Philosophy पुण्यतिथि पर विशेष : प्रोफेसर डॉ. प्रभु नारायण मंडल

पुण्यतिथि पर विशेष : प्रोफेसर डॉ. प्रभु नारायण मंडल

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प्रोफेसर डॉ. प्रभु नारायण मंडल (प्रभु बाबू) (1 जनवरी 1948-28 अप्रैल 2021)

का जन्म मधेपुरा (बिहार) के आलमनगर थाना अंतर्गत कपसिया-परेल गाँव में एक जनवरी 1948 को हुआ था। उन्होंने तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर (बिहार) के प्रतिष्ठत टी. एन. बी महाविद्यालय, भागलपुर से इंटरमीडिएट एवं स्नातक प्रतिष्ठा (दर्शनशास्त्र) और विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र विभाग से स्नातकोत्तर एवं पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की थी।

प्रभु बाबू ने 10 दिसंबर, 1970 को विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र विभाग, तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर (बिहार) में पूर्णतः अस्थाई व्याख्याता के रूप में अपनी अध्यापकीय यात्रा की शुरुआत की और जीवन की आखिरी सांस तक उन्होंने अध्ययन-अध्यापन से अपना नाता जोड़े रखा। इस बीच उनका अधिकांश समय इस विभाग (‘दर्शन परिवार’), जिसे वे अपना ‘मंदिर’ कहते थे और इसके तत्कालीन विभागाध्यक्ष (मुखिया) सुप्रसिद्ध दार्शनिक प्रोफेसर नित्यानंद मिश्र, जिन्हें वे अपना ‘देवता’ मानते थे की सेवा में बीता। इन पंक्तियों का लेखक, जो उनका शिष्य है, से वे हमेशा अपने ‘दर्शन परिवार’ के स्वर्णिम अतीत एवं अपने गुरु के ज्ञान एवं चरित्र की चर्चा करते अघाते नहीं थे।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रभु बाबू स्थायी तौर पर सर्वप्रथम गया कॉलेज, गया में नियुक्त हुए थे। लेकिन कुछ ही दिनों बाद अपने गुरू नित्यानंद मिश्र के सानिध्य के लोभ में वे गया से वापस तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर की सेवा में आ गए और फिर यहीं रचबस गए।

 

प्रभु बाबू लंबे समय तक तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर में

दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष (छः वर्ष), गाँधी विचार विभागाध्यक्ष (दो वर्ष) एवं मानविकी संकायाध्यक्ष (दो वर्ष) और विभिन्न समितियों एवं निकायों के सदस्य के रूप में विभिन्न प्रशासनिक एवं कार्यालयी कार्यों में निमग्न रहे। लेकिन इन व्यस्तताओं के बाबजूद उन्होंने कभी भी वर्गाध्यापन से कोई समझौता नहीं किया।

 

प्रभु बाबू का नाम दर्शन परिषद्, बिहार को गति देने वाले महानुभावों में अग्रगण्य है। वे वर्ष 2005 से लेकर अपने महापरिनिर्वाण (28 अप्रैल, 2021) तक लगभग 16 वर्ष ‘परिषद् से गहरे संबद्ध एवं आबद्ध रहे और विपरीत-से-विपरीत परिस्थितयों मे भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को डिगने नहीं दिया।

 

दरअसल लंबे अंतराल (लगभग दो दशक) के बाद 5-6 दिसंबर, 2005 को ए. पी. सिंह मेमोरियल कॉलेज, बरौनी में बिहार दर्शन परिषद् का 31वाँ अधिवेशन संपन्न हुआ, जिसमें प्रभु बाबू ने धर्म-दर्शन विभाग के अध्यक्ष के रूप में भाग लिया और यहीं से उनका परिषद् के प्रति एक अतिरिक्त लगाव हुआ। आगे यह लगाव दिनोंदिन गहरता गया और हर एक अधिवेशन के साथ उसमें कुछ-न-कुछ नया आयाम जुड़ता चला गया।

 

आगले वर्ष 2006 में सुंदरवती महिला महाविद्यालय, भागलपुर में संपन्न हुए 32वें अधिवेशन में बिहार दर्शन परिषद् की कार्यकारिणी का विधिवत चुनाव हुआ, जिसमें प्रभु बाबू को सर्वसम्मति से परिषद् का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया और उन्हें ही कार्यकारिणी के गठन के लिए भी अधिकृति प्रदान की गई। इसी अधिवेशन में परिषद के नए संविधान का अनुमोदन किया गया, जिसके प्रारूप को अंतिम रूप देने में भी प्रभु बाबू एवं उनके गुरू प्रोफेसर नित्यानंद मिश्र की महती भूमिका रही।

 

प्रभु बाबू के नेतृत्व में परिषद् के तीन वार्षिक अधिवेशन आयोजित हुए। किसान कॉलेज, सोहसराय (33वीं) और बी. डी. कॉलेज, पटना (34वाँ एवं 35वीं)। वर्ष 2012 में बी. डी. कॉलेज, पटना में आयोजित 35वें अधिवेशन के अवसर पर प्रोफेसर बी. एन. ओझा को प्रभु बाबू का उत्तराधिकारी चुना गया और प्रभु बाबू संरक्षक की भूमिका में आ गए।

 

प्रभु बाबू ने आगे भी क्रमशः सी. एम. कॉलेज, दरभंगा, मगध महिला कॉलेज, पटना, गंगा देवी महिला कॉलेज, पटना, के अधिवेशन में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे जी. डी. कॉलेज, बेगूसराय में आयोजित 39वें अधिवेशन में सामान्य अध्यक्ष रहे और 40वें (एल. एन. कॉलेज, भगवानपुर) एवं 41वें (जे. डी. वीमेंस कॉलेज, पटना) अधिवेशन में उन्होंने सिया देवी, माधवपुर (खगड़िया) व्याख्यान दिया था।

 

प्रभु बाबू ने 5-7 मार्च, 2021 तक अपने गृहजिला में अवस्थित भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में आयोजित दर्शन परिषद्, बिहार के 42वें अधिवेशन के आयोजन में महती भूमिका निभाई थी। उन्होंने अधिवेशन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के प्रधान संपादक की भूमिका निभाई थीं और इसकी चितंनधारा ‘शिक्षा, समाज एवं संस्कृति’ पर विशेष व्याख्यान भी दिया था। इसी अधिवेशन में ‘परिषद् ने उन्हें ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया था।

 

प्रभु बाबू दर्शन-जगत के उन गिने-चुने विशिष्ट विद्वानों में एक थे, जिनका भारतीय दर्शन के साथ-साथ पाश्चात्य दर्शन पर भी समान अधिकार था और जिनकी हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान गति थी। लेकिन दुख की;बात यह है कि आज हमें उनकी अथाह ज्ञान राशि में से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके कुछ शोध आलेख एवं उनके द्वारा संपादित्त एकमात्र पुस्तक दार्शनिक विमर्श: प्रोफेसर नित्यानंद मिश्र स्मृति ग्रंथ (2014) ही प्रत्यक्षतः उपलब्ध है और उनका शोध प्रबंध ‘दी राइज एंड फॉल ऑफ फेनोमेनलिज्म’ एवं एक आलेख संग्रह प्रकाशनाधीन है।

 

प्रभु बाबू के असमय निधन से पूरे शिक्षा जगत और विशेषकर ‘दर्शन परिवार को अपूर्णीय क्षति हुई है। हम उनकी विचार-परंपरा एवं चारित्रिक विरासत के आगे बढ़ाने में यथासंभव अपनी भूमिका निभाएँ-यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अंत में उनके एक प्रिय शिष्य की लिखी चंद पंक्तियाँ- “जहाँ पर नित्य होता आनंद / वहीं स्थित हैं जगतानंद / जहां बहती है पावन गंगाधार/वहीं स्थित हैं नाथ केदार / जहाँ व्याप्त सर्वोदयी राम/वहीं आए हैं प्रभु महान।” ओउम् शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

-डॉ. सुधांशु शेखर, टी. पी. कॉलेज, मधेपुरा (बिहार)[साभार : दार्शनिक अनुगूंज, वर्ष 15, अंक 1-2, संयुक्तांक, 2021]