कोरोना से बचाव : सामाजिक दूरी की अपेक्षा में संयम का व्यावहारिक महत्त्व/प्रो. इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी  अध्यक्षा, दर्शनशास्त्र विभाग  हे. न. ब.  गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर [गढ़वाल], उत्तराखंड

कोरोना से बचाव : सामाजिक दूरी की अपेक्षा में संयम का व्यावहारिक महत्त्व

प्रो. इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी

अध्यक्षा, दर्शनशास्त्र विभाग, हे. न. ब.  गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय,श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड

वर्तमान कोरोना के कहर के पहर में सामाजिक दूरी का निर्देश एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षात्मक उपाय के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है| सामाजिकता और सामाजिक सम्बन्ध मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, इसीलिए उसे एक सामाजिक प्राणी कहा जाता है| ऐसी सहज सामाजिक वृत्ति धारक मानव जीवन सुरक्षा हेतु सामाजिक दूरी बनाये रखने के लिए विवश है| 

यद्यपि सामाजिक दूरी के नाम पर मूल रूप शारीरिक दूरी की बात की जा रही है| यथा- व्यक्तियों की शारीरिक उपस्थिति में एक मानक दूरी बनाये रखी जाये| सार्वजनिक स्थलों पर सामूहिक उपस्थिति प्रतिबंधित की जाये| स्पर्श के मनाही के गर्मजोशी से हाथ न मिलाये जाये|दूसरे शब्दों में वायरस संक्रमण के संभावित मार्गो को अवरुद्ध किया जाये| प्रत्येक सामाजिक संबंधों के दायित्त्व-निर्वहन में शारीरिक उपस्थिति, सम्पर्क एवं संसर्ग की इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है कि आज के संकट कालीन युग में शारीरिक दूरी के स्थान पर सामाजिक दूरी का समानार्थक आशय में प्रयोग किया जा रहा है| अपने मूल सामाजिक स्वभाव के विरुद्ध सामाजिक दूरी के साथ दिनचर्या निर्वहन में व्यक्ति नकारात्मकता और अवसाद में फंसता जा रहा है|

जब परिस्थिति बिल्कुल विपरीत हो, तो नकारात्मक सोच और अवसाद के बजाय संयम और संतुलन की अधिक आवश्यकता होती है|  अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में  संयम एक प्रकार का संतुलन समझा जा सकता है|संयम इधर-उधर विचरती इच्छा के संतुलन का, संयम क्षणिक सुख से ध्यान हटाकर दीर्घ कालिक कल्याणकारी वृत्तियों को अपनाने का, संयम भविष्य में अनुपलब्धता के भय से अनावश्यक संग्रह न करने का, संयम लापवाह सामान्य दिनचर्या से हटकर अति सावधानी पूर्वक व्याधि कालीन स्वच्छता के मापदंडो को अपनाने का, संयम नैसर्गिक सामाजिक संसर्गों की इच्छा को नियंत्रित कर सामाजिक दूरी बनाने का तथा स्वार्थ और परार्थ के बीच एक संतुलन बनाने का है|

    पातंजलयोगसूत्र में संयम की अवधारणा यद्यपि आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए प्रस्तुत की गयी है, परन्तु  यह आज के विचलनयुक्त समय में मानवीय मनःस्थिति के संयम के लिए भी उतनी ही उपयोगी है| संयम के त्रिचरण- धारणा, ध्यान और समाधि को जीवन और आजीविका के संघर्ष से उपजे विकट समय में संयम के लिए कुछ इस प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है| भय, इच्छा, असंतोष और निराशा की बाह्य वृत्तियों से हटाकर मन को अन्तर्मुखी कर ‘सर्वांगीण स्वास्थ्य’ की धारणा बनाने का प्रबल प्रयास किया जा सकता है|

     यह शाश्वत सत्य है कि अनेक बार सामान्य समय में भी जब  स्थितियां अपने नियंत्रण में नहीं होतीं हैं, तो मानव को अपनी प्रवृत्ति उसके अनुरूप बदलनी पड़ती है| कोरोना से उपजी कठिन परिस्थिति में, जब मानव के नियंत्रण में कुछ भी नहीं है, तो सावधानी और बचाव के लिए अपनी प्रवृत्ति कल्याणकारी ‘सर्वांगीण स्वास्थ्य’ की धारणा पर केन्द्रित करनी ही होगी

एक बार अगर ‘सर्वांगीण स्वास्थ्य’ की धारणा पर केन्द्रित हो जाए तो एकाग्र ध्यान भी उसी पर होगा| चूँकि व्यक्ति का विचलनकारी वृत्तियों से हटकर कल्याणकारी मार्ग पर केन्द्रित होगा, तो उसकी नैसर्गिक सामाजिक संसर्ग की वृत्ति एकांत वास की वृत्ति की ओर उन्मुख होगी| ऐसी स्थिति में सामाजिक दूरी अकेलापन नहीं ‘एकांतवास’ में आत्म-विश्लेषण का सुअवसर होगा|

     इन दो स्तरों के अभ्यास के पश्चात् व्यक्ति समाधि की प्रतीकात्मक अवस्था में होने का अनुभव कर सकता है| समाधि की अवस्था में वह स्व और पर की चेतना के भेद से ऊपर उठकर एक समग्र चेतना की अनुभूति की ओर बढ़ेगा और इस अवस्था में उसके क्रिया-कलाप बृहद कल्याण की ओर ही उन्मुख  होगी

इस प्रकार संयम चाहे व्यावहारिक अर्थ में स्वीकार किया जाये या दार्शनिक-आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में अभ्यास किया जाये, संयम के अभ्यास से इस विषम काल में व्यावहारिक संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जा सकता है| आज की परिस्थिति में भय, नकारात्मकता, अवसाद और बेचैनी से सकारात्मकता की वृत्ति संयम और संतुलन से ही आ सकती है, इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है|

प्रो. इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी