Bhumandalikaran aur Stri-Mukti भूमंडलीकरण और स्त्री-मुक्ति

6. भूमंडलीकरण और स्त्री-मुक्ति

भूमंडलीकरण के पैरोकारों ने स्त्राी-मुक्ति को देह-मुक्ति तक सीमित कर दिया है। इस तरह उनके द्वारा मनाया जा रहा स्त्राी-मुक्ति-उत्सव महज छलावा भर है। वास्तव में, भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हितों का संरक्षण करती है और इसमें स्त्राी सहित किसी भी वंचित वर्ग के लिए केाई ‘पाॅजेटिव स्पेस’ नहीं है। इसके लिए दुनिया की सारी प्राकृतिक संपदाएँ, मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणि सभी महज एक ‘बिकाऊ माल’ है और जाहिर है कि स्त्राी की हैसियत भी उससे अधिक नहीं है। ऐसे में भूमंडलीकरण के सहारे स्त्राी-मुक्ति की बात कैसे हो सकती है? इसके पैरोकारों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रिायों की भागीदारी बढ़ने का प्रचार भी अतिश्योक्ति पूर्ण है। आज भी स्त्रिायों को समुचित रोजगार एवं स्वाभिमानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं मिल पाया है। खासकर भारत की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। आज भी लगभग आधी स्त्रिायाँ निरक्षर हैं। करोड़ों स्त्रिायाँ बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। वेश्यावृत्ति, दहेज प्रथा एवं कन्या-भ्रूण हत्या जैसी बुराईयाँ भी बदस्तूर जारी हैं। घर-परिवार से लेकर कार्यालय एवं स्कूल-काॅलेजों तक हर जगह स्त्रिायों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है और उनके यौन-उत्पीड़न का खतरा भी बना रहता है। संसद एवं विधानमंडलों में स्त्रिायों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का मामला आज भी खटाई में पड़ा है। वैसे आरक्षण के बिना भी कुछ चंद स्त्रिायों ने बड़े-बड़े पद अवश्य प्राप्त किए हैं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। साथ ही राजनीति, माॅडलिंग, विज्ञापन, मीडिया एवं फिल्म में स्त्रिायों को जिस कीमत पर कुछ ‘अवसर’ मिल रहा है, वह भी सभ्य समाज के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता।

अतः, भारतीय संदर्भ में स्त्राी-मुक्ति के लिए दो तलों पर कार्य करना होगा। एक, वैसी पुरानी पुरुषवादी परंपराओं, रूढ़ियों एवं मानसिकताओं से लड़ना होगा, जो स्त्रिायों को स्वतंत्राता, समानता एवं बंधुता के अधिकारों से वंचित करते हैं। इसके अंतर्गत अन्यायपूर्ण धार्मिक एवं सामाजिक विधानों को नकारना होगा और कई नए संवैधानिक प्रावधान करने होंगे। साथ ही स्त्रिायों को स्वयं अपनी शक्ति एवं चेतना को जगाना होगा। उसे तथाकथित परजीवता एवं हीनभावना को त्यागना होगा। उसे यह समझना होगा कि पुरुषों की बराबरी करने के लिए उसका पिछलग्गूपन छोड़ना आवश्यक है। उसे यह भी याद रखना होगा कि यदि वह अपनी देह को सीढ़ी बनाकर सफलता प्राप्त करना चाहेगी, तो वह कभी भी समाज में सम्मान नहीं प्राप्त कर पाएगी।

दूसरी, भूमंडलीकरण द्वारा ‘प्रायोजित-मुक्ति’ को नकारना होगा। क्योंकि, यह ‘मुक्ति’ गुलाम बनाए रखने की साजिशों का हिस्सा है। डाॅ. सरोज कुमार वर्मा के शब्दों में, ‘इसके (भूमंडलीकरण-प्रायोजित मुक्ति के) पीछे भी पुरूष की चालाकी और कुटिलता है। आज के अर्थयुग में अपने अधिकाधिक लाभ के लिए वह (पुरुष) स्त्राी का उपयेाग कर लेना चाहता है। इसके लिए स्त्राी का गुलाम रहना जरूरी है। इसलिए, वह (पुरूष) गुलामी के ज्यादा मोहक और नफीस तरीके निर्मित कर रहा है, जो पहले से ज्यादा ठोस और सख्त हैं।“1 विडंबना यह है कि आधुनिक स्त्रिायाँ भी गुलामी को ही अपनी मुक्ति का पर्याय मान रही हैं। वह बाजारू विज्ञापन के अनुरूप अपने बाह्य चेहरे को निखारने, अपने अंतर अंगों को सुधारने और कुल मिलाकर अपने फिगर को साइज में लाने के लिए तरह-तरह के उपक्रम करती है। इस तरह, स्त्राी की मुक्ति और अधिकारिता की लड़ाई को देह की नग्नता और उपभोग की स्वच्छंदता से मापा जा रहा है। यह सब स्त्राी-मुक्ति का भोंडा मजाक तो है ही, साथ ही मानवीय गरिमा के भी खिलाफ है। यह बाजारवादी अपसंस्कृति हमारे समाज एवं परिवार, रिश्तों एवं भावनाओं इत्यादि को भी नष्ट-भ्रष्ट करने पर तुली है। इसने स्त्राी को मन, बुद्धि एवं आत्मा से रहित एक देहमात्रा बना दिया है। इस तरह यह स्त्रिायों के खिलाफ एक खतरनाक पुरुषवादी ‘जाल’ है। इस ‘जाल’ में स्त्रिायों को स्वतः आकर फँसते हुए देखकर पुरुषों की बांछें खिल रही हैं। संगीता आनंद के शब्दों में, ”इसे देखकर मर्द लार टपकाते हुए खुश हो रहे हैं कि हमने इस मंदबुद्धि औरत को ‘आधुनिकता’ और ‘प्रगतिशीलता’ का कैसा अनोखा पाठ पढ़ाया है कि कल तक जिसे देखने के लिए हम ललायित रहते थे, उसे खुद औरत बड़े चाव से दिखा रही है।“2

जाहिर है कि भूमंडलीकरण-प्रायोजित स्त्राी-मुक्ति वरेण्य नहीं है। भला कुंवारी माँ बनने का अधिकार, विवाह करके भी माँ नहीं बनने की छूट, विवाहेतर यौन संबंधों की आजादी और समलैंगिकता की वैधता इत्यादि को पाकर भी स्त्रिायाँ या पूरे समाज को क्या मिल जाएगा? क्या यह सब रोटी, कपड़ा एवं मकान और शिक्षा, रोजगार एवं सम्मान इत्यादि अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं? चंद स्त्रिायों की पुरूषों जैसी हैसियत प्राप्त करना ही स्त्राी-मुक्ति नहीं है। स्त्राी-मुक्ति का अर्थ यह भी नहीं है कि स्त्राी वस्त्रों से मुक्त हो जाए। इसका लक्ष्य यह नहीं है कि स्त्राी पुरूषों जैसी हो जाए या पुरूषों में ‘कन्वर्ट’ हो जाए। दरअसल, स्त्राी की असली मुक्ति तो स्त्राी के ‘स्त्राी’ होने में है। उसका अपने निज होने में ही उसकी सारी सत्यता, सारी शिवता और सारी सुंदरता छीपी है। पुरूष जैसा होने की दौड़ या पुरूषों की नकल उसे दोयम दर्जे की स्थिति में लाकर और कमजोर, आत्महीन एवं गुलाम ही बनाएगी। अतः, स्त्राी-मुक्ति या स्त्राी-सशक्तिकरण का सही अर्थ पुरूषों से अलग होकर कोई स्वायत्त स्त्राी-समाज बना लेना नहीं है, बल्कि पुरूष के साथ-साथ रहते हुए उसका दृष्टिकोण बदलने और स्वयं अपने आपको आत्महीनता से मुक्त करने में है।

निष्कर्ष: स्त्राी-विमर्श समकालीन देश-दुनिया का एक प्रमुख एवं जरूरी विमर्श है। इसके साथ न केवल स्त्रिायों, वरन् संपूर्ण समाज के सर्वांगीण विकास और समग्र मुक्ति के सपने जुड़े हैं। अतः, स्त्राी-विमर्श को एक सम्यक् निष्कर्ष तक पहुँचाना और उसके आधार पर नए समाज का निर्माण करना हम सबों की साझी जिम्मेदारी है। इसी आलोक में हम यहाँ कुछ सुझाव रख रहे हैंऋ

पण् स्त्राी-मुक्ति का सवाल समाज-राष्ट्र की समग्र मुक्ति के सवाल से जुड़ा हुआ है। यदि पूरा समाज-राष्ट्र मुक्त नहीं होगा, तो स्त्रिायाँ कैसे मुक्त होंगी? इसलिए स्त्राी-मुक्ति के लिए काम करते हुए, कभी भी समाज-राष्ट्र की मुक्ति के व्यापक सवालों को ‘इग्नोर’ नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि विभिन्न समाज-राष्ट्र की स्त्रिायों की मुक्ति के सवाल भिन्न-भिन्न हैं। जाहिर है कि उनके जवाब भी भिन्न-भिन्न होंगे।

पपण् स्त्राी-मुक्ति अन्य पीड़ित वर्गों की मुक्ति से भी जुड़ा हुआ है। यदि स्त्राी-वर्ग

दलित, मजदूर, किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि अन्य वर्गों के संघर्षों का समर्थन

नहीं करेगा, तो उनका अपना संघर्ष भी प्रभावहीन ही रहेगा। इसलिए, सभी पीड़ित समूहों

को एक-दूसरे के मुक्ति-संघर्षों में भागीदारी करनी चाहिए और सभी शोषित-पीड़ित एवं

वंचित समूहों को एकजूट कर समाज-परिवर्तन का निर्णायक संघर्ष शुरू करना चाहिए।

पपपण् स्त्राी-मुक्ति का सवाल पुरुष के खिलाफ प्रतिक्रिया मात्रा नहीं है। इसमें अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के साथ-साथ न्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था के सृजन की बात भी जुड़ी हुई है। वास्तव में, यह नए समाज को रचने-गढ़ने की सतत् प्रक्रिया है। इसलिए, अगला कदम उठाते हुए अतीत की गलतियों में सुधार, वर्तमान परिस्थितियों का मूल्यांकन और भविष्य की कार्ययोजनाओं का निर्धारण आवश्यक है।

पअण् स्त्राी-विमर्श का लक्ष्य शोषण-विहीन समाज का निर्माण करना है और यही होना भी चाहिए। यह पुरुष वर्चस्व को मिटाने का आंदोलन है, उलटने का नहीं। अर्थात्, इसका लक्ष्य यह नहीं है कि सभी ‘पुरुष’ ‘स्त्राी’ बन जाएँ और सभी ‘स्त्राी’ ‘पुरुष’, वरन् यह तो चाहता है कि ‘मानव’ सिर्फ ‘मानव’ बने न ‘पुरुष’ बने, न ‘स्त्राी’।

अण् स्त्राी-विमर्श ब्राह्मणवाद का विरोधी है। यहाँ ब्राह्मणवाद का अर्थ स्वतंत्राता, समानता एवं बंधुता की भावना का निषेध है। इसलिए, जो कोई भी इन मूल्यों को नुकसान पहुँचाता हैऋ वह स्त्राी-विमर्श का दुश्मन है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्राी। जाहिर है कि ब्राह्मणवाद ग्रसित स्त्राी इस मुहिम का विरोधी हो जाती है, जबकि ब्राह्मणवादरहित पुरुष इसका हमराही।

अपण् स्त्राी-मुक्ति का ब्राह्मणवाद के साथ-साथ पूँजीवाद भी बड़ा दुश्मन है। वास्तव

में, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। इसलिए स्त्राी-मुक्ति के लिए

ब्राह्मणवाद-पूँजीवाद से साथ-साथ लड़ने की जरूरत है। पूँजीवाद से लड़ते हुए ब्राह्मणवाद

के खतरों को नकारना या ब्राह्मणवाद से लड़ते हुए पूँजीवाद का समर्थक बन जाना स्त्राी-मुक्ति के लिए तो खतरनाक है ही, समाज-राष्ट्र के व्यापक हित के भी खिलाफ है।

अपपण् वर्तमान समय में भूमंडलीकरण की नीतियाँ पूरे समाज-राष्ट्र के साथ-साथ

स्त्राी-मुक्ति के लिए भी बड़ा खतरा है। हमें इसके प्रलोभनों से बचना होगा। हमें यह भलीभाँति याद कर लेना चाहिए कि यह व्यवस्था दिखावे के लिए एक-दो अश्वेत को ‘ह्नाइट हाऊस’ (‘श्वेत घर’) पहुँचा सकती है, एक-दो स्लम डाॅग को मिलेनियर (करोड़पति) बना सकती है और एक-दो स्त्राी को मंत्राी-मुख्यमंत्राी या प्रधानमंत्राी भी बना सकती है, लेकिन इसमें सबों के सर्वांगीण विकास और समग्र मुक्ति का सपना पूरा नहीं हो सकता।

अपपपण् स्त्राी-विमर्श का वास्तविक लक्ष्य तमाम ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी मूल्यों के बरक्स नए मानववादी मूल्यों की स्थापना होनी चाहिए। यदि हम स्तरीय असमानता, अंधाधुंध उपभोग और नृशंस हिंसा इत्यादि के समानांतर समता, सादगी एवं अहिंसा आदि को स्थापित कर सके, तभी सही मायने में सामाजिक न्याय का सपना साकार होगा। इसलिए, हमें निरंतर मानवीय मूल्यों को जीवन में अपनाने का प्रयास करना चाहिए।

पगण् स्त्राी-विमर्श को स्त्राी-वर्ग के मलाईदार तबके के वाग्विलास या मनोरंजन का

साधन नहीं बनने देना चाहिए और न ही इसे तथाकथित स्त्राी राजनेताओं का ‘भोंपू’ बनना

चाहिए। इसे तो आम स्त्रिायों और अन्य वंचित समूहों का हितचिंतक होना चाहिए। इसके

लिए स्त्राी-वर्ग के मलाईदार तबके को आरक्षण की परिधि से बाहर करना एवं उनके नव-पुरुषवाद का विरोध और तथाकथित स्त्राीवादियों की आलोचना भी उचित है।

गण् बिना विचार के कर्म ‘मूर्खता’ है और बिना कर्म के विचार ‘गर्भपात’ के

समान है। इसलिए, स्त्राी-मुक्ति के विचारों को एक बड़े मुक्ति-संघर्ष के रूप में खड़ा करने

की जरूरत है। इससे हजारों वर्षों की प्रसव-वेदना समाप्त होगी और एक ‘स्वस्थ शिशु’ का जन्म होगा।

 

संदर्भ

1. वर्मा, सरोज कुमार; ‘सशक्तिकरण के भारतीय संदर्भ’, योजना, अक्टूबर 2008, संपादक: रेमी कुमारी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, पृ. 23-27.

2. आनंद, संगीता; ‘संपादकीय’, वर्तमान संदर्भ, ख्स्त्राी मुक्ति: यथार्थ और यूटोपिया, (विशेषांक), वर्ष: 8, अंक: 8, अगस्त 2009, संपादक: संगीता आनंद, अतिथि संपादक: राजीव रंजन गिरि, पटना (बिहार), पृ. 6.

 

-डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ से साभार।