिले के किसी अनूसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है, राज्य की विधानसभा के चुनावों के लिए उस जिले के किसी भी निर्वाचन क्षेत्रा से चुनाव लड़ने के योग्य नहीं होगा।

गअ. अनुच्छेद-334: यह लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं हेतु निर्धारित सीटों के लिए समय-सीमा बाँधता है। इस अनुच्छेद में मूल रूप से प्रावधान है कि लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं (और नामांकन द्वारा एंग्लो-इंडियन समुदाय का लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व) में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण संविधान के आरंभ होने के दस वर्ष की अवधि बीत जाने पर समाप्त हो जाएगा। लेकिन, सरकार द्वारा यह अनुच्छेद कई बार संशोधित कर इसकी अवधि बढ़ाई जाती रही है।

उक्त अनुच्छेदों के अलावा संविधान में वर्णित निम्न अधिनियम एवं प्रावधान भी मानवाधिकारों की रक्षा में सहायक हैं6 ऋ

प. बंधुआ मजदूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-23 मानव व्यापार (टैªफिकिंग) और बेगार तथा बेगार के समान अन्य कार्यों का निषेध करता है और व्यवस्था करता है कि इस प्रावधान का किसी भी प्रकार उल्लंघन कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा। इस अनुच्छेद के अनुपालन में संसद ने, बंधुआ मजदूरी (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 बनाया है। इसके प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन के लिए श्रम मंत्रालय बंधुआ मजदूरों की पहचान, उनकी मुक्ति एवं पुनर्वास के लिए केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाएँ चला रहा है। इन योजनाओं से बंधुआ मजदूरी पर बहुत हद तक नियंत्राण किया जा सका है।

पप. बाल-श्रम (निषेध एवं नियमन) अधिनियम, 1986: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 में व्यवस्था है कि 14 साल से कम उम्र का कोई बच्चा किसी कारखाने या खान में काम पर नहीं लगाया जाएगा या किसी खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जाएगा। कुछ वर्षों पूर्व इस प्रावधान को और प्रभावी बनाने की कोशिश की गई है।

पपप. नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 एवं नियमावली, 1977: संविधान के अनुच्छेद-17 को प्रभावी बनाने के लिए भारतीय संसद ने अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया। इस अधिनियम के प्रावधानों को और अधिक सख्त बनाने के लिए 1976 में इसमें संशोधन करते हुए इसका पुनर्नाम ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (पीसीआरए) रखा गया। फिर, भारत सरकार ने पीसीआरए के प्रावधानों को अमल में लाने हेतु 1977 में पीसीआर रूल्स-1977 अधिसिूचित किया।

पअ. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 एवं नियमावली, 1995: अनुसूचित जातियों/जनजातियों पर अत्याचार के मामले पीसीआर अधिनियम, 1955 के प्रावधानों के तहत खासतौर पर नहीं लिए गए, इसीलिए संसद् ने अत्याचार रोकने हेतु विशेष उपाय करते हुए 1989 में एक अन्य महत्वपूर्ण अधिनियम पारित किया। यह अधिनियम अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (अत्याचार अधिनियम) के नाम से जाना जाता है। यह 30 जनवरी, 1990 से प्रभाव में आया। इस अधिनियम के प्रावधानों को आगे बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने संबद्ध नियम बनाए, जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियमावली, 1995 के नाम से जाना जाता है। नियमावली 30 मार्च, 1995 को अधिसूचित की गई और उसी दिन से प्रभावी हुई।

अ. हाथ से मैला साफ करने के रोजगार एवं सूखे शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 एवं नियमावली, 1997: हाथ से मैला उठाने के रोजगार के निषेध के साथ ही सूखे शौचालय के जारी रहने या निर्माण के निषेध के लिए तथा वाटरसील शौचालयों के निर्माण और रखरखाव के विनियमन के लिए तथा उनसे जुड़े हुए मामलों एवं आकस्मिक बातों के लिए अधिनियम।

अप. पंचायत व्यवस्था (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम, 1996: इस अधिनियम के अंतगर्त पंचायत के अनुसूचित क्षेत्रों के विस्तार के लिए प्रावधान किए गए हैं। इस संबंध में संविधान के भाग- प्ग् की व्यवस्था के विस्तार के लिए कानून का प्रबंध किया गया है।

निष्कर्ष: भारतीय संविधान में सामाजिक स्वतंत्राता एवं सामाजिक समानता के साथ-साथ सामाजिक सुरक्षा को भी मानवाधिकार का महत्वपूर्ण अंग माना गया है। इसलिए, इसमें न केवल दलितों अपितु पिछड़ों, आदिवासियों, घुमंतू जातियों, महिलाओं, बच्चों, विकलांगों एवं वृद्धों सहित सभी नागरिकों के लिए मानवाधिकार सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है। मगर, भूमंडलीकरण के इस दौर में संविधान का लोककल्याणकारी स्वरूप काॅरपोरेट दलाली प्रारूप में तब्दील होता जा रहा है। साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में आकर हमारी सरकारें मानवाधिकारों की उपेक्षा कर पूँजीपतियों के लिए ‘सेज’ सजाने में लगी हंै। पूँजीपतियों के पक्ष में नित नए-नए कानून बनाए जा रहे हैं और अध्यादेश जारी हो रहे हैं। हालत यह है कि पूँजीपतियों के हितों से संबंधित प्रस्तावों को चंद मिनटों में विधानमंडलों और संसद से पास कर दिया जाता है। इसके विपरीत मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दों को वर्षों किसी कोने में दबाकर रख दिया जाता है। गाहे-बगाहे ऐसे मामले सामने आ भी जाते हैं, तो उसे ऐन-केन-प्रकारेण विवादित बनाकर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। मानवाधिकारों के मामले में पक्ष, विपक्ष एवं त्रिपक्ष सभी कमोवेश एक ही हैं। साल- दर-साल और चुनाव-दर-चुनाव सिर्फ चेहरे बदलते हैं, लेकिन सत्ता के चरित्रा में गुणात्मक परिवर्तन नहीं के बराबर होता है। ऐसे में, यह बात सच लगती है कि जब तक व्यक्ति एवं समाज नहीं बदलेगा, तब तक संविधान एवं सरकार बदलने से कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आने वाला है।

संदर्भ

1. 25-26 नवंबर, 1949 को भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के सभापति के रूप में दिया गया डाॅ. अंबेडकर का भाषण.

2. कश्यप, सुभाष; हमारा संविधान, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2004, पृ. 78.

3. डाॅ. अंबेडकर; ‘कहीं हम अपनी स्वतंत्राता को गँवा तो नहीं देंगे’, सामाजिक न्याय के सजग प्रहरी डाॅ. अंबेडकर, संपादक: डाॅ. विष्णुदत्त नागर, सेगमेंट प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991, पृ. 31.

4. अंबेडकर, डाॅ. भीमराव रामजी; और बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा …, खंड-5, अनुवादक एवं संपादक: डाॅ. एल. जी. मेश्राम ‘विमलकीर्ति’, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 2008, पृ. 155.

5. अग्रवाल, गिरीश एवं गोंसाल्विस, काॅलिन (सं.); दलित और कानून, ह्यूमन राइट्स लाॅ नेटवर्क, नई दिल्ली, दिसंबर 2006, पृ. 17-22.

6. वही, पृ. 22-81.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।