Bhumandalikaran aur Loktantra भूमंडलीकरण और मानवाधिकार

2. भूमंडलीकरण और लोकतंत्र
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए वैश्विक स्तर पर तथाकथित लोकतंत्रा को बढ़ावा देने की रणनीति अपनाई गई है। दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी (साम्राज्यवादी) मुल्क अमेरिका आज लोकतंत्रा का सबसे बड़ा ठेकेदार बन गया है। लोकतंत्रा की बहाली के नाम पर उसने इराक में हजारों निर्दोष लोगों को मार डाला, वहाँ की गौरवशाली सभ्यता-संस्कृति के प्रतीकों को नष्ट किया और लोकप्रिय राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की जघन्य हत्या की। विलियम वुल्म के अनुसार, ”अमेरिका लगभग 40 विदेशी सरकारों को अपदस्थ करने में और सर्वसत्तावादी-शासन के विरूद्ध उत्पन्न हुए लगभग 30 जन-आंदोलनों का दमन करने में सहभागी रहा है।“1
दुनिया में लोकतंत्रा का दंभ भरने वाला यही अमेरिका अपने भू-राजनैतिक हितों के लिए सैन्य शासकों से हाथ मिलाता रहा है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और उनके समकालीन पाकिस्तानी शासक (राष्ट्रपति) परवेज मुशर्रफ की दोस्ती है। मुशर्रफ द्वारा जनता को भरमाने और दुनिया को दिखाने के लिए कराए गए जनमत सर्वेक्षणों एवं चुनाव को बुश प्रशासन ने पाकिस्तान के लोकतांत्रिकरण की संज्ञा दी थी। फिर, जब वेनेजुएला में वामपक्षीय धड़े के लोकप्रिय नेता और भूमंडलीकरण के मुखर आलोचक ह्यूगो शावेज की सरकार का अमेरिका की शह पर तख्ता-पलट हो गया, तो बुश-प्रशासन ने उसे न्यायसंगत करार दिया। उधर, सन् 1997 तक अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबानी शासन का समर्थन किया, जबकि तालिबानी शासन मानवाधिकारों एवं लोकतंत्रा की धज्जियाँ उड़ा रहा था।
फिर, अमेरिका द्वारा दुनियाभर में लोकतंत्रा की बहाली के लिए चलाए जा रहे (युद्धक) अभियानों का यह अर्थ नहीं है कि अमेरिका स्वयं स्वाभाविक रूप से लोकतांत्रिक देश है। वास्तविकता तो यह है कि अमेरिका का जन्म ही वहाँ के मूल निवासी निग्रो जनजाति की कब्र पर हुआ है। वहाँ लंबे समय तक दासप्रथा कायम रही और बहुत बाद में जाकर महिलाओं को मताधिकार दिया गया। वहाँ आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं बन पाई है और अश्वेत ओबामा के राष्ट्रपति बनने से ऐसा भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वहाँ सामान्य अश्वेतों एवं अप्रवासियों को हर तरह की समानता प्राप्त है। दरअसल, ओबामा के बहाने साम्राज्यवादी ताकतें अपनी गिरती साख बचाना चाहती थी। ओबामा अश्वेतों के दर्द की दवा नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद के संकट की दवा थे।
वास्तव में, अमेरिका का सभी महत्वपूर्ण आर्थिक, सामरिक एवं राजनैतिक निर्णय शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विशेष हित-समूहों (जिसमें आम लोगों की सहभागिता नहीं होती) के प्रभाव में होते हैं। वर्ष 2000 में ‘बिजनेस वीक’ द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वाशिंगटन में 74 प्रतिशत लोगों का मानना है कि बड़े-बड़े व्यवसायियों का सरकारी नीतियों, राजनीतिज्ञों और नीति-निर्माताओं पर अत्यधिक प्रभाव है।2 अमेरिका की ‘रिपब्लिकन’ एवं ‘डेमोक्रेटिक’ऋ दोनों पार्टियों को काॅर्पोरेट जगत की सहायता मिलती है। काॅर्पोरेट-जगत ने वर्ष 2009 में हुए अमेरिका राष्ट्रपति के चुनाव में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी को चिढ़ाते हुए लाखों डाॅलर खर्च किया। बराक ओबामा ने भी चुनाव प्रचार में ‘काॅर्पोरेट-जगत’ से मदद ली और उसी के पैसे को अपने शपथ ग्रहण समारोह में भी पानी की तरह बहाया। फिर, बदले में ओबामा प्रशासन ने विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से उबरने के बहाने वेल आउट पैकेज के नाम पर ‘काॅर्पोरेट-जगत’ पर सरकारी खजाना लुटाया और दुनिया के अन्य देशों पर भी ऐसा करने के लिए दबाव बनाया।
वास्तव मंे, आज लोकतंत्रा का लोककल्याणकारी स्वरूप काॅर्पोरेट-कल्याणकारी स्वरूप में तब्दील हो गया है। भूमंडलीकरण के समर्थकों का मानना है कि लोककल्याण के नाम पर ‘सब्सिडी’, पेंशन एवं सहायता आदि के रूप में अमीर लोगों से प्राप्त राजस्व का गरीबों में वितरण अनुचित है। कृषि को दी जाने वाली ‘सब्सिडी’, लघु-कुटीर उद्योगों को दी जाने वाली सहायता, वृद्धों-विधवाओं को दिया जाने वाला पेंशन एवं विकलांगों-वंचितों आदि को दी जाने वाली सहायता बंद होनी चाहिए और कमजोर लोगों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि लोककल्याणकारी नीतियाँ आर्थिक कार्यकुशलता, समृद्धि एवं विकास में बाधक हैं और इसमें पूँजी एवं संसाधनों का इस्तेमाल अनुत्पादक एवं अनुपयोगी है, इसलिए सामाजिक न्याय के नाम पर अर्थव्यवस्था या बाजार पर सरकारी हस्तक्षेप नहीं होनी चाहिए।3 लोककल्याण एवं सामाजिक न्याय के कार्यों को गैर सरकारी संस्थाओं (‘एनजीओ’) और स्वंसेवी संगठनों के हाथोें में छोड़कर सरकार को विकास (‘डेवलपमेंट’) एवं सुशासन (‘गुड-गवर्नेंस’) पर ध्यान देना चाहिए। यहाँ विकास का अर्थ हैऋ भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण को बढ़ावा देना और सुशासन का मतलब हैऋ ‘काॅर्पोरेट-जगत’ के फलने-फूलते हेतु उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना।4
कुल मिलाकर, भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया लोकतंत्रा की मूल भावनाओं को कुचलती है और उसमें आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक न्याय का निषेध है। जहाँ भूमंडलीकरण बाजार के निष्क्रिय उपभोक्ताओं के दम पर फलता-फूलता है, वहीं लोकतंत्रा की सफलता समाज के सभी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी से सुनिश्चित होती है। लोकतंत्रा को भी कहीं यांत्रिक रूप में न तो आरोपित किया जा सकता है और न ही कृत्रिम तरीके से उत्पन्न किया जा सकता है।5 प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट सभ्यता-संस्कृति, इतिहास एवं परंपराएँ होती हैं और वहाँ के लोगों की अपेक्षाएँ एवं आकाँक्षाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। संबंधित समाज की मिट्टी एवं आवोहवा के अनुकूल होने पर ही कोई व्यवस्था फल-फूल सकती है और यह बात लोकतंत्रा पर भी लागू होती है।
यहाँ सर्वप्रथम यह ध्यातव्य है कि पूरी दुनिया पर लोकतंत्रा का कोई एक प्रारूप लागू करना काफी मुश्किल है और खतरनाक भी। दूसरी जरूरी बात यह है कि संसदीय लोकतंत्रा को शासन की सर्वोतम प्रणाली मानना भी भ्रामक है। यही वजह है कि महात्मा गाँधी ने अपनी कालजयी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में ब्रिटेन में लागू संसदीय लोकतंत्रा की काफी आलोचना की है और उसकी जननी ‘ब्रिटिश पार्लियामेंट’ को ‘बाँझ’ एवं ‘वेश्या’ बताया है।6 उन्होंने संसदीय लोकतंत्रा को भारतीय समाज के लिए अनुपयुक्त माना था और आज उनकी बातें सच साबित हो रही हैं। भारत सहित अन्य कई लोकतांत्रिक देशों में उत्पन्न हुए राजनैतिक संकटों, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण आदि से भी यह संकेत मिल रहा है कि लोकतंत्रा के लक्ष्य को यांत्रिक तरीके से नहीं पाया जा सकता। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिमी लोकतंत्रा के मानकों, यथाऋ संसद सदस्यों, नागरिक-सेवाओं के अधिकारियों एवं न्यायधीशों को प्रशिक्षित करने मात्रा से कहीं लोकतंत्रा कायम नहीं हो जाता है। लोकतंत्रा की वास्तविक अभिव्यक्ति के लिए तो जमीनी राजनैतिक-आर्थिक स्थिति और सामाजिक-सांस्कृतिक गति को समझने की जरूरत है, मात्रा तकनीकी दृष्टिकोण अपनाने से यह संभव नहीं है।7
वर्तमान संदर्भ: भारतीय लोकतंत्रा पर कई तरह के आंतरिक एवं बाह्य संकट मंडरा रहे हैं। आंतरिक संकट में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा एवं भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ हैं। वर्तमान लोकतंत्रा में ‘लोक’ ‘निरीह’ एवं ‘पंगु’ है और ‘तंत्रा’ राजतंत्रा से भी ज्यादा ‘निरंकुश’ एवं ‘पाखंडी’ हो गया है। इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर राजनेता, नौकरशाह और पूँजीपतियों- माफियाओं के बीच जनविरोधी गठजोड़ भी सामने आ रहा है। बाह्य संकट हैµ लोकतंत्रा पर कसता साम्राज्यवादी शिकंजा। अमेरिका, ब्रिटेन एवं भारत सहित तमाम देशों में लोकतंत्रा पूँजीतंत्रा का गुलाम बनता जा रहा है। ‘काॅर्पोरेट-जगत’ अब लोकतांत्रिक देशों की आर्थिक नीतियाँ, विदेश-व्यापार और बजट आदि में दखल देता है; क्योंकि सरकार चाहे किसी की भी हो उसकी जीत में ‘काॅर्पोरेट जगत’ का पैसा लगा होता है। काॅर्पोरेट के चंदे के बोझ तले दबा ‘पक्ष’, ‘विपक्ष’ और ‘त्रिपक्ष’ भी सामान्यतः भूमंडलीकरण की नीतियों पर सरकार की सुर में सुर मिलाता है। यही वजह है कि भारत जैसे देश में सार्वजनिक क्षेत्रा की लाभदायी कंपनियों के निजीकरण से लेकर ‘सेज’ सजाने तक के अति महत्वपूर्ण निर्णय चंद मिनटों में ससंद में पास हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसे मुद्दों पर विपक्ष का विरोध यदि सामने भी आता है, तो वह महज ‘औपचारिक’ एवं ‘दिखावा’ मात्रा होता है। इस मामले में सभी पाटियाँ एक से बढ़कर एक हैंऋ ”को बड़ छोट कहत अपराधू।“
निष्कर्ष: ‘लोकतंत्रा जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है’ऋ यह अवधारणा लोगों को लुभाती है। लेकिन, इस परिभाषा के भ्रमजाल में पड़कर हम लोकतंत्रा की जो कल्पना करते हैं, उस कल्पना से वर्तमान लोकतंत्रा की प्रकृति सर्वथा भिन्न है। इसमें जनता की शक्ति को मात्रा ‘वोट’ देने के औपचारिक अधिकार तक सीमित कर दिया गया है और इस अधिकार का भी कभी जाति एवं धर्म के नाम पर, तो कभी लोभ एवं भय के सहारे अपहरण कर लिया जाता है। वर्तमान लोकतंत्रा सभी लोगों की अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है। इस आधार पर कुछ लोग लोकतंत्रा को ही नकारने की बात करते हैं, लेकिन ऐसा करना आत्मघाती है। हमें यह याद रहे कि लोकतंत्रा ने जनता को कई तरह की शक्तियाँ दी हैं, जो कि राजतंत्रा या तानाशाही में संभव नहीं है और इसमें निरंतर सुधार की गुंजाइश भी है। साथ ही एक मुख्य बात यह है कि अभी प्रचलित लोकतंत्रा सही अर्थों में लोकतंत्रा है ही नहीं। इसलिए वर्तमान लोकतंत्रा की कमियों एवं खामियों को दूर कर सच्चे लोकतंत्रा को शासन के साथ-साथ समाज एवं आम जीवन में भी अंगीकार करने की जरूरत है।

संदर्भ
1. वुल्म, विलियम, रूथ स्टेट: अ गाइड इ द वल्र्डस ओनली सुपर पावर, जेड बुक्स, लंदन (इंग्लैंड), 2003, पृ. 2.
2. बर्सटाइन, एटोन; ‘टू मच काॅर्पोरेट पावर’, बिजनेस वीक, 11 सिंतबर, 2000.
3. शेखर, सुधांशु; ‘भूमंडलीकरण और सामाजिक न्याय’, भूमंडलीकरण: नीति और नियति, संपादक: मुकेश कुमार एवं सुधांशु शेखर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), 2009, पृ. 146.
4. शेखर, सुधांशु; ‘भूमंडलीकरण, लोकतंत्रा और अमेरिका’, भूमंडलीकरण और लोकतंत्रा, संपादक: मुकेश कुमार एवं सुधांशु शेखर, जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना (बिहार), 2010, पृ. 247.
5. सिंह, कंवलजीत, वैश्वीकरण, अनुवाद: जीतेन्द्र गुप्त, संवाद प्रकाशन, मुंबई (महाराष्ट्र), 2008, पृ. 94.
6. गाँधी; हिन्द स्वराज्य, अनुवादक: अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), 2006, पृ. 34.
7. सिंह, कंवलजीत, वैश्वीकरण, पूर्वोक्त, पृ. 94.