Covid-19। कोविड-19 : ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का अवसर

भारत मूलतः एक ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां कुल जनसंख्या का 68.8 प्रतिशत गांवों में निवास करता है। यहां कुल कार्यशील जनसंख्या का 72.4 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र से ही आता है। यद्यपि बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण कुल जनसंख्या, कार्यशील जनसंख्या और देश की जीडीपी में ग्रामीण क्षेत्र की भागीदारी वर्ष दर वर्ष कम हुई है। फिर भी समग्र रूप से ग्रामीण क्षेत्र का योगदान भारत को आज भी ग्राम प्रधान देश बनाता है।

कोरोना वायरस के कारण देश में आर्थिक व्यवस्था बेहाल है। अर्थव्यव्यस्था पूरी तरह झुलस गई। इसे पुनः सुदृढ़ करने के लिए अब भारत को एक नया मॉडल अपनाने की जरूरत है, जो अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा।

संपूर्ण आर्थिक व्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र विगत कई दशकों से महज कच्चे माल का स्रोत बनकर रह गया है। पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जो कृषि हस्तशिल्प लघु कुटीर उद्योग पर निर्भर थी, वह औद्योगिकीकरण, शहरीकरण तथा वैश्वीकरण के आगमन के साथ समाप्त होती चली गई। भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार कृषि नवीन तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद संकट का सामना कर रही है। यहां कुल श्रमिक शक्ति का करीब 60 प्रतिशत भार कृषि एवं सहयोगी कार्यों से आजीविका प्राप्त करता है। उसके बावजूद देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान केवल लगभग 16 प्रतिशत ही है। निर्यात के मामले में भी इसका हिस्सा महज 10 प्रतिशत ही है। ग्रामीण रोजगार के महत्वपूर्ण एवं आर्थिक क्षेत्र होने के बावजूद कृषि क्षेत्र से लोगों का पलायन जारी है।

एक अनुमान के मुताबिक करीब 40 प्रतिशत किसान अन्य रोजगार करना चाहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर भारी संख्या में पलायन हो रहा है। ग्रामीण रोजगार के लिए यह चिंता का विषय है।दूसरी चिंता अब पुनः मजदूरों का शहरों से गांव की ओर वापसी है, जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही दुखदायी है।
इन सभी समस्याओं के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था रिवर्स माइग्रेशन को भी देख रही है। अभी यह देश के भीतर लोग शहरों से वापस गांव की तरफ लौट रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह बड़े व्यापक रूप में दिख रहा है। वास्तव में यह लड़ाई कोरोना संकट तक सीमित नहीं है। यह लंबी लड़ाई है। यह वित्तीय वर्चस्व की लड़ाई है।

कोविड 19- वैश्विक संकट के बीच भारतीय परिदृश्य में आर्थिक दृष्टिकोण से सबसे अधिक चर्चा कुछ पहलुओं पर हो रही है। पहला यह कि अर्थव्यवस्था की सबसे कमजोर आबादी किसान असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले और मजदूरी के लिए शहरों में पलायन करने वाले मजदूर तथा शहरों में सड़क किनारे छोटा-मोटा व्यापारी आजीविका चलाने वाले। दूसरा यह अर्थव्यवस्था में उत्पादन करने वाले, वह क्षेत्र जो इस देश में पूंजी और गैर पूंजी वस्तुओं का उत्पादन करता है। यह असंतुलित होने से आपूर्ति तथा मांग को पूरी तरह से प्रभावित कर दिया है। इससे हमारी अर्थव्यवस्था गर्त में चले जा रही है।

ऐसे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से बहुत पूंजीवादी लाइलाज जैसे बीमारी जो कई सदियों पुरानी औपनिवेशिक युग लगभग (1773-1947) के दौरान अंग्रेज भारत से सस्ती दरों पर कच्ची सामग्री खरीदा करते थे।और उन्हें तैयार कर उत्पादित माल भारतीय बाजार में ही सस्ते मूल्यों के बजाय कहीं अधिक कीमत पर बेचा जाता था। यानि द्विमार्गी ह्रास बहुत अधिक ज्यादा होता था। इस अवधि के दौरान विश्व की आय में भारत का हिस्सा 23.3 प्रतिशत से गिरकर 1952 में 3.8% रह गया। वर्तमान में ठीक द्विमार्गी ह्रास मौजूद है। आज भी इस बाजार में कच्चे माल औने-पौने दाम पर खरीद पूंजीपति उन्हें तैयार कर भारतीय बाजार में ही कई गुना ज्यादा मुनाफा लेकर बेचते हैं। जो ग्रामीण और शहरी मध्यम तबके के लिए द्विमार्गी ह्रास और आय असमानता का कारण बनता है। इससे अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीबी की और धकेला जा रहा है। खासकर इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई है।

महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता और स्वनिर्भरता को ध्यान में रखकर किया। लेकिन आज की स्थिति वैश्वीकरण के साथ विकास की ओर जोर लगी है। इस विकास के नए आयामों को गढ़ा जा रहा है, जो आत्मघाती से कम नहीं है।
कुल मिलाकर अगर कहें, तो आर्थिक विकास कि दृष्टि से भारत में कृषि आधारित उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने हेतु सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में भारत को एक नया ‘मॉडल’ अपनाने की आवश्यकता है। यह ‘मॉडल’ अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा। इस समय भारत को भौतिक विकास की जगह वैकल्पिक सभ्यता के लिए विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। भारत को अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए विकास का एक वैकल्पिक मॉडल में लोकलाइजेशन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ग्रामीण जीवन के इन आधार मूल्यों का दोहन एवं अपहरण आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने किया है।विगत वर्ष गांव शहरी जीवनशैली और जीवन मूल्यों के कूड़ादान बन गए थे। लेकिन रिवर्स पलायन अब सच में शहर गांव की जीवन शैली मूल्यों तथा उनकी आत्मा गांव में बसने को तैयार है।

इस प्रकार समावेशी और सतत विकास ऐसे में “स्मार्ट सिटी” के साथ “स्मार्ट विलेज” की भी बात होनी चाहिए। “मेक इन इंडिया” के साथ साथ “मेक इन रूरल इंडिया” जैसे कदम की आवश्यकता है। वैकल्पिक मॉडल ग्लोबलाइजेशन के साथ-साथ लोकलाइजेशन पर ध्यान देना चाहिए। इस तरह की पहल से देश में अधिक श्रम बल, अधिक से अधिक लोगो के हाथों पैसा, उनकी आय में वृद्धि जिससे समस्त मांग प्रभावित होंगे। उन्हें पलायन होने से रोका जा सकता है।

इससे ग्रामीण के साथ शहरी जीवन की भी स्लम, प्रदूषण, अपराध जैसी तमाम व्याधियों का उपचार भी संभव है। भारत जैसे देश में गांव की आत्मनिर्भरता ही मानवीय गरिमा की गारंटी देगी। इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती व विकास ही देश के भविष्य और यही बेहाल अर्थ-व्यवस्था से करेगा बेड़ा पार।देश का वह हिस्सा जिसे हम सब वास्तविक भारत (ग्रामीण) कहते हैं, उसकी प्रगति ही देश की प्रगति है।

-अमरेश कुमार अमर,
शोधार्थी, अर्थशास्त्र विभाग, बी. एन. मंडल. विश्वविद्यालय, मधेपुरा बिहार