BNMU मेरे जीवन में ‘शतरंज’

मेरे जीवन में ‘शतरंज’
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11 जुलाई 2018 को बीएनएमयू, मधेपुरा के माननीय कुलपति प्रोफेसर डाॅ. अवध किशोर राय सर के साथ अंतर महाविद्यालय शतरंज प्रतियोगिता के समापन समारोह में शिरकत करने का अवसर मिला, तो शतरंज से जुड़ी कुछ यादें ताजा हो गयीं-

1. सर्वप्रथम यह बताना जरूरी है कि मैंने भी जीवन में खेल एवं व्यायाम आदि के महत्व के बारे में पढ़ा-सुना है। लेकिन मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि हमें खेलों एवं व्यायामों की बजाय उत्पादक श्रम में समय लगाना चाहिए। हम जितना पसीना खेल मैदान में या जिम आदि में बहाते हैं, उतना खेत-खलिहान या किचन अथवा लघु-कुटीर उद्योग में लगाएं, तो दुनिया बदल जाए।

2. मुझे खेलों में रूचि नहीं के बराबर है। मैं शुरू से ही क्रिकेट का विरोधी रहा हूँ। आज तक टेलीविजन पर एक भी क्रिकेट मैच नहीं देखा हूँ और न ही रेडियो पर किसी मैच की काॅमेंट्री सुना हूँ। मुझे लंदन के लाॅर्डस या कोलकाता के ईडेन गार्डन में कोई रूचि नहीं है और न ही किसी क्रिकेट खिलाड़ी में।

हाँ, थोड़ा फुटबाॅल के प्रति आकर्षण रहा है। यह भी इसलिए कि कहीं पढ़ा था कि स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि यदि तुम ‘गीता’ (दर्शन) को समझना चाहते हो, तो पहले फुटबॉल खेलो। लेकिन मुझे जल्द ही समझ में आ गया कि यह खेल मेरे जैसे ‘सुस्त’ लोगों के लिए नहीं है।

मेरे मामा जी अग्निदेव सिंह भी लाख प्रयास करके मुझे फुटबॉल नहीं सीखा सके। वे मुझे काफी जिद करके ‘फिल्ड’ पर ले जाते और मेरे सामने से फुटबॉल की गेंद मेरी ओर मारते थे। लेकिन मैं जहाँ का तहाँ खड़ा रह जाता था और गेंद में किक मारता ही नहीं था। सही ही कहा गया है कि आप घोड़े को जबरन नदी तक ला तो सकते हैं, लेकिन उसे उसकी इच्छा के बगैर पानी नहीं पिला सकते।

3. मेरे जीवन में शतरंज की काफी अहमियत रही है। यह एकमात्र खेल है, जिसे मैं पसंद किया करता था। इसे खेल की दुनिया में मेरा पहला और आखिरी प्यार कह सकते हैं।

4. मेरे नाना जी स्वतंत्रता सेनानी राम नारायण सिंह ने मुझे मात्र 8-9 वर्ष की उम्र में शतरंज खेलना सीखा दिया था। मैं प्रायः दिन में नाना जी के साथ शतरंज खेलता था। कुछ दिनों बाद मैं शतरंज के खेल में नाना जी को हराने लगा। जब पहली बार उन्हें हराया था, तो वे काफी खुश हुए थे। शायद उन्होंने कुछ हल्की चाल चलकर मुझे जीता दिया था।

लेकिन जब मैं उन्हें अक्सर हराने लगा, तो मुझे लगता था कि वे बिल्कुल प्रतिद्वंद्वी की तरह अपनी जीत के लिए जी-जान लगा रहे हैं। कई बार तो वे कहते थे कि फलाना मोहरा दिखाई ही नहीं दिया। कभी चाल वापस लेना चाहते थे। मैं भी अपनी ‘जीत’ के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता था। इस तरह हम दोनों में खूब ‘झगड़ा-झंझट’ होता था-‘जीत’ के लिए।

लेकिन जब से नाना जी का निधन हुआ, तब से मेरे मन में एक ही कसक है कि मैं कोई हल्की चाल चलकर नाना जी को जीता क्यों नहीं देता था ! आज मैं जीत कर भी हारा हुआ महसूस कर रहा हूँ। नाना जी हारकर भी जीत गये। शायद वे हमेशा मुझे जीताने का आनंद लेते रहे- एक महान गुरु की तरह !

बचपन में हमने “हार की जीत” कहानी पढी थी। सचमुच नाना जी हारकर भी जीत गये और मैं जीतकर भी हार गया। मैं आज तक “जीत की हार” महसूस कर रहा हूँ।

5. मैंने किसी शतरंज प्रतियोगिता में पहली बार अपने टी. एन. बी. काॅलेज, भागलपुर में स्नातक प्रतिष्ठा प्रथम वर्ष की पढ़ाई के दौरान भाग लिया। यह एक संयोग की बात थी। मैंने महाविद्यालय नोटिस बोर्ड पर लगी सूचना को देखकर ट्रायल में भाग लिया। मैंने अंतिम मैच को छोड़कर चार मैच जीता और दूसरे स्थान पर चयनित हुआ।

फिर हमारी टीम ने अंतर महाविद्यालय शतरंज प्रतियोगिता में भाग लिया। मैंने लगातार तीन बार अपनी टीम का प्रतिनिधित्व किया। तीनों बार हमारी टीम उप विजेता रही। लेकिन तीनों बार मैं विश्वविद्यालय टीम में चयनित होने से चूक गया।

6. हमारे समय में लगातार तीन अंतर महाविद्यालय शतरंज प्रतियोगिता क्र मश: टी. एन. बी. लाॅ काॅलेज, भागलपुर, केएसएस काॅलेज, लक्खीसराय और बी. एन. काॅलेज, भागलपुर में हुई थी। लाॅ काॅलेज में आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर डाॅ. रामाश्रय यादव ने किया था। वे समय के बड़े पाबंद दे। दस बजे का मतलब होता था, 9 बजकर 59 मिनट और 60 सेकेंड। उस दौर में मेरे जैसे विद्यार्थी उनको दीवानगी की हद तक चाहते थे। अन्य विद्यार्थियों की तरह मैंने भी एक बार उनसे ‘आॅटोग्राफ’ भी लिया था।

7. मैं एक अच्छा खिलाड़ी माना जाता था। लेकिन मुझे ऐन मौके पर जीती बाजी हारने की आदत हो गयी थी। अक्सर बिना अभ्यास के सीधे मैच में उतरे की आदत के कारण मुझसे चूक हो जाती थी और कभी-कभी ‘ओवर काॅन्फिडेंस’ में भी ‘गेम’ हाथ से निकल जाता था। किसी भी चीज को याद नहीं रखने की आदत के कारण मैं शतरंज की चाल को भी याद नहीं रखता था। जाहिर है कि मुझे हर बार नए सिरे से सोचना पड़ता था और इसमें भी छोटी-छोटी गलती हो जाती थी।

8. मैं तत्कालीन आईजी, भागलपुर अम्ब्रिक सिंह निम्ब्रान के प्रयासों से गठित भागलपुर जिला शतरंज संघ में भी कुछ दिनों तक सक्रिय रहा। मैंने एक बार संघ द्वारा आयोजित भागलपुर जिला शतरंज प्रतियोगिता में भाग लिया था और दूसरा स्थान प्राप्त किया था।

9. मैंने एक-दो बार सफाली युवा क्लब, भागलपुर द्वारा आयोजित शतरंज प्रतियोगिता में भाग लिया था। वहाँ पहली बार मैं सुप्रसिद्ध शतरंज खिलाड़ी जियाउद्दीन अहमद सर के साथ गया था। वहीं मेरी क्लब के अध्यक्ष और टी. एन. बी. काॅलेज में शिक्षक प्रोफेसर डाॅ. फारूक अली से मुलाकात हुई थी। बाद में मैंने दैनिक जागरण में जियाउद्दीन सर का ‘प्रोफाइल’ लिखा था।

10. मुझे गैरी कास्पोरोव (रूस) और विश्वनाथ आनंद (भारत) के बारे में अखबारों में पढ़ना अच्छा लगता था। शतरंज की सैद्धांतिक जानकारी के लिए मैंने ‘शतरंज कैसे खेलें’ (हिन्दी) और ‘हाउ टू प्ले चेस’ (अंग्रेजी) पुस्तक भी खरीदी थी। लेकिन इन किताबों का गहन अध्ययन नहीं किया। बाद में मैंने शतरंज खेलना बंद कर दिया और शतरंज बोर्ड, मोहरे और किताबें सभी डब्बे में बंद हो गयीं। अब शौक से भी शतरंज खेलने की इच्छा नहीं होती है।

11. अंत में एक खास बात यह भी है कि मैंने कभी भी एक क्षेत्र में अपने आपको केन्द्रित नहीं किया। इसके कारण मैं हर जगह ‘सेकेंड मेन’ बनकर रह गया। इसी की बानगी है कि मैट्रिक एवं इंटर दोनों में ‘सेकेंड डिविजन’। स्नातक प्रतिष्ठा में अपने काॅलेज का ‘सेकेंड टाॅपर’ और स्नातकोत्तर में विश्वविद्यालय का ‘सेकेंड टाॅपर’। मुझे ‘डिबेट’ (वाद-विवाद) एवं ‘एल्यूकेशन’ (स्वतः स्फूर्त भाषण) में भी कई बार ‘सेकेंड प्राइज’ मिला।

एक बार मैं ‘एल्यूकेशन’ में अपने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पर आया, तो मुझे नार्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (नेहू), सिलांग में आयोजित पूर्वी क्षेत्र अंतर विश्वविद्यालय युवा महोत्सव में भाग लेने का अवसर मिला। लेकिन फिर वहाँ (सिलांग में) भी मैं प्रथम आने से चूक गया। मुझे वहाँ ‘एल्यूकेशन’ में ‘सेकेंड पोजिशन’ आ गया। (पुरस्कार वितरण के बाद एक निर्णायक ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा कि जूता नहीं पहनने के कारण मेरे अंक कट गये। दरअसल मेरे पास जूता था ही नहीं। मैंने फ्लाइट कंपनी का ब्लू कलर का हवाई चप्पल पहनकर भाषण दिया था।)

इस तरह शतरंज के खेल के साथ-साथ जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी मैं अक्सर ‘सेकेंड’ आता रहा हूँ। ‘सेकेंड’ के अपने सुख-दुःख हैं। इसकी चर्चा फिर कभी…
-सुधांशु शेखर