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Poem डाकिये से भेंट। विनय सौरभ।
डाकिये से भेंट। विनय सौरभ
ऐसी तेज़ होती बारिश में तक़रीबन पच्चीस सालों के बाद वे मिलेंगे/यह हैरत होती है सोच कर!/वे मिले मुझे एक दवाई की दुकान पर/बारिश की बौछारों से बचते हुए/बरसों देखे गये उस चेहरे को/भूलना असंभव था!/आप यहां कैसे?/रोमांच से और थोड़े संकोच से/ मैंने पूछा-बहुत मोटे चश्मे के शीशे के भीतर से झांकते हुए/उन्होंने मुझे ताका और एकाएक आ गयी मुस्कान के बीच/कहा कि पहचान में अब दिक्क़त होती है/आप विनय हैं न नोनीहाट वाले?/पहचान लेने की ख़ुशी/उनके चेहरे पर पसर गयी थी/अपने कपड़े का झोला संभालकर/कंधे पर चढ़ाते हुए/उन्होंने मेरे दोनों हाथ थाम लिये/यहां डॉक्टर को दिखाने आये थे/सांस बहुत फूलती है अब/क्या आप यहीं रहते हैं गोड्डा में?/अपनी रौ में बोले जा रहे थे/अपनी जात का डॉक्टर है/पर रहम नहीं है ज़रा भी/ग़रीबों से भी पूरी फ़ीस लेते हैं/हां अब ऐसा ही है , मैंने कहा -अधिकांश डॉक्टर अब किसी...