BNMU सिर्फ समाज का दर्पण नहीं है साहित्य : डाॅ. एस. आर. भट्ट

*सिर्फ समाज का दर्पण नहीं है साहित्य : डाॅ. एस. आर. भट्ट*

*आनंदमूर्ति का दर्शन हो पाठ्यक्रम में शामिल : डाॅ. सुधांशु*

भारतीय दार्शनिकों ने साहित्य को मानव जीवन का अभिन्न अंग माना है। लेकिन हमारे लिए साहित्य मात्र समाज का यथार्थ चित्रण करने वाला दर्पण नहीं है, बल्कि यह समाज को सही दिशा दिखाने वाला दीपक भी है।

यह बात सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं एशियन फिलाॅसोफिकल कांग्रेस के अध्यक्ष तथा भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ. एस. आर. भट्ट ने कही।

वे श्री श्री आनंदमूर्तिजी (श्री प्रभात रंजन सरकार) के शताब्दी जयंती वर्ष पर आनंद मार्ग प्रचारक संघ के बौद्धिक मंच रेनासा यूनिवर्सल के तत्वावधान में आयोजित वेबिनार में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे। वेबिनार का विषय आनंदमूर्तिजी का कला एवं साहित्य में योगदान था।

उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा में साहित्य एवं कला को सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् की अभिव्यक्ति माना गया है। आनंदमूर्ति ने भी इसे स्वीकार किया है और उन्होंने कला एवं साहित्य के संरक्षण एवं संवर्धन में अहम योगदान दिया है।

उन्होंने बताया कि भारतीय दर्शन में मानव जीवन के चार पुरूषार्थ माने गए हैं-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। साहित्य एवं कला काम पुरूषार्थ से जुड़े हैं।

उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा में काम को पुरूषार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। लेकिन कामाचार एवं अश्लीलता स्वीकार्य नहीं है। साहित्य एवं कला के क्षेत्र में भी इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए।

वेबिनार में भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा की ओर से असिस्टेंट प्रोफेसर (दर्शनशास्त्र) एवं जनसंपर्क पदाधिकारी डाॅ. सुधांशु शेखर भी भाग लिया।

उन्होंने कहा कि हम राजनीतिक आजादी के 75 वर्षों बाद भी मानसिक रूप से आजाद नहीं हो पाए हैं। आज भी हम हीनताबोध से ग्रसित हैं। हम पाश्चात्य दार्शनिकों के जूठन उठाने के लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं। लेकिन अपने समकालीन भारतीय दार्शनिकों पर कलम चलाने में हिचकते हैं। इसी की बानगी है कि हम श्री श्री आनंदमूर्ति जैसे आधुनिक भारतीय दार्शनिकों को एकेडमिक जगत में समुचित सम्मान नहीं दे रहे हैं।

उन्होंने कहा कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में श्री श्री आनंदमूर्ति सहित कई दार्शनिकों ने औपनिवेशिक दृष्टि का खंडन करते हुए चिंतन की स्वदेशी भावभूमि पर अवस्थित होकर भारतीय दर्शन को समृद्ध किया है। ऐसे सभी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय दार्शनिकों को दर्शनशास्त्र के स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में विशेष रूप से जगह देने की जरूरत है।

उन्होंने बताया कि आने वाले दिनों में बीएनएमयू में भी आनंदमूर्ति के दर्शन से संबंधित वेबिनार आयोजित किया जाएगा। साथ ही आनंदमूर्ति के दर्शन के विभिन्न आयामों पर शोध कार्य करने-कराने का प्रयास किया जाएगा।

इस अवसर पर विश्व भारती, शांतिनिकेतन में दर्शन एवं तुलनात्मक धर्म विभाग के प्रोफेसर डाॅ. सिराजुल इस्लाम ने कहा कि आनंदमूर्ति के अनुसार कला कला के लिए नहीं है, बल्कि कला सेवा एवं सर्वकल्याण  के लिए है।

इस अवसर पर विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) के दर्शनशास्त्र विभाग में प्रोफेसर डाॅ. तपन कुमार डे, एसकेबी विश्वविद्यालय, पुरूलिया में संस्कृत विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ. सुदीप चक्रवर्ती, त्रिपुरा केंद्रीय विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सिंधु पौडयाल, बांकुरा विश्वविद्यालय, बांकुरा के संस्कृत विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. संतू सिंघा ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय, सिलीगुड़ी में दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत पाधी ने किया और संचालन डॉ. विश्वजीत भोमिक ने की।

मुख्य सूत्रधार की भूमिका केंद्रीय जनसंपर्क सचिव आचार्य दिव्यचेतनानंद अवधूत ने निभाई।