Srijan-Samvad हिंदी काव्यलोचन क व्यावहारिक संदर्भ’ पुस्तक की भूमिका।

हिंदी काव्यलोचन क व्यावहारिक संदर्भ’ पुस्तक की भूमिका

 

प्रस्तुत पुस्तक के अधिकतर आलेख गत दस-बारह वर्षों की कालावधि में विभिन्न शोध-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में प्रकाशनार्थ लिखे गये हैं। कुल बाईस आलेखों में मात्र दो – ‘मात्रिक छन्द तथा हिन्दी काव्य’ एवं ‘रहीम के काव्य-वाङ्मय में लोकतत्त्व’ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। प्रायः सारे आलेख अनुप्रयुक्त, अर्थात् व्यावहारिक आलोचना के उदाहरण बन पड़े हैं। अलग-अलग संदर्भ में लिखित इन आलेखों का व्याप्ति-क्षेत्र छन्द से लेकर आलोचना तक है तो प्राचीन कवि स्वयंभू से लेकर आधुनिक कवि हीरा प्रसाद हरेन्द्र तक। इनमें से कुछ आलेख सम्मानित व पुरस्कृत भी हुए हैं। संकलन के प्रथम आलेख में मात्रिक छन्द के क्रमिक विकास के साथ-साथ उसके स्वरूप, महत्त्व तथा हिन्दी कवियों में लोकप्रियता के विविध कारणों पर विचार किया गया है।

दूसरी प्रस्तुति का नाम है ‘पाठकवादी आलोचना का निहितार्थ एवं विनियोग’ । भारत, विशेषतः हिन्दी ने पश्चिम की कई आलोचना-प्रणालियाँ मुक्तमन से स्वीकार की हैं; जैसे- मार्क्सवादी, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, अस्तित्ववादी, संरचनावादी, मिथकीय, शैलीवैज्ञानिक, सौन्दर्यशास्त्रीय, उत्तर-उपनिवेशवादी, स्त्रीवादी आलोचना इत्यादि । पाठकवादी आलोचना उन्हीं में से एक है। यह प्रणाली आलोचना के केन्द्र में न तो पाठ को रखती है और न ही लेखक को। यह पाठक को केन्द्र में रखकर चलती है। प्रस्तुत आलेख उसकी इसी भूमिका को सोदाहरण विवेचित करता है।

तृतीय आलेख अपभ्रंश के महाकाव्य-द्वय ‘पउमचरिउ’ तथा ‘रिट्ठणेमिचरिउ’ की स्त्रीवादी आलोचना करता है तो चतुर्थ आलेख भक्तिकालीन कवि रहीम के काव्य में यथावसर प्रयुक्त लोकतत्त्वों की। पंचम आलेख में माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य-वाङ्मय में विन्यस्त गाँधीय चेतना पर प्रकाश डाला गया है तो षष्ठ में छायावादी-चतुष्टय के काव्य में पदे-पदे प्रयुक्त विविधरूपीय अप्रस्तुतविधान पर।

पुस्तक का सप्तम आलेख प्रतिरोध की भारतीय परम्परा पर विहंगावलोकन करता हुआ जयशंकर प्रसाद की प्रतिरोधात्मक चेतना पर सम्यक् प्रकाश डालता है तो अष्टम आलेख उनके ही नहीं, बल्कि हिन्दी के प्रथम गीतिनाट्य/काव्य-नाटक ‘करुणालय’ को ऐतरेय ब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यानम् का पुनर्लेखन सिद्ध करता है। अगला आलेख प्रसाद की गीति-रचना ‘जाग री’ को सप्रमाण ‘शिशुपालवध’ तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर के दो गीतों से अनुप्रेरित सिद्ध करता है।

दशम आलेख निराला की महाकाव्यात्मक कृति ‘राम की शक्तिपूजा’ के नायक राम के विविध पर्याय-प्रयोगों का पर्यायविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करता है तो अगला आलेख निराला-साहित्य में आगत रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बहुविध प्रभाव का।

आगे क्रमशः ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी का कवि-कर्म’, ‘हरिवंश राय बच्चन और उनका मधुकाव्य’, ‘दिनकर-काव्य में इतिहास-बोध’, ‘नागार्जुन की संस्कृत तथा बंगला कविताएँ’, नेपाली की हिमालय-विषयक कविताएँ, फणीश्वरनाथ रेणु, विजेन्द्र नारायण सिंह, शिवकुमार शिव तथा हीराप्रसाद हरेन्द्र के अलक्षित व अनालोचित कवि-कर्म व्यावहारिक विमर्श के विषय बने हैं।

जहाँ तक हिन्दी की व्यावहारिक आलोचना का प्रश्न है, इसका श्रीगणेश भारतेन्दुयुगीन साहित्यकार लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की प्रेमघन द्वारा ‘आनन्द कादंबिनी’ (स्था. 1881) में लिखित आलोचना से होता है। अँगरेजी में इसके प्रवर्तक आई. ए. रिचर्ड्स माने जाते हैं। उनके अनुसार, व्यावहारिक आलोचना ‘कठोर अनुशासन’ का दूसरा नाम है। प्रो. रॉबर्ट ईगलस्टोन व्यावहारिक आलोचना को इन शब्दों में परिभाषित करते हैं- “Close reading which involves the intense scrutiny of a piece of prose or poetry concentrating on the words on the page….is called practical criticism.

प्रभाववादी और न्यायिक आलोचना व्यावहारिक आलोचना के ही उपभेद हैं। प्रस्तुत पुस्तक में संगृहीत अधिकांश आलेख प्रायः इसी प्रकृति के बन पड़े हैं। इनमें से कुछ शोधात्मक प्रकृति के हैं।

आशा है, यह पुस्तक जिज्ञासु व सुधी पाठकों को पसंद आएगी। इसी में मेरा तोष है।

-प्रो. बहादुर मिश्र, अध्यक्ष (सेवानिवृत्ति), विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर-812007 (बिहार), स्थायी पता- विक्रमशिला कॉलोनी, भागलपुर- 812002, मो. – 9934694386

नोट : नववर्ष (2024) के प्रथम सप्ताह में गुरुवर प्रोफेसर डॉ. बहादुर मिश्र की पुस्तक ‘हिंदी काव्यलोचना का व्यावहारिक पक्ष ‘हिंदी काव्यालोचन क व्यावहारिक संदर्भ’ के प्रकाशन की सूचना मिली है। इसके लिए गुरुवर को बहुत-बहुत बधाई। मुझे आशा ही नहीं, वरन् पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक हिन्दी भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान स्थापित करेगी और इसे पाठकों एवं समीक्षकों का भरपूर स्नेह मिलेगा।

-सुधांशु शेखर, संपादक