कविता/ सावन न समझो/ डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’

कुकुरमुत्ते दे रहे- चुनौतियाँ आसमान को;                    कूप-मंडूकों का नर्तन, टर्र-टर्र अभिमान वो।
बरसात है- सावन न समझो।
सागर की औकात क्या, मौसमी नाले कहें।
तोड़ के तटबंध सारे, अराजक हो कर बहें।
बरसात है- सावन न समझो।
अंधेरों को है उदासी, जुगनुओं के पुँज यों।
इनमें भी तो आग है, है वो सूरज गर्म क्यों?
बरसात है- सावन न समझो।
मौसमी घासें करें कुश्ती- फसल से रात-दिन।
झाड़ियों के शीश भी उन्नत हैं- मर्यादा के बिन।
बरसात है- सावन न समझो।
मद धूल में मिल जाएंगे- जब ये मौसम जाएगा।
चार दिन की है अकड़- कैसे आनन्दगान गाएगा?
बरसात है- सावन न समझो।
रिमझिम के प्यार सा, कुछ तो सावन जी ही लें।
प्रेयसी के मनुहार सा, भिगोएँ- भीग खुद भी लें।
बरसात को सावन ही समझो।

-डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’