Ambedkar। शिक्षा और सामाजिक न्याय : संदर्भ डाॅ. अंबेडकर।

शिक्षा और सामाजिक न्याय : संदर्भ डाॅ. अंबेडकर 

डाॅ. सुधांशु शेखर
अस्सिटेंट प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र विभाग,
बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा (बिहार)

डाॅ. भीमराव अंबेडकर एक दर्शनशास्त्री, अर्थशास्त्री, विधिवेक्ता, राजनीतिशास्त्री, संविधान विशेषज्ञ, समाज सुधारक, जननेता, धार्मिक उपदेशक एवं शिक्षाशास्त्री के रूप में देश-दुनिया में सुप्रसिद्व हैं। देश के पहले कानून मंत्री को भारत सरकार ने 1991 में भारत रत्न की उपाधि प्रदान कर अपनी मूल सुधार की और कुछ वर्षों पूर्व कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘सिम्बल आॕफ नाॅलेज’ अर्थात् ‘ज्ञान के प्रतीक’ के तौर पर मान्यता प्रदान कर अपने आपको गौरवान्वित किया है। कहना न होगा कि एक अछूत परिवार में जन्म लेने के बाद शिक्षा के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचना आसान नहीं रहा होगा। यह डाॅ. अंबेडकर की दृढ़ इच्छा शक्ति, अदम्य साहस एवं अथक परिश्रम का ही परिणाम है कि वे सर्वकालीक महान विद्वानों में सुमार किए जाते है। ‘शिक्षित बनो संगठित रहो और संघर्ष करो’ उनके इस मंत्र ने करोड़ो लोगों की जिंदगी बदल दी। ऐसे योद्वा-विचारक के शिक्षा-दर्शन पर विचार करना अत्यंत प्रांसगिक है।

डाॅ. अंबेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय की स्थापना में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनका विश्वास था कि शिक्षित बनना मनुष्य के चहुमुँखी विकास के लिए आवश्यक है। शिक्षा के अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का निर्वहन एवं संरक्षण नहीं कर सकता है। सामाजिक न्याय एवं सार्वभौम मानवाधिकार की बातें भी शिक्षा के बिना ‘मिथक’ मात्र बनकर रह जाती हैं। स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता जैसे उदात्त मूल्य भी तभी साकार रूप ले सकते हैं, जब समाज में शिक्षा का समुचित प्रचार-प्रसार हो। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जब तक मन को स्वतंत्रता का उपयोग करने की शिक्षा न दी जाए, तब तक स्वतंत्रता का कोई मूल्य ही नहीं रहता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्राप्ति का अधिकार स्वतंत्रता की दृष्टि से परमावश्यक हो जाता है। किसी मनुष्य को ज्ञान से वंचित रखना, उसे अनिवार्य रूप से उन लोगों का गुलाम बना देना है, जो उससे अधिक सौभाग्यशाली हैं। ज्ञान से वंचित रखने का मतलब है, उस शक्ति को नकारना, जिससे व्यक्ति अपनी प्रगति के प्रति आवश्वस्त हो सके।

डाॅ. अंबेडकर शिक्षा को समाज-परिवर्तन का एक जरूरी औजार मानते थे।2 इसके जरिए वर्णाश्रम आदि सभी शोषणकारी व्यवस्थाओं को नष्ट किया जा सकता है, सभी प्रकार की कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर किया जा सकता है और सभी कृत्रिम बंधनों को तोड़कर मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने का सपना साकार किया जा सकता है। इस तरह केवल शिक्षा ही समाज को रूढ़ियों एवं जड़ताओं से मुक्त कर सकती है और भारत के दलित-शोषित वर्गों में नई चेतना पैदा कर सकती है।3

अंबेडकर मानते थे कि आदमी केवल रोटी के सहारे जीवित नहीं रह सकता, उसे मस्तिष्क भी मिला हुआ है, जिसे विचारों की खुराक की जरूरत है। यह खुराक शिक्षा के जरिए ही मिल सकती है, प्रत्येक व्यक्ति का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि उसे शिक्षा की पर्याप्त खुराक मिले। इसलिए शिक्षा का मार्ग सभी के लिए खुला होना चाहिए। सभी के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। शिक्षा रूपी रौशनी मात्र कुछ ही लोगों तक सीमित नहीं रहे और साक्षरता प्रचार हेतु प्रौढ़ शिक्षा की योजना लागू की जाए। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक सबों की पहुँच रहे इसके लिए जगह-जगह सरकारी एवं विद्यालय विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए। शिक्षा पर कम-से-कम उतनी राशि अवश्य खर्च की जाए, जितना लोगों से उत्पाद शुल्क के रूप में सरकार वसूलती है।4 दलित एव पिछड़ी जातियों के प्रतिभा संपन्न और बुद्धिमान छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा हेतु प्रोत्साहन राशि देने के लिए सरकारी कोष की व्यवस्था हो।

डाॅ. अंबेडकर मानवीय शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार, मानव हित एवं सामाजिक उत्थान ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। मानव विकास एवं उन्नति के लिए मन की शिक्षा-दीक्षा अनिवार्य है, जैसा कि बौद्ध शिक्षा का विश्वास है। यदि मन नियंत्रित हो जाए, तो मानव एवं समाज के बीच सौहार्द एवं समन्वय हो सकता है। शिक्षा ही एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा मानव स्वयं को प्रबुद्ध बनाकर सामाजिक शक्तियों को संगठित कर सकता है और जो अन्याय, शोषण तथा बुराईयों का अंत करने में सहायक है। संक्षेप में, शिक्षा एवं संगठन के अभाव में कोई आंदोलन और किसी प्रकार का उत्थान संभव नहीं हो सकता।5

इसलिए, डाॅ. अंबेडकर ने अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए स्वयं उच्चतम शिक्षा प्राप्त किया और जीवनभर ‘शिक्षित बनो, संगठित होओ एवं संघर्ष करो’ का आचरण एवं उपदेश करते रहे। उन्होंने 1924 ई. में ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन कर शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस सभा के माध्यम से वंचित वर्गों के लिए महाविद्यालय, छात्रावास, पुस्तकालय, अध्ययन केन्द्र आदि खोले गए। साथ ही ‘सरस्वती बेलास’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया गया। सभा ने 1925 में सोलहपुर और बेलगाँव में छात्रावास और मुम्बई में दो छात्रावास के साथ-साथ एक मुफ्त अध्ययन केन्द्र की शुरूआत की। आगे डाॅ. अंबेडकर ने 1928 ई. में ‘डिप्रेस्ट क्लास एजूकेशनल सोसाइटी’ और 1945 में ‘लोक शिक्षित समाज’ की स्थापना की। इन दोनों संगठनों ने भी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

डाॅ. अंबेडकर ने शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का समर्थन किया। उन्होंने कहा है कि हमारी प्रगति में तीव्र गति से वृद्वि हा सकती है, यदि हम लड़को के साथ-साथ लड़कियों को भी शिक्षा दंे।6 डाॅ. अंबेडकर ने भारतीय स्त्रियों को धार्मिक एवं सामाजिक आडंबरों एवं जकड़नों से मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम स्त्री-शिक्षा पर जोर दिया। उनका मानना था कि अगर स्त्रियों की शिक्षा को पुरूषों की शिक्षा के साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए, तो हम जल्दी ही अच्छे दिन देखेंगे और हमारी प्रगति अत्यंत तीव्र होगी। उन्होंने स्त्रियों से कहा, ”बहिनो! हर समाज में स्त्री का अपना अलग ही महत्व होता है। जिस घर की स्त्री शिक्षित एवं सुसंस्कृत होती हैं, उसके बच्चे भी सदैव उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हैं। स्त्रियों से ही घर बनता और बिगड़ता है। … आप अपने बच्चों को खूब पढ़ाइए और इस देश का शासक बनाइए।“7 उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित बनने के साथ-साथ चरित्रवान, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर भी बनने की सलाह दी। इस दिशा में डाॅ. अंबेडकर ने स्वयं भी भरपूर प्रयास किया। खासकर स्त्री-अधिकारिता से जुड़े ‘हिन्दू कोड बिल’ का निर्माण स्त्री-मुक्ति आंदोलन को उनकी अमूल्य देन है।8

‘शिक्षा’ एक दुधारी तलवार की तरह है। इसका अनुचित एवं उचित दोनों तरह से प्रयोग हो सकता है। मसलन, यथास्थितिवादी एवं रूढ़िगामी ताकतें शोषण-दमन एवं लूट-खसोट को जारी रखने के लिए शिक्षा का दुरुपयोग करती हैं। यदि शिक्षित व्यक्ति शीलवान नहीं हो, तो वह अपनी शिक्षा का उपयोग व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति और आम जनता को ढ़गने के लिए करता है। यही कारण है कि डाॅ. अंबेडकर ने शिक्षा के सकारात्मक उपयोग पर जोर दिया और इसके लिए नैतिकता या ‘शील’ का होना आवश्यक माना। उनके शब्दों में, “कोई पढ़ा-लिखा आदमी यदि शीलसंपन्न होगा, तो वह अपने ज्ञान का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करेगा, लेकिन यदि उसमें शील नहीं होगा, तो वह आदमी अपने ज्ञान का दुरुपयोग लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए करेगा।”9 शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव व्यवहार में साकारात्मक परिवर्तन कर उनका चारित्रिक विकास होना चाहिए। जो व्यक्ति चरित्रहीन एवं विनयरहित है, उनका जीवन पशु से भी गया गुजरा है। शिक्षा से विवेक पैदा होता है, जिससे अच्छे-बुरे का ज्ञान एवं निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। यह मनुष्य को स्वयं के अधिकार एवं कर्तव्य समझाने में सहायक होती है।
डाॅ. अंबेडकर आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा के पक्षधर थे और औद्योगिक शिक्षा पर विशेष बल देते थे। उनके अनुसार गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, साहित्य एवं नीतिशास्त्र को शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम होना चाहिए। साथ ही खेल-कूद, व्यायाम, स्वच्छता एवं स्वरोजगार को शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग बनाया जाना चाहिए। उनका मानना था कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा पाकर वंचित वर्ग अपनी भौतिक उन्नति कर सकता है, लेकिन वे नैतिक या चारित्रिक उन्नति की अवहेलना नहीं करना चाहते थे। यही कारण है कि उन्होंने हमेशा लोगों को धर्म या नैतिकता से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।

यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि डाॅ. अंबेडकर धर्म को मानव जीवन के लिए आवश्यक मानते थे, लेकिन धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड एवं पाखंड के विरोधी थे। डाॅ. अंबेडकर चाहते थे कि शिक्षा पारलौकिक मूल्यों का खंडन करे और समाजोपयोगी लौकिक मूल्यों की सृजन में सहयेागी बने। यह वास्तविक मानव जीवन पर अवलंबित हो और सबों के लिए हितकारी बने। शिक्षा के द्वारा शिक्षार्थियों में सदगुण धारण करने की शक्ति का विकास होना चाहिए। इसके लिए शिक्षकों का चरित्रवान होना आवश्यक है।

डाॅ. अंबेडकर के अनुसार शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं है, बल्कि यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक मुक्ति का मार्ग भी है। वे शिक्षा के माध्यम से समाज में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता जैसे उदात्त मूल्यों का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे।

उनके अनुसार आदर्श शिक्षक केवल विद्वान ही नहीं, बल्कि चरित्रावान भी होना चाहिए। शिक्षक व्यक्तिवादी विचारों से युक्त नहीं होना चाहिए। शिक्षक का दृष्टिकोण व्यापक हो और वह रूढ़ियों को तोड़ना एवं समाज को सम्यक् दिशा देने वाला यथार्थवादी होना चाहिए।

शिक्षकों के  गुण : डाॅ. अंबेडकर ने शिक्षकों के निम्न गुण बताए हैं10-
1. शिक्षक का शीलवान होना आवश्यक है- शिक्षक को हिंसा एवं जीव-हत्या नहीं करनी चाहिए। यह हत्या कर्म से ही नहीं, बल्कि मन और वचन से भी नहीं करनी चाहिए।

2. शिक्षक को चोरी, उठाईगीरी और किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए।

3. शिक्षक को व्यभिचार और बलात्कार जैसे दुष्कर्मों से हमेशा दूर रहना चाहिए।

4. शिक्षक को सर्वदा सत्य का अनुशीलन करना चाहिए। उसे चुगलखोरी, कटु वचन, मिथ्या बकवास नहींे करनी चाहिए एवं सोच-समझकर संयम से बोलना चाहिए।

5. शिक्षक को शराब, भांग, गांजा, बीड़ी-सिगरेट, तम्बाकू एवं तम्बाकू से बने पदार्थो के सेवन से बचना चाहिए।

6. शिक्षक का प्रज्ञावान होना आवश्यक है। उसमें सत्य को सत्य और असत्य को असत्य को असत्य कहने अर्थात् दूध का दूध और पानी का पानी करने का गुण होना चाहिए।

7. शिक्षक में करूणा और दया की भावना का होना आवश्यक है, जिससे वह विद्यालय में निर्धन और कमजोर वर्ग के छात्रों की सभी प्रकार की सहायता कर सकें ।

8. शिक्षक में समानता का व्यवहार करने की भावना होनी चाहिए। उसमें जाति, अमीरी-गरीबी और समाज के किसी भी स्तर के आधार पर समान व्यवहार करने की भावना होनी चाहिए, अर्थात् उसमें पितृ एवं मातृतुल्य भावना होनी चाहिए।

9. शिक्षक का परिश्रमी होना अत्यंत आवश्यक है, जिसमें वह परिश्रम के साथ स्वयं अध्ययन कर सके और छात्रों को भी परिश्रम के साथ पढ़ा सकें।

10. शिक्षक के चरित्र में लोकतांत्रिक गुणों का समावेश होना चाहिए, जिससे छात्रों में लोकतांत्रिक एवं मानवतावादी गुणों का पैदा करके उन्हें स्थायी बना सके।

11. शिक्षक छात्र का पथ-प्रदर्शक होता है। उसे इस प्रकार की परिस्थियां एवं वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जिससे बालक क्रियाशील रहे और जो शिक्षा प्राप्त कर रहा है, वह उसके भविष्य के जीवन में उपयोगी रहे।

डाॅ. अंबेडकर शिक्षकों के साथ-साथ विद्यार्थियों में भी ईमानदारी, परिश्रम एवं अन्य नैतिक गुणों का समावेश चाहते थे। वे यह मानते थे कि किसी समाज की प्रगति उस समाज के बुद्धिमान, कर्मठ एवं उत्साही विद्यार्थी पर निर्भर करता है। जब समाज जागृत, सुशिक्षित एवं स्वाभिमानी होगा, तभी उसका विकास होगा। अपने गरीब और अज्ञानी भाईयों की सेवा प्रत्येक शिक्षित नागरीक का प्रथम कर्तव्य है। अधिकांश लोक बड़े पद पाते ही अपने असंख्य अशिक्षित भाईयों को भूल जाते हैं। यह समाज के प्रति घोर अपराध है।

उन्होंने शिक्षकों, विद्यार्थियों एवं आमजनों के लिए बौद्व धर्म का समर्थन किया है जो नैतिकता एवं सुशिक्षा का पर्याय है। बौद्व धर्मग्रंथ ‘महामंगलसूत्र’ में 35 नैतिक कर्म बताए गए हैं। ये हैं11 –
1. मूर्खों की संगति न करना, 2. बुद्विमानों की संगति करना, 3. पूज्यों की पूजा करना, 4. अनुकूल स्थानों पर निवास करना, 5. पूर्व जन्म के संचित पुण्य कका होना, 6. अपने को सन्मार्ग का लगाना, 7. बहुश्रुत होना, 8. शिल्प सीखना, 9. शिष्ट होना, 10. सुशिक्षित होना, 11. मीठा बोलना, 12. माता-पिता की सेवा करना, 13. पुत्र-स्त्री का पालन-पोषण करना, 14. व्यर्थ (गड़बड़) के काम न करना, 15. दान देना, 16. धर्माचरण करना, 17. बन्धु-बांधवों का आदर-सत्कार करना, 18. निर्दोष कार्य करना 19. मन-वचन और शरीर से पापों का त्यागना, 20. मद्यपान न करना, 21. धार्मिक कार्यो में तत्पर रहना, 22. गौरव करना, 23. नम्र होना, 24. संतुष्ट रहना, 25. कृतज्ञ होना, 26. उचित समय पर धर्म का श्रवण करना, 27. क्षमाशील होना, 28. आज्ञाकारी होना, 29. श्रमणों का दर्शन करना, 30. उचित समय पर धार्मिक चर्चा करना, 31. ब्रह्मचर्य का पालन करना, 32. चित्त को लोक धर्म से विचलित न करना, 33. निःशोक रहना, 34. निर्मल रहना और 35. निर्भय रहना।

डाॅ. अंबेडकर के अथक संघर्ष एवं दूरगामी सोच की ही यह फलश्रुति है कि आज दलितों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं शैक्षणिक स्थिति कुछ बेहतर हुई है, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसे नव विकसित दलितों में भी प्रायः सभी ब्राह्मणवादी बुराइयाँ घर कर गई हैं। ये नवब्राह्मणवादी दलित भी यह चाहते हैं कि दलितों के लिए निर्धारित सभी हक-अधिकार एवं सुविधाएँ उनके ही हिस्से आएँ, इसमें सामान्य दलितों की हिस्सेदार एवं भागीदारी नहीं हो। ऐसे स्वार्थी दलितों के बारे में डाॅ. अंबेडकर ने स्वयं कहा था, “मैं जो कुछ भी प्राप्त कर सका, उनसे कुछ पढ़े-लिखे लोग ही मजे ले रहे हैं। वे अपने कपटपूर्ण क्रियाकलापों के कारण बिल्कुल व्यर्थ हैं। उनके मन में अपने दलित भाइयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। … वे केवल अपने लिए और अपने हित लाभ के लिए जी रहे हैं।”12

डाॅ. अंबेडकर की यह पीड़ा मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था के लिए भी एक सबक है। आखिर क्यों हम शिक्षित तबकों में मानवीय मूल्यों, नैतिक संस्कारों एवं सामाजिक सरोकारों को भर पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं या इस ओर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं!

डाॅ. अंबेडकर एक महान राष्ट्रभक्त और भारतीयता के प्रबल समर्थक थे। इसलिए वे पश्चिमी-शिक्षा की बजाय भारतीय परंपरा से निकली बौद्ध-शिक्षा की हिमायत करते थे, लेकिन दुर्भाग्य से अंबेडकर की बातों को ठीक ढंग से नहीं समझा गया।13 उनके द्वारा हिंदू धर्म के विरोध को भारतीयता का विरोध एवं पश्चिमीकरण का समर्थन मान लिया गया, लेकिन यह अंबेडकर-दर्शन की मूल भावना के बिल्कुल विपरीत है।

ऐसे में हमें पुनः बौद्ध-दर्शन में निहित भारत की सच्ची शिक्षा-नीति के आलोक में अपनी नई वैज्ञानिक एवं लोकतांत्रिक शिक्षा-व्यवस्था के पुनर्निर्माण की जरूरत है। लेकिन, स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भी अक्षर-ज्ञान एवं पश्चिमी विज्ञान को ही अपना आदर्श माना और तथाकथित प्रगतिशिलता के नाम पर नीति एवं धर्म से शिक्षा का संबंध-विच्छेद कर दिया। यह स्थिति आज भी कायम है। हमारी सरकारें दर्शनशास्त्र एवं साहित्य आदि के अध्ययन-अध्यापन की उपेक्षा कर एमबीए, मैनेजमेंट आदि पाठ्îक्रमों को बढ़ावा दे रही है।14 अपने आपको डाॅ. अंबेडकर का अनुयायी कहने वाले कुछ तथाकथित दलित विचारक भी ‘अंग्रेजी माता’ एवं ‘मैनेजमेंट पिता’ के सहारे दलितोत्थान का ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘अंग्रेजी-मैनेजमेंट’ के सहारे एक दो प्रभुवर्गीय ब्राह्मण या दलित का विकास भले हो जाए, सर्वोदय या सामाजिक न्याय कभी नहीं आ सकता।

 

संदर्भ
1. चन्द्र, सुभाष; डाॅ. अंबेडकर से दोस्ती: समता एवं मुक्ति, साहित्य उपक्रम, नई दिल्ली, पृ. 25-27.

2. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; डाॅ. अंबेडकर ने कहा, संपादक: अनीता कुमारी, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, संस्करण-2010, पृ. 13.

3. प्रज्ञाचक्षु, डाॅ. सुकन पासवान; केवल दलितों के मसीहा नहीं हैं अंबेडकर, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, 2011, पृ. 134.

4. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 3, प्रधान संपादक: डाॅ. श्याम सिंह शशि, संपादक: कैलाश चंद्र सेठ एवं भारतीय नरसिंहमन, डाॅ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-मार्च 1994, पृ. 56.

5. जाटव, डाॅ. डी. आर.; डाॅ. अंबेडकर का मानववादी चिंतन, समता साहित्य सदन, जयपुर (राजस्थान), प्रथम संस्करण-1993, पृ. 10.

6. हिलसायन, सुधीर; ‘ज्ञान के प्रतीक बाबा साहेब डाॅ. अंबेडकर’, सामाजिक न्याय संदेश, डाॅ. अंबेडकर फाउंडेशन, नई दिल्ली, जुलाई 2016, पृ. 2.

7. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर; बाबा साहेब अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड: 3, पूर्वोक्त, पृ. 186.

8. भारती, कँवल; समाजवादी आंबेडकर, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 150-151.

9. अंबेडकर, डाॅ. बी. आर.; और बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा …, खंड: 5, संपादक: डाॅ. एल. जी. मेश्राम ‘विमलकीत्र्ति’, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृ. 148.

10. सुत्तनिपात, 2/4 महामंगलसुत्त.

11. डाॅ. धर्मकीर्ति; ‘डाॅ. अंबेडकर और उनका शिक्षा-सिद्वांत’, सामाजिक न्याय संदेश, डाॅ. अंबेडकर फाउंडेशन, नई दिल्ली, जुलाई 2014, पृ. 14-15.

12. रत्तु, नानक चंद; डाॅ. अंबेडकर: जीवन के अंतिम कुछ वर्ष, अनुवादक: डाॅ. आर. बी. लाल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008.

13. शेखर, सुधांशु; ‘शिक्षा और सामाजिक न्याय: संदर्भ डाॅ. अंबेडकर’, अनुप्रयुक्त दर्शन तथा नीतिशास्त्र के आयाम, संपादक:अम्बिकादत्त शर्मा, कंचन सक्सेना, शैलेश कुमार सिंह एवं दिलीप चारण, अखिल भारतीय दर्शन परिषद्, भारत एवं न्यू भारतीय बुक काॅरपोरेशन, नई दिल्ली, 2013, पृ. 276.

14. शेखर, सुधांशु; सामाजिक न्याय : अंबेडकर-विचारऔर आधुनिक संदर्भ, दर्शना पब्लिकेशन, भागलपुर (बिहार), 2014, पृ. 46.
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SUDHANSHU SHEKHAR