ICPR ‘पं. मधुसूदन ओझा का दार्शनिक अवदान’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ

भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा आयोजित ‘पं. मधुसूदन ओझा का दार्शनिक अवदान’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ दिनांक 4 जनवरी 2024 को प्रातः 11 बजे भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् के दर्शन भवन सभागार में हुआ। यह संगोष्ठी 4-6 जनवरी 2024 तक चलेगी

डॉ पूजा व्यास, निदेशक, भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् ने अपने स्वागत वक्तव्य से अभ्यागत अतिथियों का वाचिक स्वागत करते हुए इस संगोष्ठी के विषय की भूमिका को रेखांकित किया।

संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए संगोष्ठी के अकादमिक समन्वयक/संयोजक संस्कृत एवं प्राच्य विद्या अध्ययन संस्थान, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के आचार्य प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल ने बतलाया कि पं. मधुसूदन ओझा १९ वीं शताब्दी के वेदविद्या के प्रकाण्ड आचार्य थे जिन्होंने वेदविज्ञान को उद्घाटित करने के लिए २२८ ग्रन्थों का प्रणयन किया है। ओझाजी ने अपने विशाल साहित्य को ब्रह्मविज्ञान, यज्ञविज्ञान, इतिवृत्तविज्ञान, वेदांगसमीक्षा एवं आगमरहस्य नामक पाँच भागों में विभाजित किया है। प्रो. शुक्ल ने ओझाजी के ग्रन्थों का संक्षेप में विवेचन कर उनकी वेदार्थ पद्धति को रेखांकित करते हुए कहा कि भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् द्वारा समायोजित यह संगोष्ठी ओझाजी के दार्शनिक अवदान को मुख्य धारा में लाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का कार्य करेगी। उन्होंने बताया कि इस त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में विविध विश्वविद्यालयों से उपस्थित आचार्यगण पं. मधुसूदन ओझाजी के विविध ग्रन्थों पर मन्थन करते हुए उनके दार्शनिक अवदान पर गहन विमर्श प्रस्तुत करेंगे।

मुख्य अतिथि वक्ता के रूप में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने पं. मधुसूदन ओझा के द्वारा प्रणीत दशवादरहस्य नामक ग्रन्थ में वर्णित वैदिक सृष्टि विषयक सदसद्वाद, रजोवाद, व्योमवाद, अपरवाद, आवरणवाद, अम्भोवाद, अमृतमृत्युवाद, अहोरात्रवाद, दैववाद एवं संशयवाद नामक दशवादों पर प्रकाश डालते हुए ओझाजी के दार्शनिक अवदान पर विस्तृत व्याख्यान किया।

 

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् के माननीय सदस्य-सचिव प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि ओझाजी को पूर्व पठित सिद्धान्त के अनुरूप देखना सर्वथा अनुचित है। उन्होंने नवीनता पूर्वक प्राचीन शास्त्रों के आधार पर अभिनव व्याख्या प्रस्तुत की है। उनके विशाल वाङ्मय का यथार्थ ज्ञान गुरुमुख द्वारा अध्ययन से ही हो सकता है। क्योंकि उनके ग्रन्थों का विषय अत्यन्त दुरूह है।

 

डॉ. संजय सिंह, कार्यक्रम अधिकारी, भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् ने सत्र का संचालन एवं डॉ. जय शंकर सिंह, वरिष्ठ सलाहकार, भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।

इस अवसर पर राजस्थान से आये हुए प्रो. सरोज कौशल, डॉ. दीपमाला, हिमाचल प्रदेश से डॉ. कुलदीप कुमार, उत्तराखण्ड से डॉ. शैलेश तिवारी, वाराणसी से डॉ. सत्येन्द्र कुमार यादव, डॉ. राजकिशोर आर्य, मेरठ से डॉ. अरविन्द कुमार, दिल्ली से प्रो. गिरीश चन्द्र पन्त, प्रो. महानन्द झा, प्रो. रामसलाही द्विवेदी, प्रो. जयप्रकाश नारायण, प्रो. हरीश, डॉ. धनञ्जयमणि त्रिपाठी, डॉ. शशी शर्मा, डॉ. विजय गुप्ता, डॉ. माधव गोपाल, डॉ. लक्ष्मीकान्त विमल, डॉ. मणि शंकर द्विवेदी एवं डॉ. विष्णु शंकर महापात्र आदि विद्वानों की उपस्थिति रही।