Education। दोहरे मापदंडों एवं गलत नीतियोँ में उलझी भारतीय उच्च शिक्षा

दोहरे मापदंडों एवं गलत नीतियोँ में उलझी भारतीय उच्च शिक्षा

किसी भी समाज का उत्थान व पतन वहां की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर करता है!
संसार भर में जो भी राष्ट्र आज तक नैतिक विकास और समृद्धि के मार्ग दर्शक बन पाए है उनकी आधारशिला एक मजबूत शिक्षा प्रणाली रहीं है भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखते है तो पता चलता है की भारतीय उच्च शिक्षा तन्त्र उच्च शिक्षा में दुनिया में तीसरे स्थान पर अमेरिका और चीन के बाद में आता है लेकिन मानकीय स्तर में सैकड़ो विश्विद्यालय के अंतर्गत भी नही आता है ..!
अब प्रश्न उठता है की जब हम विश्व के तीसरे स्थान पर आते है फिर भी हमारी शिक्षा का स्तर इतना नीचे क्यो है ? अध्ययन और विश्लेषण के उपरांत ज्ञात होता है इस समस्या का मुख्य कारण शिक्षा में लागू किये दोहरे मापदण्ड है जिन पर सरकारें ध्यान नही देती अपनी राजनीतिक उपलक्ष्यों के कारण ,क्योकि वास्तविक रूप से शिक्षित हुआ व्यक्ति विरोध करेगा गलत चीज़ों का जिससे राजनीतिक समीकरण एवं लूट प्रणाली को आघात पहुँचेगा इसलिए सरकारे सदैव लचीली और ढुल मूल नीतियों की मौन पक्षधर होती है इतनी अधिक जनसँख्या होने के बावजूद भी देश में उच्च शिक्षा के लिए नामांकन 11% लोग ही करवाते है अमेरिका में इसका अनुपात 83%है राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यायन परिषद के शोध के अनुसार भारत के 90% कालेजो एवम 70% विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत ही कमज़ोर है जिसका मुख्य कारण शिक्षकों की भारी कमी है ,जो नेशन बिल्डिंग का मुख्य काम करते है अगर उनकी कमी रही तो देश अपने मूल उद्देश्य को कैसे प्राप्त कर पायेगा , जब भारतीय विश्विद्यालय अपने मानक व पाठ्यक्रम को 5 से 10 वर्ष में बदल देते है तो उन्हें अपने मूल उद्देश्यों में सफलता कैसे मिलेगी आज पीएचडी की डिग्री लिया हुआ व्यक्ति चपरासी जैसे स्तर पर नौकरी में आवेदन के लिए मजबूर है। यहाँ बेरोजगारी एवं अच्छी शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण ही भारतीय छात्र विदेशी विश्विद्यालयों में प्रत्येक वर्ष 7 अरब डॉलर खर्च कर रहा है जो देश की संपत्ति का ही एक प्रकार से क्षरण है इन सारी समस्याओं का जड़ देश की सरकारों की ढुलमुल नीति है।
नियमो कानूनों का कागजो में ही सिमट कर रह जाना, शिक्षा को व्यवसाय बनाना , शिक्षा माफियाओ के हित में नियम का निर्माण, अभी राष्टपति कोविंद जी ने कहा था शिक्षा में अध्ययन, अध्यापन और शोध, की बराबर भागीदारी होनी चाहिए सरकारों की जीडीपी का अंश निर्माण कार्य में अधिक खर्चा किया जाता है क्योकि इन सब में ऊपर से नीचे तक कमीशन खोरी चलती है वाइस चांसलर आज के तारीख में कृपा पात्र और राजनीतिक पद हो चुका है , कितने कालेज एवं विश्विद्यालय बिना शिक्षक के चल रहे है , भर्ती में साला सिस्टम, अदृश्य कोलोजियम व्यवस्था चल रही है और परिवारवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है , देश में उच्च शिक्षा के मानक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तय करता है और पात्रता परीक्षा के नियम विश्विद्यालय के मानक तय करता है फिर भी हर राज्य में अपने मानक है और वह राजनीतिक समीकरण से संचालित किये जाते है चुनाव के टाइम आते ही शिक्षक भर्ती की घोषणा की जाती है और फिर कोर्ट केस, गलत मानको में फस जाती है और सालो साल वही दशा व्याप्त रहती है । उच्च शिक्षा प्राप्त अध्यापन से जुड़े व्यक्ति अधिकांशतः बिना नौकरी के ही बूढ़े हो जाते है और वह मनरेगा से भी कम पारिश्रमिक में अपना जीवन गुजारने को विवश है जिसका कारण भर्ती प्रणाली में दोहरे मापदण्ड , सिद्धान्त और व्यवहार में अत्यधिक विषमता है ,देश के अलग अलग स्थानों में अलग अलग भर्तियां आती है और सब अपेक्षित व्यक्ति आवेदन करते है जिनमे से बहुत लोगो का चयन नही हो पाता और फिर वह स्थान्तरण भी करते है जिससे रिक्त पदों पे भर्ती कई कई सालो उलझी रहती है
और शिक्षित बेरोजगारी और उच्च शिक्षा के प्रति अनाकर्षण स्वभाविक हो जाता है
इन सब मुद्दों का अवलोकन करते हुए प्रश्न उठता है की कौन है इन सब का जिम्मेदार
नागरिक, सरकारें, लूट संस्कृति अथवा कानून ?
क्यो ऐसे नियम नही बनाये जा रहे है? जहाँ अध्ययन अध्यापन और शोध को समान नजरिए से संचालित किया जा सके और अध्यापन, शोध के लिए एकीकृत व्यवस्था हो सके भर्ती प्रणाली में एक साथ देश भर में समय समय पर रिक्त पदों को निकाला जाय और चयन किया जाय , शोध क्षेत्र में एक साथ पीएचडी के लिए परीक्षा लेकर नामांकन करवाया जाय।
आखिर शिक्षा एक संवेदनशील विषय है इन पर क्यो ध्यान नही दिया जा रहा है? सरकार और समाज अपने आने वाली पीढ़ियों को क्या देना चाहती है कम से कम जो राष्ट्र निर्माण करने की संस्थाए है उन्हें क्यो दोहरी मापदण्डो से देखा जा रहा है , गुरु परम्परा वाले इस देश में शिक्षा व शिक्षको की जो हालत है उसे देख कर हम अपने भविष्य को गर्त में डाल रहे है इसमे कोई दो राय नही है
सरकारों ,नीति निर्माताओ से आग्रह है की मौजूदा हालत को लेकर संवेदनशील हो जाए नही तो इनका खामियाजा आने वाली पीढियो को भरना पड़ेगा ..……💐💐

लेखक
डॉ देवेश पाण्डेय
अतिथि सहायक प्रोफेसर
मिथिला विश्विद्यालय (बिहार)
लेखक एक नैतिक राजनीतिक विश्लेषक है