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Vivekanand। विवेकानंद : नव वेदांत
SRIJAN.AALEKH

Vivekanand। विवेकानंद : नव वेदांत

विवेकानंद : नव वेदांत स्वामी विवेकानंद ने ‘वेदांत’ को काफी व्यापक संदर्भों में स्वीकार किया है और इसके अंतर्गत प्रायः समस्त भारतीय दार्शनिक संप्रदायों का समावेश मान लिया है। उनके शब्दों में, ‘वेदांत भारत के सभी संप्रदायों में प्रविष्ट है।... वेदांत ही हमारा जीवन है, वेदांत ही हमारी साँस है, मृत्यु तक हम वेदांत के ही उपासक हैं ...।’’1 वास्तव में विवेकानंद यह मानते थे कि वेदांत के आदर्शों को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करके ही भारत विश्वगुरू की प्रतिष्ठा को वापस पा सकता है। साथ ही वे व्यावहारिक वेदांत के आधर पर एक ऐसा दर्शन विकसित करना चाहते थे, जो समस्त संघर्षों को दूर कर मानव जाति को बहुमुखी संपूर्णता के उस स्तर तक उठा सके, जो उसका प्राप्य है।2 उन्होंने वेदांत की विभिन्न व्याख्याओं की उपयोगिता को स्वीकार किया है और उसकी एक नई बुद्धिगम्य, वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या की। इससे अद्वैत...
Vivekanand। विवेकानंद : सार्वभौम धर्म
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Vivekanand। विवेकानंद : सार्वभौम धर्म

विवेकानंद : सार्वभौम धर्म साधारणतः ‘धर्म’ शब्द से हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म आदि का बोध होता है अथवा इन प्रचलित धर्मों के उपासना-स्थलों में जाकर विशेष प्रकार से प्रार्थना या पूजा-पाठ करना धर्म माना जाता है। लेकिन, स्वामी विवेकानंद ‘धर्म’ को इस प्रचलित अर्थ में नहीं लेते हैं। धर्म से मतलब किसी औपचारिक या प्रचलित धर्म से नहीं है, वरन् इससे अभिप्राय उस धर्म से है, जो सभी धर्मों को रेखांकित करता है और जो हमें अपने सृष्टिकर्ता (रचयिता) के सम्मुख खड़ा करता है।“ उनके अनुसार धर्म तत्वमीमांसीय एवं नैतिक जगत के सत्यों से संबद्ध है। धर्म का अर्थ है, एक वैश्विक सत्ता के नैतिक सुशासन में विश्वास। जाहिर है कि उनके लिए धर्म और नैतिकता एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म के संदर्भ के बिना नैतिक जीवन ऐसा ही है, जैसे बालू के आधार पर बना भवन। यदि धर्म को नैतिकता से अलग कर दिया जाए, त...