Bhumandalikaran aur Aatankwad भूमंडलीकरण और आतंकवाद

3. भूमंडलीकरण और आतंकवाद

आतंकवाद वह विचारधारा है, जो सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन के लिए भय या आतंक का सहारा लेती है। वह राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होता है; भले ही धार्मिक या क्षेत्राीय आधार पर ही क्यों न संचालित हो। आंतकवादी निर्दोषों लोगों को निशाना बनाता है, ताकि लोकप्रिय विरोध को दहशत से ठंढा रखा जा सके और सत्ता पर दबाव बनाकर रियायतें पाई जा सकें।1 आतंकवाद का प्रयोग सर्वप्रथम बुसेल्स में विधानों को समेकित करने के लिए किया गया, जिसके अनुसार जीवन की भौतिक अखंडता अथवा जनजीवन को प्रभावित करना या बड़े पैमाने पर सम्पत्ति की हानि पहुँचाने वाला कार्य करके जानबूझ कर भय का वातावरण उत्पन्न करना आतंकवाद है। यह वह आपराधिक कृत्य है, जो किसी राज्य के विरूद्ध उन्मुख हो और जिसका उद्देश्य कुछ खास व्यक्ति या जनमानस के मन में भय या आतंक पैदा करना हो।2 इस अर्थ में सत्ता की निरंकुशता और शोषण के खिलाफ किए गए आंदोलनों को भी आतंकवाद की श्रेणी में ला दिया जाता है। फ्राँस, रूस और भारत आदि देशों में आजादी की लड़ाई में शामिल क्रांतिकारियों की गतिविधियों को तात्कालीन सरकारों ने आतंकवाद का नाम दे दिया। लेकिन आम जनता इनकी गतिविधियों को पवित्रा समझती थी और इनको संरक्षण भी देती थी।3

आतंकवाद का इतिहास मानव के इतिहास के साथ समांतर रूप से गतिशील है। आतंकवाद एक ऐसा सिद्धांत है, जिसके अनुसार व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिए क्रांति का मार्ग आतंक फैलाना है। लाल बहादुर वर्मा4 लिखते हैं कि आतंक मनुष्य की मनीषा में रचा-बसा है और आदि काल से ही वह आतंकित होता रहा है तथा आतंकित करता रहा है। सबसे पहले वह प्रकृति से ही आतंकित हुआ, तब से आतंक मानव की प्रकृति में बस गया। फिर उसने आतंकित करने के परिणाम समझ लिए और जो भी संस्था विकसित की उसमें आतंक एक उपकरण के रूप में निहित रहा। प्रारंभ में घर में पितृसत्ता का आतंक, कालांतर में कबीले मुखिया का आतंक, फिर राज्य बना तो वह भी अपनी सार्वभौमिकता का इस्तेमाल केवल नियम-कानून से नहीं कर सकता था, उसे लागू करने के लिए पुलिस-फौज का आतंक। इस प्रकार आतंकवाद का आधार मानवीय चेतना में जकड़ा आतंक है, जो समय≤ पर प्रतिरोध में आतंक फैलाया करता है। एक आतंकित व्यक्ति आतंक फैलाने के सिवा और कर भी क्या सकता है?

 

भूमंडलीकरण और आतंकवाद: आज आतंकवाद न केवल भारत की राष्ट्रीय एकता, वरन् संपूर्ण विश्व के लिए एक समस्या है। आतंकी कार्रवाईयों और हिंसा-प्रतिहिंसा में प्रतिवर्ष हजारों लोग मारे जा रहे हैं। हालात यह है कि अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश भी अलकायदा नेता ओसामा बिन लादेन की आतंकवादी गतिविधियों से आतंकित रहा, तो रूस भी चेचेन्या आतंकवादियों से। विश्व के अन्य देश भी आतंकवादी गतिविधियों से परेशान हैंऋ जैसे श्रीलंका में लिट्टे की, आयरलैण्ड में आयरिस रिपब्लिक आर्मी की, जापान में रेड आर्मी की, इजराइल में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन से सम्बन्धित अनेक आतंकवादी संगठनों की, इटली में रेड ब्रिज की, इराक में कुर्द की और भारत में कई देशी-विदेशी आतंकवादी संगठनों की आतंकवादी गतिविधियाँ अपनी हिंसात्मक कार्यवाही से जनता में भय उत्पन्न कर रही हैं।5

आजादी के बाद जब भारत एक सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र बना, तो उसकी सम्प्रभुता को चुनौती देने वाली आतंकवादी गतिविधियों का प्रारम्भ पाँचवें दशक में नागालैंड में, छठवें दशक में मिजोरम में, सातवें दशक में मणिपुर में और आठवें दशक में असम एवं त्रिपुरा में देखने को मिलता है। फिर अस्सी के बाद पंजाब और कश्मीर में तो आतंकवाद अपने विकराल रूप में दृष्टिगत होने लगा। पंजाब में आतंकवाद खालिस्तान की माँग कर रहा था, तो कश्मीर में स्वतन्त्रा कश्मीर की। फिलहाल पंजाब में खालिस्तान की माँग भिण्डरवाले की मौत के साथ लगभग समाप्त-सा है, लेकिन कश्मीर में स्वतंत्रा कश्मीर की माँग दिन-प्रतिदिन उग्र होती जा रही है। कुछ वर्षों पूर्व कश्मीरी आतंकवादियों ने पाकिस्तान के सहयोग से कारगिल की पहाड़ियों पर अड्डा जमा लिया था। इसके बाद भारतीय सेना को पाकिस्तान से सीधे-सीधे युद्ध करना पड़ा और तब जाकर हमारी पहाड़ियाँ मुक्त हो सकीं।6 भारतवासियों ने अदभूत एकता का परिचय दिया और सबों ने एकजूट होकर सेना एवं सरकार का मनोबल बढ़ाया। इस तरह यहाँ राष्ट्रीयता का एक नायाब उदाहरण देखने को मिला, लेकिन दुख की बात यह है कि हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों के कुछ नेता इस अति संवेदनाशील मुद्दों पर भी राजनीति करने से बाज़ नहीं आए।

दरअसल, राष्ट्रीय सुरक्षा एक आम नागरिक की चिंता का विषय है। बेशक एक औसत नागरिक अपने जीवन में अमन और शांति चाहता है, उन्माद, हिंसा और युद्ध नहीं। एक औसत नागरिक को राष्ट्र नामक अमूर्त इकाई से लगाव होता है। इसलिए जब वह देश के किसी हिस्से में आतंकी हमले की तस्वीरें देखता है, तो उसे लगता है कि यह खुद उसी पर हमला है। ऐसे में संघ परिवार का उग्र राष्ट्रवाद थोड़े समय के लिए उसे तथाकथित ‘दुश्मन’ को एक कड़क जवाब जैसा दिखाई देता है।़7 मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद कुछ बुद्धिजीवी पाकिस्तान को इसके लिए जिम्मेदार बताकर उस पर हमले की वकालत करते देखे गए। ऐसे लोगों ने एक बड़े पूँजीपति के आलीशान होटल पर हुए हमले को राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय संप्रभुता से जोर दिया, लेकिन यह राष्ट्रवाद की सही समझ नहीं है। हमें राष्ट्रवाद को आज जनता के हितों के सापेक्ष समझने की जरूरत है। इसलिए राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रहित के लिए चिंतीत लोगों एवं समूहों को बेरोजगारी, आर्थिक विषमता, शोषण एवं मानवाधिकारों के हनन जैसे मुद्दों का हल ढूँढ़ना चाहिए; क्योंकि इन मूलभूत कारणों को समाप्त किए बगैर न तो आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है और न ही राष्ट्रीय एकता की रक्षा हो सकती है। यह राष्ट्र सबों का है, यह सबों को महसूस भी होना चाहिए, तभी लोग राष्ट्रभक्ति को अपनाएँगे; वरना यदि कोई अपने आपको असुरक्षित एवं वंचित महसूस करेगा, तो उसे अलगाववादी एवं आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने से हम नहीं रोक पाएँंगे।

इधर, भारत में अपने आपको वैश्विक एवं धर्मनिरपेक्ष कहने वाले लोग अक्सर यह कहते हैं कि बहुसंख्यक (हिंदू) की सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक (विशेष रूप से मुस्लिम) की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक है। मगर, ऐसा कहना सांप्रदायिकता या धर्मिक आतंकवाद को बढ़ावा देना है। हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि भय, आतंक एवं हिंसा के रास्ते कभी भी विकास, शांति एवं न्याय का लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता। हमें बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक का भेदभाव छोड़कर निष्पक्षभाव से हर प्रकार की सांप्रदायिकता एवं कट्टरता की मुखालफत करनी होगी। अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाले लोगों द्वारा मुस्लिम सांप्रदायिकता पर चुप्पी या मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाने की वजह से ही कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को मजबूती मिलती है, जिससे अल्पसंख्यकों एवं पूरी मानवता को नुकसान पहुँचता है।

वर्तमान संदर्भ: साम्राज्यवादी व्याख्याकार हटिंग्टन जिसे ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ कहते हैं, वह वास्तव में भूमंडलीकरण के खिलाफ जनसंघर्ष है। आज दुनिया के विकासशील एवं अविकसित मुल्कों भूमंडलीकरण की नीतियों से लड़ने के लिए एक उदात्त राष्ट्रवाद का उदय हुआ है। ऐसे मुल्कों के लोग भूमंडलीकरण के नाम पर राष्ट्रीय हितों की नीलामी के खिलाफ मुखर होकर विरोध करने में लगे हैं। यह राष्ट्रप्रेम साम्राज्यवादियों के आँखों की किरकिरी बन गया है। दूसरी ओर साम्राज्यवाद से मुकाबला करते रहे आंतकवादी भी साम्राज्यवादी ताकतों के निशानें पर है। यहाँ उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका ने ही तालिबान एवं अन्य आतंकी संगठनों को रूस के खिलाफ पाल-पोस कर बड़ा किया मगर, जैसा कि प्रकृति का नियम है, ‘जो गड्ढ़ा खोदता है, वह भी गड्ढ़े में गिरता है’ यही आज अमेरिका के साथ हो रहा है। उसके आर्थिक साम्राज्य के प्रतीक ‘वल्र्ड ट्रेड सेंटर’ एवं सामरिक तानाशाही के केन्द्र ‘पेंटागन’ को निशाना बनाकर आतंकवादियों ने उसे खुली चुनौती दे डाली। इधर, इसी बहाने अमेरिका को आतंकवाद से निपटने के नाम पर पूरी दुनिया में नरसंहार मचाने का खुला ‘लाइसेंस’ मिल गया हैैं।

निष्कर्ष: दरअसल, अमेरिका ने आतंकवादियों को अपना दुश्मन नंबर एक करार देकर साम्राज्यवाद के खिलाफ जारी जनसंघर्षों से दुनिया का ध्यान हटाने की साजिश रची है। आतंकवाद के खिलाफ जनभावनाओं को भड़काकर साम्राज्यवाद के लिए सहानुभूति एवं समर्थन भी बटोरा जा रहा है। पिछले दो दशक से साम्राज्यवाद मुक्त-बाजार के नाम पर एक बार फिर दुनिया के विकासशील एवं अविकसित देशों को अपना आर्थिक उपनिवेश बना रहा है। नव-उपनिवेशवाद के इस दौर में जिस पँूजीवादी विकास का माॅडल विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष आदि के माध्यम से लागू किया गया है, उससे आर्थिक उपनिवेश के जरिए ही राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्वाकांक्षाओं की भी पूर्ति की जा रही है। साम्राज्यवादी देशों की बेलगाम वित्तीय पूँजी विकासशील देशों के उद्योग-धंधे तो उजाड़ ही रही है साथ ही प्रकृति-पर्यावरण का अमर्यादित शोषण-दोहन भी कर रही है। इसके परिणामस्वरूप पूरी दुनिया खासकर विकासशील देशों में बेरोजगारी, विषमता एवं पर्यावरणीय असंतुलन की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है।

इस तरह साम्राज्यवाद और आतंकवाद, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जो मानवीय समाज निर्माण के मार्ग में गंभीर बाधक तत्व हैं। दरअसल, साम्राज्यवादी शोषण ने आतंकवाद को जन्म दिया है और आतंकवादी हिंसा साम्राज्यवाद को अपना विस्तार करने का बहाना उपलब्ध करा रही है। अतः, आज साम्राज्यवाद एवं आतंकवाद दोनों पर एक साथ चोट करने की जरूरत है।

 

संदर्भ

1. तिवारी, अजय कुमार; ‘लोकतंत्रा और आतंकवाद’, लोकतंत्रा: मिथक और यथार्थ, संपादक: डाॅ. मुकेश कुमार एवं सुधांशु शेखर, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर (मध्य प्रदेश), पृ. 211.

2. मौर्य, डाॅ. श्यामवृक्ष; समाज, दर्शन और राजनीति, सत्यम् पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ. 258.

3. वही, पृ. 259..

4. वर्मा, लाल बहादुर; ‘आतंक, आतंकवादी और आतंकवाद’, इतिहास बोध, नवंबर 2006, इलाहाबाद, (उत्तर प्रदेश), पृ. 4-5.

5. मौर्य, डाॅ. श्यामवृक्ष; समाज, दर्शन और राजनीति, पूर्वोक्त, पृ. 259.

6. वही, पृ. 260.

7. यादव, योगेन्द्र; ‘संपादकीय’, सामयिक वार्ता, दिल्ली, पृ. 5.

8. वही, पृ. 236.