Poem। कविता। आखिर कुसूर क्या था ?

शीर्षक : आखिर कुसूर क्या था?

आसान नहीं रहा होगा उसके लिए,
ज़िन्दगी से मौत का ये सफ़र,
पल पल मरी होगी,
अपनों को पुकारा होगा,
उम्मीद से भरी नज़रों से,
चारों ओर निहारा होगा,
शायद आज फिर कोई कृष्ण,
कोई हनुमान आ जाए कहीं से,
बचा के लाज उसकी,
रक्षा करे जो,
लगाकर आग उनका नाश करे जो।

चीरने सीना उनका कोई तो भीम आए,
मारकर उनको जो आ गिराए,
पर ये सब तो हैं कही सुनी बातें,
ना इनका प्रमाण कोई,
न इनसे कोई जीत पाए,
दरिंदगी और हैवानियत से भला,
कैसे कोई पार पाए,
चीखती आँखों के आंसू भला,
कोई पोंछ पाए।

बेबसी का मंज़र दूर तक फैला पड़ा है,
इसके आगे भला कोई बचा है?
एक तो थी वो बेटी,
ऊपर से गरीब,
और नीची जात की भी थी,
दुर्भाग्य का ये चक्र,
भला कैसे कोई भेद पाए?
रुदन और क्रंदन तक भी उसका न,
किसी तक पहुंच पाए।

लड़ाई ज़िन्दगी से मौत की भारी पड़ी है,
उसके आगे वो बेटी,
बेबस और लाचार खड़ी है,
लडी पल पल भले पर,
जीत मृत्यु, हैवानियत,
और दरिंदगी की हुई है।
वो देकर प्रश्न हमारे सामने,
हाशिए पर आ खड़ी है!

करके शर्मसार हमको,
पूछती न जाने क्या क्या?
थी गलती क्या मेरी?
जो मुझको मिली इतनी बड़ी सजा है?
मैं ही जन्म देती,
और मैं ही पूजी जाती,
फिर भी सदियों से मैं ही,
पुरुषों के द्वारा रौंदी जाती।

घमंड ताकत पे अपनी करता है
वो आज इतना,
प्रताड़ित करके मुझको,
ठोकता है सीना अपना।

क्यूं भूलता तू कि,
पुरुष तुझको है मैने ही बनाया,
झेलकर दर्द,
अपने खून से सींचा है तुझको।

क्या एक पल के लिए तुझको,
न ये तक ख्याल आया,
तेरी जननी ने है तेरे लिए अपना,
सब कुछ गवाया।

भूलकर उसके एहसानों को,
तू उसका ही आज क्यूं दुश्मन हुआ है?
वही माता, वही बहन, वही प्रेमिका,
वही पत्नी और वही बेटी हुई है,
सभी रूपों से उसके ये सृष्टि सजी है।

तू करता नाज़ खुद पर,
रौंदकर उसको इस तरह से,
ये मत भूल की तू ज़िंदा है,
उसकी ही वजह से,
विस्मृत होता तुझमें तेरा,
सर्वस्व है केवल है स्त्री ।।

डॉ० दीपा ‘ दीप ‘
सहायक प्राध्यापिका
दिल्ली विश्वविद्यालय