Aarakshan aur Manvadhikar आरक्षण और मानवाधिकार

16. आरक्षण और मानवाधिकार
भारत में आरक्षण का मामला सीधे-सीधे वर्ण-व्यवस्था1 से जुड़ा है, जो बहुसंख्यकों के मानवाधिकार-हनन की एक अनोखी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के तहत समाज को चार वर्णों, यथाऋ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में बाँटा गया और उनके लिए अलग-अलग कार्य आरक्षित किए गए।2 वर्ण-व्यवस्था के विधानों के अनुसार राज पुरोहित, राजगुरु, न्यायाधीश एवं मंत्रियों के पद ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थे।3 साथ ही शिक्षा पर उनका एक तरह से एकाधिकार था। इसी तरह क्षत्रियों के लिए ‘राजा’ का पद और सेना का क्षेत्रा आरक्षित था और वैश्यों को खेती, पशुपालन एवं व्यापार में आरक्षण दिए गए थे। वैसे, वर्ण-व्यवस्था द्वारा स्थापित आरक्षण-व्यवस्था अब प्रायः समाप्त हो गई है, मगर उससे ब्राह्मण, क्षत्राीय एवं वैश्य अभी भी फल-फूल रहे हैं। इसके विपरीत शूद्र आज भी इन विधानों से त्रास्त हैं। वर्ण-व्यवस्था के निर्माताओं ने उनके हिस्से बेकारी एवं बंधुआ मजदूरी दी थी। इतना ही नहीं उनकी योग्यताओं एवं क्षमताओं को कुंद करने के लिए उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध एवं निर्योग्यताएँ भी लागू कर दी थी। उदाहरण के लिए, उन्हें न तो शिक्षा का अधिकार था, न संपत्ति का और न ही अपनी आत्मरक्षा हेतु अस्त्रा-शस्त्रा रखने का। इससे शूद्र-अतिशूद्र जातियों की स्थिति बद से बद्तर हो गई।4
ऐसे में मानवाधिकारों से वंचित बहुजन समाज को विशेष सुविधाएँ प्राप्त करने का हक है, ताकि वे सदियों की दासता से मुक्त होकर समाज की मुख्यधारा में आएँ। इसलिए, स्वतंत्राता के पूर्व आरक्षण आंदोलन का समर्थन करते हुए डाॅ. अंबेडकर ने कहा, ”जब मेहनतकश जातियाँ आरक्षणों की माँग करती है, तो वह कोई नई बात या अजुबा नहीं है। यह कोई अनुचित माँग नहीं है और न ही यह पाप है। वास्तव में, यह माँग उन शासक जातियों और संप्रदायवादियों की ज्यादतियों से सुरक्षा की माँग है, जो मेहनतकश जातियों पर हर क्षेत्रा में प्रभुत्व जमाना चाहती है, इस माँग के साथ शासक जातियों पर कोई ऐसी घृणित शर्तें नहीं लगाई गई, जैसी कि ब्राह्मणों ने अपनी अभिवृद्धि और अपने वर्चस्व की रक्षा के लिए शूद्रों पर लगाई थीं।“5
दरअसल, डाॅ. अंबेडकर की आरक्षण-नीति का उद्देश्य किसी वर्ग विशेष को अनुचित लाभ पहुँचाना नहीं था। वे तो आरक्षण को सामाजिक समानता की प्राप्ति का एक साधन मानते थे, जो मानवाधिकार का एक प्रमुख आयाम है। उन्होंने कभी भी चिर स्थायी या अमानवीय आरक्षण (जैसा कि वर्ण-व्यवस्था में द्विजों को प्राप्त थे) का समर्थन नहीं किया। यहाँ उनका यह सवाल उल्लेखनीय है, ”क्या आपको लगता है कि हम संविधान द्वारा प्रदत्त सहूलियतों के लिए सदा-सदा के लिए अछूत बने रहें? हम मनुष्यत्व पाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या संविधान द्वारा दी गई विशेष सहूलियतों के लिए ब्राह्मण लोग अछूत बनेंगे?“6
डाॅ. अंबेडकर के उक्त सवाल में अछूतपन की असह्य वेदना छिपी है और शायद ही कोई किसी विशेष सहूलियतों के बदले उस ‘वेदना’ को स्वीकार करे, लेकिन आज स्थिति थोड़ी बदली है। अछूतपन का दंश कम हुआ है, यह एक सच्चाई है। साथ ही आज ‘दलित’ एवं ‘महादलित’ बनना ‘घुटन’ की बात नहीं, वरन् ‘सौभाग्य’ का मामला हो गया है। आज प्रायः सभी जातियाँ यह चाहती हैं कि उन्हें निम्नतम दरजा मिले, ताकि वे आरक्षण का अधिकतम लाभ ले सकें। कई सवर्ण जातियाँ ‘ओबीसी’, ओबीसी जातियाँ ‘इबीसी’, ईबीसी जातियाँ ‘दलित’ और दलित जातियाँ ‘महादलित’ ‘कटेगरी’ में शामिल होने के लिए आंदोलन कर रही हैं। दरसल, आज विभिन्न जातीय समूहों को आरक्षण की ‘मलाई’ का स्वाद पता चल गया है और वे इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। यह सब डाॅ. अंबेडकर के विचारों के बिल्कुल प्रतिकूल है।
भारतीय समाज एवं राजनीति में आरक्षण की पहेली को सुलझाना काफी कठिन है।7 इसके समर्थन एवं विरोध में कई तर्क दिए जाते हैं और मजा यह है कि प्रत्येक वर्ग अपने लिए आरक्षण लेते समय उसके पक्ष में तर्क ढूँढ़ लेता है और जब दूसरों की बारी आती है, तो उसके विपक्ष में तर्क प्रस्तुत करने लगता है। उदाहरणार्थ, आज सवर्णों द्वारा महिला-आरक्षण हेतु हाय-तौबा मचाई जा रही है; लेकिन जब पिछड़ों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया था, तो उसके विरोध में सवर्ण तबका आत्मदाह तक करने में लगा था। इसी तरह पिछड़ों को दलितों के लिए दी गई विशेष सुविधाएँ रास नहीं आतीं और दलित भी महादलितों का उत्थान होते नहीं देखना चाहते हैं। यह सब भारतीय समाज में ब्राह्मणवाद के गहरे जहर का दुष्परिणाम है।
जब कभी भी शोषितों एवं वंचितों के लिए आरक्षण की माँग उठती है, तो प्रभु वर्ग इसे राष्ट्रीय एकता के प्रतिकूल और योग्यता का अपमान करार देता है। यहाँ आरक्षण विरोधी तर्क देते हैं कि सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठतम व्यक्ति को ही स्थान मिलना चाहिए। डाॅ. अंबेडकर कहते हैं कि इस सिद्धांत पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि योग्यतम व्यक्ति का निर्वाचन हो। परंतु, ऐसा तर्क भारतीय इतिहास की घटनाओं पर दृष्टिपात करने से पूर्णतया निरर्थक सिद्ध होता है; क्योंकि भारतीय इतिहास के अनुसार, जो योग्यतम व्यक्ति चुना जाता था, वह शासक जातियों से ही संबंधित होता था।8 वास्तव में, उनकी सबसे बड़ी योग्यता यही होती थी कि वह आम जनता के शोषण एवं दमन में कितना सक्षम है।
अतः, शासक वर्ग से संबंधित श्रेष्ठ व्यक्ति मेहनतकश वर्गों के दृष्टिकोण से बहुत निकृष्ट होते थे। उसी तरह, आज भी योग्यता की कसौटी माता-पिता का स्टेटस, पूँजी एवं प्रभाव और अंग्रेजी एवं कम्प्यूटर का ज्ञान है, जिसमें मेहनतकश किसानों एवं मजदूरों के बच्चे तो ‘नर्सरी’ में ही ‘अयोग्य’ करार दिए जा रहे हैं। इसलिए, मानवाधिकार का तकाजा है कि सर्वप्रथम योग्यता की कसौटी को बदलकर जनपक्षीय बनाया जाए। यहाँ ‘योग्यता’-‘योग्यता’ चिल्लाने वाले लोगों की नीयत भी देखने की जरूरत है। क्योंकि, जो लोग ‘योग्यता’ की आड़ में वंचित वर्गों के आरक्षण का विरोध करते हैं, वही लोग ‘डोनेशन’ एवं ‘पैरवी’ के दम पर अपने लोगों को शिक्षा, रोजगार या अन्य सहूलियतें दिलाते अघाते नहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि उन्हें ‘योग्यता’ की चिंता नहीं है, बल्कि वंचितों का उत्थान देखकर उनके पेट में दर्द होता है। इसी तरह ‘समता’ के संदर्भों को भी समझा जाना चाहिए और वहाँ यह हमेशा याद रहे कि असमान लोगों के बीच समता का व्यवहार करना असमानता को बढ़ावा देना है। अतः, ‘योग्यता’, ‘क्षमता’ एवं ‘समता’ आदि को उसके सही अर्थ-संदर्भों में समझाने की जरूरत है। अच्छी सरकार या व्यवस्था के लिए योग्यता और क्षमता ही काफी नहीं है, आवश्यकता ऐसे शासक वर्ग की है, जिसमें जन-कल्याण की भावना हो। अन्यथा तथाकथित अच्छी सरकार मेहनतकश वर्ग के दमन का साधन बन जाती है; इसलिए राज्य के माध्यमों का चयन करते समय, माध्यमों में वर्गभेद के विचारों की अनदेखी नहीं की जा सकती। मेहनतकश जातियों के संरक्षण करने के बारे में केवल उस वर्ग से संबंधित लोगों पर ही भरोसा रखा जा सकता है। अतः, मेहनतकश जातियों को आरक्षण की माँग के पीछे आशय यह है कि शासक जातियों के अधिकारों पर अंकुश लगाया जाए, जिसके रहते वे सरकारी तंत्रा पर नियंत्राण कर लेते हैं। उनके अनुसार, ”शासक जातियों ने ये अधिकार इसी आरक्षण के बलबूते पर बटोरे हैं, जिसका आज वे विरोध कर रहे हैं। ब्राह्मणों ने राजसत्ता बौद्धिकता के बल पर अर्जित नहीं की हैऋ बौद्धिकता किसी की बपौती नहीं है, बल्कि मात्रा सांप्रदायिकता के नाम पर वे इस स्थिति में आए।“9
अंत में, समाजवादी विचारक किशन पटनायक के कथन उल्लेखनीय है, ”आरक्षण एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन चुका है। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे भारतीय समाज के स्वतः विकास में बाधक हैं। आरक्षण का चक्र तब पूरा होगा, जब इसकी जरूरत नहीं रहेगी, और इसको पूरा होने में विलंब नहीं होना चाहिए। … इस चक्र को पूरा करने के लिए, आरक्षण को तार्किक नतीजे तक ले जाने के लिए, आर्थिक नीतियों तथा शिक्षा-व्यवस्था में पूरे मूलभूत परिवर्तन होने चाहिए।“10 ‘आरक्षण’ एक ‘दुधारी’ औजार है।11 हमें इसका प्रयोग मानवाधिकारों की रक्षा के लिए करना है, मानवाधिकार हनन के लिए नहीं। इसका प्रयोग करते हुए हमें व्यक्तिगत एवं वर्गीय स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज के अंतिम व्यक्ति के हितों को ध्यान में रखना चाहिए।
संदर्भ
1. ऋग्वेद, साईं पाॅकेट बुक्स, दिल्ली, संस्करण-2004.
2. श्रीमद्भगवद्गीता, रामकृष्ण मठ, नागपुर (महाराष्ट्र), 1999.
3. मुनस्मृति, संपादक: प्रियदर्शी प्रकाश एवं राजीव तिवारी, टीकाकार: आचार्य रामानंद सरस्वती, मनोज पाॅकेट बुक्स, दिल्ली.
4. शेखर, सुधांशु; वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक न्याय: डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में, पी-एच. डी. शोध-प्रबंध (अप्रकाशित), मानविकी संकाय (दर्शनशास्त्रा विभाग), तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर (बिहार), 2011, पृ. 211.
5. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वांङ्मय, खंड: 17, संपादक: ओम प्रकाश कश्यप, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली, संस्करण- अगस्त 2000, पृ. 68.
6. चंद्र, सुभाष; अंबेडकर से दोस्ती: समता और मुक्ति, (संपादित) साहित्य उपक्रम, दिल्ली, पृ. 1.
7. शेखर, सुधांशु; वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक न्याय: डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में, पूर्वोक्त, पृ. 210.
8. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 17, पूर्वोक्त, पृ.70.
9. वही, पृ. 73.
10. पटनायक, किशन; भारत शूद्रों का होगा, समता प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृ. 12.
11. शेखर, सुधांशु; ‘शिक्षा और सामाजिक न्याय: संदर्भ डाॅ. अंबेडकर’, अनुप्रयुक्त दर्शन और नीतिशास्त्रा के आयाम, संपादक: अम्बिकादत्त शर्मा, कंचन सक्सेना, शैलेश कुमार सिंह एवं दिलीप चारण, अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत एवं न्यू भारतीय बुक काॅरपोरेशन, नई दिल्ली, 2013, पृ. 275.

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।