Varna-Vyavastha aur Manvadhikar वर्ण-व्यवस्था और मानवाधिकार

11. भूमंडलीकरण और भारतीय सभ्यता
हम जानते हैं कि प्राकृतिक संपदाओं और मानव संसाधनों की प्रचुरता के कारण भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। मगर, पश्चिमी सभ्यता के झंडाबरदारों ने इसे सपेरोें, लूटेरों, जटाजूट वाले संन्यासियों, धर्मांधों, गरीबों एवं असभ्यों का देश कहकर ही प्रचारित किया। यह एक औपनिवेशिक दृष्टि थी, जिसे भारत के कई नवशिक्षित बुद्धिजीवियों ने भी बौद्धिकता एवं प्रगतिशीलता के अहंकार में अपनाया था। तब गाँधी ने इस औपनिवेशिक दृष्टि के साथ-साथ ऐसे बुद्धिजीवियों के मानसिक दिवालियेपन को भी ‘हिंद-स्वराज’ में झकझोरने की कोशिश की थी। ‘हिंद-स्वराज’ में गाँधी ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि हिंदुस्तान पश्चिमी सभ्यता के कारण ही गुलाम हुआ है और हिंदुस्तान की दुर्दशा के लिए अंग्रेजी राज से अधिक अंग्रेजी (पश्चिमी) सभ्यता जिम्मेदार है। इसलिए, यदि हम भारतीय पश्चिमी सभ्यता के माया-जाल से निकलकर हिंदुस्तानी सभ्यता के मूल्यों को आत्मसात् कर लें, तो हमें आजाद होने में देर नहीं लगेगी। एंथनी जे. परेल के शब्दों में, ”गाँधी अपने देशवासियों से कहना चाहते थे कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद उनका असली दुश्मन नहीं, वरन् असली दुश्मन तो पाश्चात्य सभ्यता है। जब तक वे पाश्चात्य सभ्यता के चकाचैंध से चैंधियाते रहेंगे, तब तक परतंत्राता की बेड़ियों में जकड़े रहेंगे, चाहे भले ही वे राजनैतिक आजादी क्यों न हासिल कर लें।“1
भारतीय सभ्यता: गाँधी के अनुसार, ”सभ्यता वह आचरण है, जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। यहाँ फर्ज अदा करने का मतलब हैऋ नीति का पालन और नीति के पालन का अर्थ हैऋ अपने मन एवं इंद्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए व्यक्ति अपने आपको (अपने असली स्वरूप को) पहचानता है।“2 हिंदुस्तान की सभ्यता में ये सारी बातें मौजूद हैं और उसका झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है, इसलिए यह सच्ची सभ्यता है। इसमें हमारा ध्यान जीवन की ऊँची प्रवृत्तियों, ईश्वर के प्रति प्रेम, पड़ोसियों के प्रति शिष्टता और आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति पर जाता है।3
प्राचीन भारतीय सभ्यता संयमप्रधान है। वह हमें बताती है कि मनुष्य ज्ञानपूर्वक अपनी आवश्यकताओं को जितना कम करता है, वह उतना ही आगे बढ़ता है। इसमें बाह्य वृत्तियों की अपेक्षा आंतरिक प्रवृत्तियों को ज्यादा महत्व दिया गया है।4 सच्ची सभ्यता का लक्षण भी अपरिग्रह है, परिग्रह को विचार एवं इच्छापूर्वक घटाना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह घटता है, त्यों-त्यों सच्चा सुख, सच्चा संतोष और सेवा-शक्ति बढ़ता है।5
गाँधी लिखते हैं, ”जो सभ्यता हिंदुस्तान ने दिखाई है, उस तक दुनिया में कोई नहीं पहुँच सकता। जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाही चली गई, जापान पश्चिम के शिकंजे में फँस गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता। लेकिन, गिरा-टूटा जैसा भी हो, हिंदुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है।“6 उन्होंने पाश्चात्य विचारकों द्वारा हिंदुस्तानी सभ्यता को जड़ एवं दकियानूस बताने का प्रतिकार किया है। वे कहते हैं, ”भोग भोगने से भोग की इच्छा ही बढ़ती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँध दी। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्रा वगैरह की खोज करना ही नहीं आता था, बल्कि, हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्रा आदि की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे।“7
गाँधी द्वारा हिंदुस्तानी सभ्यता का गौरवगान सुनकर हमारे मन में इसकी विसंगतियों से संबंधित कई सवाल उठ सकते हैं। मसलन, हिंदुस्तान में हजारों बाल विधवाएँ हैं, बालविवाह प्रचलित है, देवदासी प्रथा है, बलि प्रथा है, अस्पृश्यता है आदि-आदि। गाँधी स्वीकार करते हैं कि ऐसे कई दोष हिंदुस्तानी सभ्यता में हैं, लेकिन उन दोषों को इसकी पहचान नहीं कहा जा सकता है। यहाँ उन्हें दूर करने के प्रयत्न हमेशा हुए हैं और होते ही रहेंगे। हमें भी अपनी सभ्यता की बुराइयों को दूर करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए, लेकिन उन बुराइयों के बहाने अच्छाइयों से भी मुँह मोड़ लेना कदापि उचित नहीं है। गाँधी तो यहाँ तक कहते हैं, ”हिंदुस्तान के हित चिंतकों का हिंदुस्तानी सभ्यता से ऐसे ही चिपटा रहना चाहिए, जैसे बच्चा माँ से चिपटा रहता है।“8 जाहिर है कि गाँधी भारतीय जनमानस में अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति प्रेम एवं स्वाभिमान जगाना चाहते थे।
आधुनिक सभ्यता: भूमंडलीकरण पश्चिमी सभ्यता (आधुनिक सभ्यता) का ही उत्पाद (‘बाय प्रोडक्ट’) है। इसके सारे गुण कर्म पश्चिमी सभ्यता से ही विकसित हुए हैं। पश्चिमी सभ्यता की तरह ही इसमें पाशविक शक्तियों की प्राधनता है। धन ही इसका ‘ईश्वर’ है और भोग ही है ‘मोक्ष’। इसमें लौकिक ऐशो आराम, ऐयाशी एवं मनोरंजन के लिए जान की बाजी लगाई जाती है और यांत्रिक शक्ति के संवर्द्धन हेतु मानसिक शक्ति एवं प्राकृतिक संपदाओं का अपव्यय किया जाता है। यह लोगों के भूख एवं बीमारी की अनदेखी कर भोग-विलास की सामग्रियों (टीवी, फ्रीज, एसी आदि) एवं विनाश के साधनों (परमाणु बम, हाईड्रोजन बम, मिसाइल आदि) के निर्माण एवं अविष्कार पर करोड़ों अरबों खर्च कर डालती है। यह मुट्ठीभर प्रभु वर्ग के हितों का संरक्षक एवं संवर्द्धक है, लेकिन बहुसंख्य आबादी के प्रति संवेदनशील एवं जिम्मेदार नहीं है, जैसा कि हरेक सभ्यता और टेक्नोलाॅजी को होना चाहिए। डाॅ. राममनोहर लोहिया के अनुसार, ”इस पूँजीवाद ने गरीबी और युद्ध इन दो राक्षसों को जन्म दिया है, विश्व के एक हिस्से के लिए गरीबी और बाकी के लिए युद्ध।“
गाँधी के अनुसार आधुनिक (पश्चिमी) सभ्यता ‘बिगाड़ करने वाली’ और ‘अधर्म’ का पर्याय है। यह हमें भौतिकवादी दृष्टिकोण देती है और हमारे विचारों को शरीर एवं ऐंद्रिक सुख की वृद्धि के साधनों पर केंद्रित करती है।9 इसमें लोग बाहरी (दुनिया) की खोजों में रत रहते हैं और शारीरिक सुखों को प्राप्त कर ही जीवन में धन्यता-सार्थकता महसूश करते हैं। यहाँ भौतिक या ऐंद्रिक सुखों की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य (पुरूषार्थ) है।10 वास्तव में, यह एक ‘शैतानी सभ्यता’ है, जो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘योग्यतम की रक्षा’ या ‘दूसरों को मारकर जीओ’ के सिद्धांत पर आधारित है। यह भौतिकवाद की पूजक है, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप शक्तिशाली शक्तिहीनों का शोषण करते हैं।11 इसकी वजह से लोगों के नैतिक विकास की गति अवरूद्ध हो गई है और प्रगति का मापदंड रूपया ही हो गया है। इस कथित सभ्यता के निर्माण के लिए स्त्राी-पुरूषों और बालकों की लाशों पर बड़े-बड़े कल-कारखाने खड़े किए गए हैं।12 यह हमें सिखाती है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाकर ही प्रगति कर सकता है। इसलिए, इसमें मनुष्य मुख्यतः शरीर के लिए ही उद्योग करता है।13
गाँधी ने ‘हिंद-स्वराज’ में इसके कई उदाहरण दिए हैं। मसलन, यूरोप के लोग अच्छे घरों में रहने को सभ्यता की निशानी मानते हैं। अच्छे कपड़े पहनने और पांच गोलियां छोड़ सकंे, ऐसी चक्कर वाली बंदूक के इस्तेमाल को सभ्यता की निशानी मानते हैं। भाप के यंत्रा से हल चलाकर एक आदमी बहुत सारी जमीन जोत सकता है और बहुत-सा पैसा जमा कर सकता है, यह भी सभ्यता की निशानी है। गाँधी आगे कहते हैं, ”पहले लोग कुछ ही किताबें लिखते थे और वे अनमोल मानी जाती थीं। आज हर कोई चाहे जो लिखता है, छपवाता है और लोगों के मन को भरमाता है। पहले लोग बैलगाड़ी से रोज बारह कोस की मंजिल तय करते थे। आज रेलगाड़ी से चार सौ कोस की दूरी तय कर लेते हैं। … पहले लोग लड़ना चाहते थे, तो एक दूसरे से शरीर-बल आजमाते थे। आज तो तोप के एक गोले से हजारों जानें ली जा सकती हैं। … पहले जैसे रोग नहीं थे, वैसे रोग आज लोगों में पैदा हो गए हैं।“14 दुर्भाग्य से, यही सब सभ्यता की निशानी मान ली गई है, जबकि वास्तव में यह घोर असभ्यता है। गाँधी मानते हैं कि पश्चिमी सभ्यता में नीति या धर्म की बात नहीं है। यह सभ्यता तो अधर्म है और यह जहाँ-जहाँ फैल रही है, वहाँ के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं। इस सभ्यता की खूबी यह है कि लोग इसे अच्छा मानकर इसमें कूद पड़ते हैं और फिर वे न तो घर के होते हैं, न घाट के। वे सच बात को भी भूल जाते हैं। यह सभ्यता स्वार्थ से भरी, दंभपूर्ण और ईश्वर को भी भूलाने वाली है। इसमें अपने (यूरोप के) अलावा अन्य लोगों को तुच्छ एवं असभ्य माना जाता है।15 यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद भी नाशवान है। इसलिए इस सभ्यता की चपेट में आए लोग खुद की जलाई हुई आग में जल मरेंगे।
जाहिर है कि पश्चिमी सभ्यता न केवल भारत, वरन् पूरी मानवता के लिए घातक है। इसलिए, गाँधी इसका पुरजोर विरोध करते हैं। वे साफ-साफ कहते हैं, ”मैं तो यूरोप की आधुनिक सभ्यता का शत्राु हूँ। ‘हिंद-स्वराज’ में मैंने अपने इसी विचार को निरूपित किया है। यह बताया है कि भारत की दुर्दशा के लिए अंग्रेज नहीं, बल्कि हमलोग ही दोषी हैं, जिन्होंने आधुनिक सभ्यता स्वीकार कर ली है। यदि हम इस सभ्यता को छोड़कर सच्ची धर्म-नीति से युक्त अपनी प्राचीन सभ्यता पुनः अपना लें, तो भारत आज ही मुक्त हो सकता है।“16 इस तरह गाँधी भारतीयों से अपनी जड़ों की ओर लौटने की अपील करते हैं और भारतीय सभ्यता-संस्कृति को बचाने एवं अपनाने की प्रेरणा देते हैं।
गाँधी पश्चिमी सभ्यता की बजाय पूर्वी सभ्यता के हिमायती थे। उनका कहना है, ”पश्चिमी सभ्यता विनाशक है और पूर्वी सभ्यता विधायक है। पश्चिमी सभ्यता केंद्र से दूर ले जानेवाली और पूर्वी सभ्यता केंद्र की तरफ ले जानेवाली है। इसलिए, पश्चिमी सभ्यता तोड़नेवाली और पूर्वी सभ्यता जोड़नेवाली है। मैं यह भी मानता हूँ कि पश्चिमी सभ्यता का कोई लक्ष्य नहीं है और पूर्वी सभ्यता के सामने सदा लक्ष्य रहा है।“17 यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि गाँधी पश्चिमी सभ्यता को मूलतः अनैतिक और विनाशकारी मानने के बावजूद उसकी अच्छाइयों को अपनाने से गुरेज नहीं करते हैं। वे कहते हैं, ”यद्यपि मैं पाश्चात्य भौतिकवाद से बराबर सशंकित रहता हूँ। फिर भी पश्चिमी सभ्यता में जो अच्छाई है, उनका मैं सदैव स्वागत करूँगा।“18 गाँधी की सांस्कृतिक दृष्टि जड़ता एवं आत्ममूग्धता से मुक्त थी। वे किसी भी मायने में पुरातनपंथी या पुनरूत्थानवादी नहीं थे और उन्हें बहुसंस्कृतिवाद से भी विरोध नहीं था। वे तो बस इतना चाहते थे कि हम जो भी करें, वह मनुष्य एवं मनुष्यता के व्यापक हितों को ध्यान में रखकर करें।
गाँधी कहते हैं, ‘‘मैं यह नहीं मानता कि या तो भारत ऊपर-ऊपर से यूरोपियन रहन-सहन स्वीकार कर ले या उसे प्राचीन आर्य-परंपरा पर ही लौटने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है। यदि यह इष्ट हो, तो भी प्राचीन परंपरा पर पूरे तौर से ठीक-ठाक लौट पाना असंभव है। पहले तो यही कोई निश्चित और प्रामणिक रूप से नहीं जानता कि आर्य-परंपरा क्या थी अथवा क्या है? स्वर्ण-युग का समय ठीक-ठीक निश्चित करना और उसक ठीक-ठीक वर्णन करना अत्यंत कठिन है। मुझे यह मानने की नम्रता है कि पश्चिम से भी बहुत-सी लाभदायक बातें सीख सकते हैं। मैं तो इस आधार पर पश्चिमी सभ्यता का विरोध करता हूँ कि उसकी नकल बिना विचारे की जाती है और वह इस बात से कि एशियाइयों को केवल पश्चिम की नकल उतारने भर के लिए ही योग्य माना जाता है। मैं विश्वास करता हूँ कि यदि भारत को कष्ट की आग में तपना और उसकी सभ्यता पर, जो अपूर्ण ही सही, पर अब समय की चोटें सहती आई है, आक्रमणों का विरोध करने की शक्ति हो, तो वह संसार की शांति और ठोस उन्नति में स्थायी मदद दे सकता है।“21
वर्तमान संदर्भ: भारतीय सभ्यता ‘वसुधैव, कुुसु…’ के आदर्शों पर आधारित है। हमारे प्र… सभी विचारक इसका समर्थन करते हैं। गाँधी पूरी दुनिया का एकीकरण चाहते थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहा है, ”अगर दुनिया को एक नहीं होना है, तो मैं इसमें रहना नहीं चाहूँगा। मैं निश्चित रूप से यह चाहता हूँ कि यह सपना मेरे जीवनकाल में ही सच हो जाए।“22 लेकिन, आज का भूमंडलीकरण गाँधी के सपनों के प्रतिकूल है। इसमें दुनिया के एकीकरण का अर्थ हैऋ दुनिया का पश्चिमीकरण (या अमेरिकीकरण)। आज भूमंडलीकरण के इस दौर में पूरा भारत पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में लगा है।23 हमारी आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीतियों एवं व्यवहारों पर पश्चिम का दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।24 आजाद भारत ने गाँधी की मूल भावानाओं को नहीं अपनाया है। इसी का दुष्परिणाम है कि आज देश में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, विषमता, हिंसा एवं भ्रष्टाचार चरम पर है। हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता एवं राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी आंतरिक एवं बाह्य दोनों तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने आर्थिक ग्रोथ के नाम पर कई देशों के मूल निवासियों को बेरहमी से कुचला और उनकी सभ्यता-संस्कृति, व्यवस्था एवं आस्था के साथ भी खिलवाड़ किया है। अमेरिका या अफ्रीका के मूल निवासी हों या भारत के आदिवासी सबों को एक साजिश के तहत हाशिए पर ढकेला गया है। उनके जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और खनिजों को लूटा गया है। उन्हंे एक ओर तो बर्बर, दानव, राक्षस, अछूत एवं असभ्य बताकर मुख्यधारा से अलग कर दिया गया, तो दूसरी ओर उन्हें गुलाम, दास एवं बंधुआ मजदूर बनाकर उनका शोषण हुआ। सामंतवाद-उपनिवेशवाद के दौर की ये ऐतिहासिक त्रासदियाँ आज नव-साम्राज्यवाद के इस दौर में भूमंडलीकरण, लोकतंत्रा एवं विश्वशांति के नाम से नए-नए रूपांे में प्रकट हो रही हैं। अमेरिका द्वारा इराक एवं अफगानिस्तान को नष्ट करना इसका ज्वलंत उदाहरण है।
आज भूमंडलीकरण के इस दौर में भारत की सच्ची सांस्कृतिक दृष्टि दब-सी गई है। इसी की बानगी है कि आज भी देश का एक वर्ग आत्महीनता का शिकार होकर ‘ब्रिटेरिका’ (ब्रिटेन-अमेरिका) के साम्राज्यवाद से ‘लाइट’ पा रहा है। यह वर्ग स्वतंत्राता-संग्राम में गाँधी सहित अन्य महापुरूषों के बलिदानों को बाइपास करते हुए आज साम्राज्यवादी शासन को ही अपने विकास एवं प्रगतिशीलता का कारक बता रहा है। यशदेव शल्य ठीक लिखते हैं, ‘‘आज हम होड़ लगाकर अमेरिका की आर्थिक और सांस्कृतिक गुलामी में जी रहे हैं। उन्हीं की अपसंस्कृति आज हमारा सांस्कृतिक आदर्श है, उन्हीं का सिक्का हमारी दरिद्रता की अधिकता या न्यूनता का मानदंड है, उन्हीं के भृकुटि-संकेत हमारी आन्तर-बाह्य राजनीति के निर्धारक हैं, और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वे ही आज हमें कान पकड़ कर मानवाधिकारों की रक्षा का पाठ पढ़ा रहें और तब ही हम समझते हैं कि हम स्वतंत्रा हैं।“25 यह सांस्कृतिक पराधीनता की पराकाष्ठा है।
निष्कर्ष: आजाद भारत ने गाँधी की मूल भावानाओं को नहीं अपनाया है। इसी का दुष्परिणाम है कि आज देश में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, विषमता, हिंसा एवं भ्रष्टाचार चरम पर है। हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता एवं राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी आंतरिक एवं बाह्य दोनों तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया के ऊपर छाए उक्त संकटों से हिन्दुस्तान और दुनिया के अन्य के मुल्क भी त्रास्त हैं।“26
कुल मिलाकर, आधुनिक सभ्यता ने मानव जीवन को जटिल बना दिया है। इसने मनुष्य की आसुरी वृत्तियों को मुखर और आसुरी शक्तियों को अत्यधिक प्रखर बना दिया है। यशदेव शल्य के शब्दों में, ‘‘अपराध रोकने की हमारी शक्ति बढ़ रही है, किंतु उसी अनुपात मंे अपराध करने की शक्ति भी बढ़ रही है। शायद यही रोगों के संबंध में भी सही है और यही निर्धनता के संबंध में सही है। संपन्नता और विपन्नता आवश्यकता की सापेक्ष भी होती है। जिसे दो धोतियों से अधिक कपड़े की आवश्यकता नहीं है, वह उस व्यक्ति से अधिक संपन्न है, जिसके पास 20 पोशाकें हैं और उसे अधिक की आवश्यकता है। यह दूसरा व्यक्ति विपन्न ही नहीं है, कहीं गहरे मंे अस्वस्थ भी है और आज हम यूरोप के नेतृत्व में इसी अस्वस्थकर विपन्नता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं।“27
गाँधी और हमारे अन्य स्वतंत्राता सेनानी भारत को अंग्रेजों की बाह्य गुलामी के साथ-साथ अंग्रेजीयत की आंतरिक गुलामी से भी मुक्त करना चाहते थे। उनके लिए अंग्रेजों की बाह्य गुलामी से मुक्ति देश की राजनैतिक एवं आर्थिक स्वतंत्राता के लिए आवश्यक था और अंग्रेजियत की आंतरिक गुलामी से मुक्ति सांस्कृतिक एवं बौद्धिक स्वराज की अनिवार्ययता थी। सच कहें तो उनके लिए अंग्रेजोें की प्रत्यक्ष उपस्थिति साम्राज्यवाद का मुख्य पहलू नहीं था, वे तो सांस्कृतिक एवं बौद्धिक गुलामी को ज्यादा खतरनाक मानते थे। वे हिंदुस्तान को हिंदुस्तान बनाना चाहते थे, इंग्लैंड या अमेरिका नहीं; क्योंकि भारत को अमेरिका या इंग्लैंड बनने के लिए दुनिया में कुछ अन्य जातियों और स्थानों को ढँूढना होगा, ताकि उनका शोषण किया जा सके। वे लोग शोषण एवं अनौतिकता के रास्ते पर चलकर भारत की तथाकथित आर्थिक उन्नति के पक्षधर नहीं थे। इसके विपरीत वे चाहते थे कि भारत स्वेच्छा से सादगी को अपनाए और दुनिया के सामने सतत् विकास एवं स्थायी शांति का आदर्श प्रस्तुत करें; लेकिन स्वतंत्रा भारत की सरकारों ने स्वतंत्राता सेनानियों के मूल्यों की अनदेखी की।
भारत आज पूरी तरह आधुनिक साम्राज्यवादी सभ्यता के चंगुल में फँस गया है। राष्ट्रीय, क्षेत्राीय एवं अंतरराष्ट्रीय हर मंच पर भारत की आवाज आज साम्राज्यवादी ताकतों के साथ है। आज का भारत पहले से ज्यादा पराबलंबी, आत्महीन एवं अस्थिर लग रहा है और यह आधुनिक सभ्यता के सभी संकट (आतंकवाद, आर्थिक मंदी, पर्यावरण-असंतुलन आदि) का कर्ता एवं भोक्ता बना हुआ है।
संदर्भ
1. मिश्रा, अनिल दत्त; ‘हिंद स्वराज्य: विषय और संदर्भ’, गाँधी एक अध्ययन, संपादक- सुरजीत कौर जौली, कन्सैप्ट पब्लिशिंग कंपनी, नई दिल्ली, 2007, पृ. 52.
2. गाँधी; हिंद स्वराज्य, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नानावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वारणसी (उत्तर प्रदेश), आठवाँ संस्करण-2009, पृ. 55.
3. गाँधी; संपूर्ण गाँधी वाङ्मय, खंड: 10, पृ. 298-99.
4. गाँधी; नवजीवन, 29 दिसंबर, 1920.
5. गाँधी; यरवदा जेल, 26 अगस्त, 1930.
6. गाँधी; हिंद स्वराज्य, पूर्वोक्त, पृ. 54.
7. वही, पृ. 55.
8. वही, पृ. 57.
9. गाँधी; संपूर्ण गाँधी वांङ्मय, खंड: 10, पृ. 298-99.
10. गाँधी; हिंद स्वराज्य, पूर्वोक्त, पृ. 38.
11. गाँधी; संपूर्ण गाँधी वांङ्मय, खंड: 23, पृ. 211.
12. वही, खंड: 23, पृ. 211.
13. गाँधी; इंडियन ओपिनियन, 2 जुलाई, 1910.
14. गाँधी; हिंद स्वराज्य, पूर्वोक्त, पृ. 38-39.
15. गाँधी; नवजीवन, 29 दिसंबर, 1920.
16. गाँधी; इंडियन ओपिनियन, 29 अप्रैल, 1914.
20. गाँधी; इंडियन ओपिनियन, 6 जून, 1908.
21. गाँधी; यंग इंडिया, 26 दिसंबर, 1924.
22. गाँधी; हरिजन, 20 अप्रैल, 1947, पृ. 109.
23. शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, पूर्वाेक्त, पृ.36.
24. शेखर, सुधांशु; ‘आधुनिक सभ्यता की गाँधीय पर्यालोचना: एक विमर्श’, प्रज्ञा के आयाम ख्प्रो. (डाॅ.) सोहनराज तातेड़ अभिनंदन ग्रंथ,, संपादक: विजय कुमार, दिलीप चरण एवं किस्मत कुमार सिंह, अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत एवं राजस्थानी गं्रथागार, जोधपुर (राजस्थान), 2013, पृ. 480.
25. शल्य, यशदेव, समसामयिक चिंताएँ, राका प्रकाशन, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), पृ. 240.
26. वही.
ख्सुप्रसिद्ध दार्शनिक यशदेव शल्य के अनुसार, ‘‘पाश्चात्य यंत्रावाद, दानववाद और शिश्नवाद भारत में ही नहीं पनप रहा है, बल्कि विश्व भर में छा रहा है। वास्तव में, स्वयं यूरोप भी अपने को इस बदहवास दौड़ में सम्मिलित पा रहा है और अमेरिका के सामने घुटने टेक चुका है। रूस में माक्र्सवाद के हटते ही वहाँ के लोगों ने तथाकथित स्वतंत्राता की सांस अमेरिकी पत्रिकाओं के नंगे-चिकने चित्रों की भीड़ में ली है। यही चीन में हो रहा है और जापान में हो चुका है। आज यह अमेरिकी शिश्नवाद-उपभोक्तावाद अमेरिकी प्रभाव में रैशनलिज्म (युक्ति युक्ततावाद) का पर्याय बन रहा है और इसका उत्तर मुस्लिम धर्मांधता प्रस्तुत कर रही है। यह संसार भर के लिए दुर्भाय की बात है। इसका सही उत्तर रूस, जापान या दूसरे किसी देश के पास था भी नहीं, केवल भारत के पास ही था, और एक सीमा तक चीन के पास भी हो सकता था। किंतु चीन में इसके कोई संकेत नहीं उभरे, बल्कि उसकी सैन्यवादी प्रवृत्तियों ने साम्यवाद से समझौता करके किसी उत्तर की सभी आशाएँ समाप्त कर दीं। भारत ने इस कलयुगीनता का स्पष्टतम उत्तर गाँधीवाद के रूप में प्रस्तुत किया था और रामकृष्ण परमंहस, स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविन्द और अन्य मनीषियों के माध्यम से अपनी सनातन दृष्टि का नवसर्जित रूप निखारा था। किंतु स्वतंत्राता के बाद हम क्रमशः उस दृष्टि को भुला रहे हैं। अब तो लगता है कि हम उसका शव-दाह भी कर चुके हैं।,
27. वही, पृ. 242.

14. वर्ण-व्यवस्था और मानवाधिकार
प्राचीन भारत में मानवाधिकार का सिद्धांत सर्वप्रथम चातुर्वण्र्य-व्यवस्था के साथ जुड़ा है। यह समाज की वैदिक धारणा थी, जिसके अनुसार समाज को चार वर्णों, यथाऋ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित किया गया और इस विभाजन को मानव स्वभाव में अंतर्निहित माना गया। संाख्य दर्शन ने मानव स्वरूप को त्रिगुणऋ सत, रज तथा तम की अभिव्यक्ति मानते हुए बतलाया कि इन्हीं गुणों के अनुरूप मनुष्य के कार्य संपन्न होते हैं। इस व्यवस्था के तहत प्रत्येक व्यक्ति को उसके गुण कर्मानुसार जीवन यापन की सुविधा प्रदान की गई। इसमें प्रत्येक वर्ण के सदस्यों के भिन्न-भिन्न कत्र्तव्य निर्धारित किए गए और कहा गया कि सभी अपने-अपने कर्तव्यों का दृढ़तापूर्वक पालन करे। इस तरह भिन्न-भिन्न कर्तव्य विभाजन को न्याय तथा मानवाधिकार की धारणा के साथ जोड़ा गया। इस अर्थ में मानवाधिकार वर्णाधारित कर्तव्यों के पालन में निहित हो गया। ‘मनुस्मृति’ तथा ‘भागवद्गीता’ जैसे ग्रंथों के द्वारा इस व्यवस्था को दैवीय, अपरिवत्र्तनशील और सर्वश्रेष्ठ बताया गया। ऐसी धारणा बनाई गई कि वर्णाधारित धर्म या कर्तव्य ही सर्वोत्तम हैं और इसका निष्ठापूर्वक पालन करके ही मनुष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-व्यवस्था के अनुसार जिनमें सतो गुण की प्रधानता हो वे ब्राह्मण हैं। वेदाध्ययन, वेदाध्यापन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना इनके कर्तव्य हैं। जिनमें सतो मिश्रित रजो गुुण की प्रधानता हो, वे क्षत्रिय हैं। प्रजा की रक्षा करना, ब्राह्मणों को दान देना, यज्ञ करना, वेदादि का अध्ययन और भोगासक्त नहीं होना इनके कर्तव्य हंै। जिनमें तमो मिश्रित रजो गुण की प्रधानता हो, वे वैश्य हैं। पशुपालन, दान देना, यज्ञ करना, वेदादि पढ़ना, कृषि और व्यापार करना इनके कार्य हैं। जिनमें तमो गुण की प्रधानता हो वे शूद्र हैं। अपने से श्रेष्ठ तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) की सेवा करना इनका एक मात्रा कर्तव्य है।
इस तरह वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को विशेषाधिकार प्राप्त थे और वैश्य लाभ की स्थिति में थे। लेकिन शूद्रों का शोषण एवं दमन होता था। कालक्रम में यह व्यवस्था गुण व कर्म की बजाय जन्म एवं जाति पर आधारित हो गई। इसके प्रमुुख कारण थेऋ समवर्गी विवाह, माता-पिता के वर्ण के आधार पर नवजात शिशु का वर्ण निर्धारण, माता-पिता द्वारा किए जाने वाले कार्यों को ही उनकी संतान द्वारा किया जाना और खान-पान संबंधी अंतर्वर्णीय विधि-निषेध आदि।
कुल मिलाकर, वर्ण-व्यवस्था मानवाधिकार के बिल्कुल प्रतिकूल है। उनके अनुसार इस व्यवस्था में समता का स्पष्ट निषेध है और यह एक षड़यंत्रा है। इस व्यवस्था कि अलोचना करते हुए डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने लिखा है, ”जिस धर्म में एक वर्ण विद्याध्ययन करे, दूसरा शस्त्रा धारण करे, तीसरा व्यापार करे और चैथा सिर्फ सेवा करे ऐसा कहा गया है, वह धर्म मुझे स्वीकार नहीं है। जो एक को विज्ञ बनाए रखने के लिए दूसरे को अज्ञ बनाए रखता है, वह धर्म नहीं है, बल्कि लोगों को बौद्धिक गुुलामी में रखने का षड़यंत्रा है। जो धर्म एक के हाथ में शस्त्रा देकर दूसरे को निःशस्त्रा करता है, वह धर्म नहीं है, बल्कि एक के द्वारा दूसरे को पराधीनता में रखने की चालाकी है। जो धर्म कुछ लोगों को धन-सम्पत्ति रखने का अधिकार देता है और शेष लोगों को जीवन निर्वाह के लिए अन्यों पर आश्रित रहने के लिए कहता है, वह धर्म नहीं, बल्कि स्वार्थ परायणता है। हिन्दू धर्म का चातुुर्वण्र्य ऐसा है।“1 उनके अनुसार, ”प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक-सामंजस्य एवं एकता का इच्छुक है, लेकिन ऐसा स्थायी सामाजिक संबंधों के आधार पर होना मुश्किल है। स्थायी संबंध आवश्यक परिवर्तन का विरोध करता है। ऐसी स्थिति में एकता का होना असंभव है। इसी प्रकार सामाजिक दृढ़ता भी आवश्यक है, किन्तुु उस दृढ़ता में कुछ ही वर्गों का लाभ नहीं होना चाहिए। सुदृढ़ समाज संगठन हर समय आवश्यक है, लेकिन ऐसा सामाजिक न्याय की कीमत पर नहीं होना चाहिए। वर्ण-व्यवस्था की सुदृढ़ता एवं एकता इन सब बातों का उल्लंघन करती है। उसमें सामाजिक न्याय तथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं है।“2
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार की तीन मुख्य कसौटियाँ हैंऋ स्वतंत्राता, सामानता एवं बंधुता। वर्ण-व्यवस्था इन तीनों कसौटियों पर खरी नहीं उतरती है। मसलन, स्वतंत्राता का तकाजा है कि किसी व्यक्ति पर अनावश्यक बंधन नहीं हो। जैसे डाॅ. अंबेडकर ने कहा है, ”समुदाय में स्वतंत्राता का अर्थ यह है कि कोई मनुष्य भय एवं भूख से पीड़ित न हो। उन पर किसी का अनावश्यक नियंत्राण न हो और वह शांतिपूर्वक न्यायोचित समाज व्यवस्था में रहता हो।“4 लेकिन वर्ण-व्यवस्था के विधानों में बहुसंख्य आबादी पर कई तरह के प्रतिबंध एवं निर्योग्यताएँ लादी गई हैं। इसमें विचार-अभिव्यक्ति, रोजगार-चयन, आस्था, विश्वास और उपासना की स्वतंत्राता नहीं है। इसमंे मनुष्य की छिपी प्रतिभाएँ जागृत नहीं हो पाती हंै और उसका समग्र व्यक्तित्व निर्मित एवं विकसित नहीं हो पाता है। यहाँ एक खास बात यह है कि इसमें प्रभु वर्ग को बहुजन समाज के शोषण करने की खुली छुट प्राप्त है। इस तरह यह मानवाधिकारों की उस मूल दृष्टि का प्रतिगामी है, जो बलवानों पर नियंत्राण एवं कमजोरों के संरक्षण पर बल देती है। जैसा कि प्रोफेसर पोलार्ड ने कहा है, ”दुर्बल व्यक्तियों की स्वतंत्राता बलवान या अमीर लोगों पर कुछ प्रतिबंध लगाने से ही संभव हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्राता ही मिलनी चाहिए, उससे अधिक कुछ और नहीं। उनको दूसरों के प्रति वही करना चाहिए, जो वे अपने लिए दूसरों से चाहते हैं। इस आपसी सहयोग एवं प्रेम से स्वतंत्राता, समता एवं नैतिकता सुदृढ़ हो सकती है।“5
हम जानते हैं कि मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति तीन बातों पर निर्भर होती हैऋ (क) वंश परंपरा, (ख) सामाजिक संगठन और (ग) व्यक्ति के स्वयं के प्रयत्न। इन सब बातों में मनुष्य निःसंदेह असमान होते हैं। लेकिन डाॅ. अंबेडकर कहते हैं, ”यदि ऐसा ही ठीक समझा जाए, तो जिन व्यक्तियों के पक्ष में जन्म, शिक्षा, धन, परिवार, नाम एवं व्यवसायिक संबंध हैं, वे ही लोग मानव दौड़ में प्रथम आएंगे, उन्हीं को सुअवसर प्राप्त होंगे, लेकिन इन आधार पर व्यक्तियों का निर्वाचन करना येाग्यता के अनुसार नहीं होगा। यह एक कृत्रिम निर्वाचन होगा, जो विशेष प्रतिष्ठा के आधार पर सम्पन्न किया जएगा। निर्वाचन हमेशा योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए। अन्यथा सामाजिक प्रजातंत्रा एवं मानवतावाद के प्रति घोर अन्याय होगा। अतः, यदि वैयक्तिगत प्रयत्नों में हम व्यक्ति को असमान समझें, तो कम-से-कम सामाजिक सुविधाओं के क्षेत्रा में उन्हें समान समझना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को आगे बढ़ाने का अवसर दिया जाना चाहिए। जहाँ तक संभव हो मनुष्य को एक-दूसरे के साथ समता का व्यवहार करना चाहिए।“6 लेकिन वर्ण-व्यवस्था के विधानों में समता का घोर निषेध है। उलटे यह उच्च वर्ण के लोगों को विशेष प्राथमिकताएँ देकर मानवाधिकारों का मखौल उड़ाती हैं। वास्तव में, किसी भी व्यक्ति को बिना विशेष परिस्थितियों के कोई भी सुविधा एवं प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए।7 इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि वे लोग जो बिना सुविधाओं के आगे नहीं बढ़ सकते हैं, उन्हें आवश्यक रूप से सुविधाएँ दी जानी चाहिए और ऐसा कार्य न्याय तथा निष्पक्षता से किया जाना चाहिए।8 पुुनः, एक आदर्श समाज में सब व्यक्तियों के विचार मूलतः भ्रातृत्व युक्त हों। उनमें यह चेतना हो कि सब एक हैं, आपस में सब भाई हैं। उनमें ऐच्छिक रूप से मिलने व उठने-बैठने की स्वतंत्राता हो। संक्षेप में, सब सदस्यों में सामाजिक समस्याओं को साथ-साथ मिलकर सुलझाने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।9 यह बात वर्ण-व्यवस्था में नहीं है। इसमें विभिन्न वर्णों के बीच बंधुता की कोई गुंजाइशा नहीं है। उलटे यह आपसी घृणा एवं शत्राुता को बढ़ावा देती है।
संक्षेप में, स्वतंत्राता, समानता एवं बंधुता रूपी ‘त्रायी-सिद्धांत’ मानवाधिकार का अनिवार्य तत्व है। इन तीनों में घनिष्ट संबंध है। इन्हें एक-दूसरे से पृथक् करना संभव नहीं है। यदि कोई व्यक्ति स्वतंत्रा है, तो वह समान रूप से अन्य लोगों को भी स्वतंत्रा समझेगा। इससे समता की भावना जागृत होगी और यही भावना बंधुता को अभिव्यक्ति देगी। एक की मान्यता तथा व्यवहार दूसरे पर आश्रित है।10 इनमें निहित आदर्श न केवल दलितों या फिर सभी भारतीयों अपितु संपूर्ण मानव प्राणियों के लिए हितकारी हैं।
निष्कर्ष: डाॅ. अंबेडकर ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध केवल इसलिए नहीं किया कि वे इससे पीड़ित थे, बल्कि इसलिए भी किया; क्योंकि उनकी दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था के प्रावधान मानवाधिकारों के खिलाफ हंै। उन्होंने साफ-साफ कहा है, ”चातुर्वण्र्य मेरे लिए घृणास्पद है और मेरा पूरा अस्तित्व इसके खिलाफ विद्रोह कर उठता है, लेकिन चातुर्वण्र्य के विरूद्ध मुझे भावनात्मक आधार पर आपत्ति नहीं है। … मैं आश्वस्त हो गया हूँ कि सामाजिक गठन की चातुर्वण्र्य पद्धति अव्यवहारिक, नुकसानदेह एवं चैपट साबित हुई है।“11 इसलिए, डाॅ. अंबेडकर ने जीवनभर वर्ण-व्यवस्था की मुखालफत की। उन्होंने स्वतंत्रा भारत के संविधान के माध्यम से वर्ण-व्यवस्थाजन्य असमानताआंे को मिटाने और मानवाधिकारों की रक्षा पर बल दिया। हमें संविधान की इस मूल भावना के अनुरूप व्यक्तिगत एवं सामाजिक चरित्रा विकसित करने की जरूरत है।

संदर्भ
1. डाॅ. जाटव, डी. आर.; डाॅ. अंबेडकर: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), द्वितीय संस्करण-1988, पृ. 204.
2. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; एनिहिलेशन आॅफ कास्ट, 1936 परिशिष्ट-2, पृ. 21.
3. अंबेडकर, डाॅ. बाबा साहेब; राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड: 3, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई (महाराष्ट्र), 1987, पृ. 25.
4. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; स्टेट्स एंड माइनाॅरिट्जि, 1947, पृ. 13.
5. पोलार्ड, ए. एफ.; द इवाॅल्यूशन आॅफ पार्लियामेंट, 1920, पृ. 183-184.
6. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; एनिहिलेशन आॅफ कास्ट, पूर्वोक्त, पृ. 39.
7. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; सोशल प्रिंसिपिल्स एंड द डिमाक्रेटिक स्टेट, पृ. 110.
8. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; व्हाॅट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू अण्टचेबिल्स, 1946, पृ. 137.
9. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; एनिहिलेशन आॅफ कास्ट, पूर्वोक्त, पृ. 38.
10. जाटव, डाॅ. डी. आर.; डाॅ. अंबेडकर का त्रायी सिद्धांत, समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), 1989, पृ. 16.
11. अंबेडकर, डाॅ. बी.आर; बाबा साहेब अंबेडकर पूर्ण वाङ्मय, वर्ष: 1, प्रधान संपादक- डाॅ. श्याम सिंह शशि, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1993, पृ. 81.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।