Ambedkar अपने-अपने आम्बेडकर /प्रेमकुमार मणि

अपने-अपने आम्बेडकर
प्रेमकुमार मणि
आज बाबासाहब आम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस है। 6 दिसम्बर 1956 को उनका निधन हुआ था। कुछ ही हप्ते पूर्व 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। बौद्ध भिक्षुओं का दिवंगत होना बौद्धों की सभ्यता में परिनिर्वाण कहा जाता है। अतएव 6 दिसम्बर बाबासाहब का परिनिर्वाण दिवस है।
आम्बेडकर ( 1891 – 1956 ) का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। अछूत कहे जानेवाले महार परिवार में उनका जन्म हुआ था। अछूतों की स्थिति का आकलन कोई भी संवेदनशील कर सकता है। महाराष्ट्र उनका प्रान्त था। जहाँ पेशवा -मराठाओं की बहादुरी की गाथा इतिहास के पन्नों पर तैर रही होती हैं। यह पेशवा ही थे जिन्होंने अपने राजकाज और समाज में वर्णाश्रमी मनुवादी व्यवस्था को पुणे और लगभग पूरे महाराष्ट्र में प्रभावी बना दिया था। मनुवादी समाज व्यवस्था का केन्द्रक यह मान्यता है कि जो सबसे अधिक शारीरिक और चुनौतीपूर्ण कार्य करता है, वह उतना ही नीच है। मानसिक कार्य करने वालों को इस व्यवस्था में ऊँचा स्थान हासिल होता है। कुछ यही कारण हुआ कि भारत मानसिक कार्य वाले क्षेत्र में तो अच्छा कर गया, किन्तु शारीरिक मिहनत और चुनौतीपूर्ण कार्य के सभी क्षेत्रों में पिछड़ गया। मसलन हमारे देश -समाज में गणित और भाषा पर अच्छा कार्य हुआ। हमने डेढ़ हजार से भी अधिक वर्ष पूर्व पाई का मान तीन अंकों तक निकाल लिया। शून्य की खोज कर ली। लेकिन निर्माण और उत्पादन से जुड़े लोगों को ज्ञान से दूर करने की कोशिश ने औद्योगीकरण और मशीनों के विकास में हमें पीछे कर दिया। हम सोमनाथ के मंदिर के ध्वस्त होने पर खूब माथा पीटते हैं।आज़ाद होते ही हमारे पटेल बाबू ने उसका पुनर्निर्माण करवा दिया। लेकिन हम इस बात पर कभी कोई विचार नहीं करते कि उस मंदिर से तत्कालीन तकनीक और विज्ञान का एक बड़ा साक्ष्य भी ध्वस्त हुआ था । उस विज्ञान और तकनीक की पुनर्स्थापना और विकास के लिए हमने कुछ नहीं किया। सोमनाथ मंदिर में विष्णु की प्रतिमा मंदिर के बीचो- बीच हवा में स्थित थी। कहीं से कोई सपोर्ट नहीं। गजनी के लुटेरे चकित थे। अंततः उनके कारीगरों के एक दल ने पता लगाया कि मंदिर चुम्बकीय पत्थरों के ऐसे विन्यास से निर्मित है कि यह प्रतिमा हवा में बीचोबीच बिना किसी सपोर्ट के स्थित है। मंदिर के पत्थरों के हटाने से यह गुत्थी सुलझी। न्यूटन से इतने समय पूर्व हमारे कारीगरों को गुरुत्वाकर्षण का भेद मालूम था। हमारे समाज का दुर्भाग्य रहा कि हमने मंत्रों की संहिताएं तो खूब बनाईं, किन्तु कारीगरों की तकनीक हम ग्रंथों में सुरक्षित नहीं रख सके। बढ़ई -लुहारों -मिस्त्रियों के हुनर को शब्द देने में ये ब्रह्म स्वरुप शब्द क्या अपनी गरिमा खो नहीं देंगे ? हमने मिटटी के बर्तन, ईंटें,खपड़े बनाने वालों, दूध से दही और फिर उससे घी -मक्खन बनाने वालों, सब्जियों-फलों और अनाजों की विभिन्न प्रजातियों को उपजाने वालों की तकनीक को कभी लिपिबद्ध करने की कोशिश की? नहीं की। क्यों ? इसलिए कि जो उत्पादनकर्ता थे, उन्हें हमने शब्द और लिपि के ज्ञान से जबरन दूर कर रखा था। एक बड़ी आबादी को अछूत बना कर हमने उन्हें अपने नागरिक जीवन से बाहर कर दिया था। वे न हमारे समाज के हिस्सा थे, न देश के। वे बहिष्कृत भारत थे। बाबासाहब इसी बहिष्कृत भारत के अनागरिक थे।

परिस्थितियां ऐसी बनीं कि बाबासाहब को आधुनिक शिक्षा हासिल करने का अवसर मिला। वह प्रथम महार थे जिन्होंने मैट्रिकुलेशन किया था। वह पश्चिम के देशों में जाकर शिक्षा ग्रहण करने वाले भी प्रथम अछूत थे, जैसे गांधी प्रथम बनिया थे जिन्होंने इंग्लैंड जाकर अंग्रेजी कानून में डिग्री हासिल की। आधुनिक शिक्षा और अपने विलक्षण सोच ने आम्बेडकर के व्यक्तित्व को बदल डाला। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वह एक तरफ पश्चिम में शिक्षित और उसके तौर तरीकों से प्रभावित एक आधुनिक इंसान हैं, तो दूसरी तरफ उनके अंतर्मन में सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे ब्राह्मणत्व के संस्कार हैं। नेहरू स्वीकार करते हैं कि इसकी एक जबरदस्त रस्साकशी उनके भीतर है,जो उनके व्यक्तित्व का नियमन करती है। ठीक इसी तरह आम्बेडकर का व्यक्तित्व भी दोहरा है। एक तरफ वह यूरोप में शिक्षित नई सोच के इंसान हैं, तो दूसरी तरफ उनका वह दलित संस्कार जो हजारों वर्षों से प्रश्रयप्राप्त द्विज हिन्दुओं द्वारा कुचला गया है। लेकिन आधुनिक यूरोपीय शिक्षा और दलित मुक्ति के प्रश्न के बीच कोई द्वंद्व वह नहीं पाते; जैसे गांधी और नेहरू अपनी किताबों ‘ हिन्द स्वराज ‘ और ‘ डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘ में क्रमशः पाते हैं। गांधी और नेहरू के हिन्द व भारत को पश्चिमी संस्कृति ने गुलाम बना लिया है। वह उस हिन्द और भारत की खोज करते हैं,जहाँ उनका सबकुछ सुन्दर था। वह उसकी तरफ लौटना चाहते हैं, या उन दिनों को लौटाना चाहते हैं।

अतीत की खोज आम्बेडकर भी करते हैं। अनेक किताबों,खास कर अपनी आखिरी और अधूरी किताब ‘ रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन अन्सिएंट इंडिया ‘ में इस अतीत से वह जूझते हैं। लेकिन वहाँ वह स्वयं को शूद्र अथवा निर्वर्ण अछूत -चांडाल के रूप में पाते हैं। तमाम हिन्दू ” सद्ग्रन्थ ” उनकी गुलामी के फलसफे के सिवा कुछ नहीं हैं। मुश्किल से बुद्ध को वह ढूँढ लाते हैं और उनसे एक तादात्म्य स्थापित करते हैं।

मैं बीसवीं सदी के चार महत्वपूर्ण हिन्दू चिंतकों रवीन्द्रनाथ टैगोर, मोहनदास गांधी ,जवाहरलाल नेहरू और भीमराव आम्बेडकर में एक समान सूत्र देखता हूँ। चारों यूरोप में शिक्षा प्राप्त करने गए, लेकिन इनमें से कोई भी यूरोप से बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुआ। टैगोर को बंगाल के बाउल गीतों और कबीर ने खींच लाया तो गांधी रामराजी बन गए। नेहरू को भारत के अतीत ने प्रभावित किया, जिसमें बुद्ध और ब्राह्मण धर्म दोनों थे। निःसंदेह उन्होंने ब्राह्मण धर्म की अतिरेक प्रसंशा नहीं की ,लेकिन आलोचना के लिए उत्साहित होने का कोई आधार भी उनके पास नहीं था। वह उसी प्रश्रयप्राप्त तबके से थे।लेकिन बेचारे आम्बेडकर ! बहुत ढूंढा अतीत में अपने को। इस कोशिश में ‘ हु वेयर द शूद्राज ‘ एक किताब भी लिखी। लेकिन कुल मिला कर वह खुद ही प्रहसन बन गए ।वह अब एक पृथक प्लेटफार्म पर आते हैं। उनके भीतर एक गुत्थी सुलझती है। भारत एक नहीं, अनेक है; कम से कम दो तो अवश्य। और यह सिलसिला कोई आज से नहीं पुराने ज़माने से चला आ रहा है. एक तरफ ब्राह्मण भारत है, तो दूसरी तरफ श्रमण भारत। इन दोनों के बीच का सांस्कृतिक संघर्ष ही भारत का वास्तविक संघर्ष है। आम्बेडकर ने अपनी आखिरी किताब में इसी सोच को निरूपित किया है।
आम्बेडकर सभ्यता समीक्षक थे और उनकी सोच में नेहरू से थोड़ी निकटता है। लेकिन नेहरू जिन संस्कारों से स्वयं आबद्ध होने की बात स्वीकारते हैं, आम्बेडकर के पास उन संस्कारों का अभाव था। उनका दलितपन उन्हें स्वाभाविक रूप से कुछ अवदान प्रदान करता है, जैसे दुःख हमें सोच के कुछ दिव्य अवसर देता है। आम्बेडकर ने अपने भारत को इसी रूप में देखा। उनके पास सोच के वही सरंजाम थे, जो कार्ल मार्क्स या किसी अन्य आधुनिक बुद्धिजीवी के पास सामान्य तौर पर रहे हैं। इंग्लैंड में पार्लियामेंट के विकास, अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष और फ्रांसीसी क्रांति को आम्बेडकर ने भी कार्ल मार्क्स की तरह ही अपना प्रेरणा स्रोत माना। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बुद्ध , कबीर और जोतिबा फुले के वैचारिक संघर्ष के महत्व को उन्होंने रेखांकित किया और उसकी अगली कड़ी बनने की भरसक कोशिश की। बने भी। कार्ल मार्क्स ने कहा है कि मनुष्य को आर्थिक आज़ादी दे दो, वह सब कुछ प्राप्त कर लेगा। आम्बेडकर ने कहा मनुष्य को इज़्ज़त की ज़िंदगी दे दो,वह सबकुछ हासिल कर लेगा। यही मार्क्स और आम्बेडकर का भेद है।

लेकिन बार -बार उनकी राजनीति को ही अधिक रेखांकित करने की कोशिश होती है। भारत की स्वतंत्रता का इतिहास अबतक बहुत गड्डमड्ड ढंग से लिखा गया है। वैज्ञानिक परिदृष्टि का यहाँ अभाव दिखता है। यूरोपीय इतिहासकारों की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। भारतीय इतिहासकारों ने अधिक भ्रम विकसित किए हैं। इनमें पंडित सुंदरलाल से लेकर बिपनचंद्र तक शामिल हैं। आम्बेडकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के प्रश्न पर उस तरह संघर्षरत नहीं हैं, जैसे तिलक और दूसरे कांग्रेसी नेता। गांधी भी अपने आरंभिक संघर्ष में किसानों और दूसरे चरण के संघर्ष में ( जो आम्बेडकर के प्रभाव में हुआ ) ” हरिजनों ” ( अछूतों ) केलिए जब संघर्षरत हुए, तब कुछ लोगों के लिए उन्हें समझना मुश्किल हो रहा था। आम्बेडकर अपने भारत की आज़ादी केलिए सतत संघर्षशील रहे। उनके लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद कुछ सुविधाएं दे रहा था। जिस भारत की आज़ादी केलिए वह संघर्ष कर रहे थे, उस पर प्राथमिक गुलामी ब्राह्मणवादी सोच की थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इसे बहुत कुछ हतोत्साहित किया था। आम्बेडकर ने इस गुत्थी को समझा था कि इस ब्राह्मणवादी सोच ने इस्लामी वैचारिक सोच से तादात्म्य स्थापित कर एक ‘ सांझा संस्कृति ‘ विकसित कर ली है। यह सांझा -संस्कृति पंडितों और मुल्लों की एकता थी, जिसका एक साकार रूप मध्यकाल में शाहजहां के बेटे दारा शिकोह में दिखता है। ब्राह्मणवाद की कोशिश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भी संगति बैठाने की हुई थी। ओरिएन्टलिज़्म इसी का प्रकटीकरण था। मध्यकाल में कबीर और आधुनिक काल में जोतिबा फुले ने इस गुत्थी को समझा था और अपनी तरह से जवाब दिया था। आम्बेडकर सबसे मुश्किल दौर में थे। ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी तथाकथित राष्ट्रीय संघर्ष में उन्हें अपना पक्ष रखना था। यह काम राजनीतिक भी था और सांस्कृतिक भी। क्या आम्बेडकर को तिलक, गांधी और नेहरू के भारतमाता के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए था? या कोई और अन्य पक्ष रखना चाहिए था?
आम्बेडकर उलझन में जरूर रहे, लेकिन उन्होंने अपनी मुख्य सोच को समर्पित नहीं होने दिया। कुल मिला कर वह उन्नीस सौ तीस के दशक में राजनीतिक रूप से सक्रिय हुए। दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग और पूना पैक्ट के विवरणों में मैं नहीं जाना चाहूंगा, क्योंकि अधिकांश लोग इन बातों से अवगत हैं। यह आंदोलन आम्बेडकर की उस योजना का एक पक्ष था जिसमें दलितों को वह लोकतान्त्रिक राजनीति के बीच एक संरक्षण देना चाहते थे। जब संरक्षण अथवा आरक्षण की बात होती है, तब कहीं न कहीं आप प्रश्रयप्राप्त तबके की प्रच्छन्न गुलामी को स्वीकार भी लेते हैं। इस बात का एहसास आम्बेडकर को था। इसलिए मैं उनकी पहली बड़ी लड़ाई 1936 का वह उद्घोष मानता हूँ,जब उन्होंने जातिवाद के उच्छेद अथवा खात्मे भी सार्वजनिक मांग की। यह उद्घोष कुछ -कुछ मार्क्स -एंगेल्स के 1848 में प्रस्तुत किए गए कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की तरह था। वैसी ही तुर्सी, वैसा ही आवेग। इस का सम्यक अध्ययन अभी होना है। कुल मिला कर आम्बेडकर की राजनीति गांधी -नेहरूवादी राष्ट्रीय आंदोलन की सम्यक आलोचना है। इस आलोचना के बिना हम राष्ट्रीय आंदोलन को समझ ही नहीं सकते। इतने विशिष्ट और वृहद् आंदोलन का आलोचक होना सामान्य बात नहीं है। गौतम बुद्ध अपने वास्तविक रूप में वैदिक आंदोलन और सभ्यता के आलोचक ही तो हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आम्बेडकर को दलित राजनीति में बाँध कर रख दिया गया है। बहुतों केलिए उनका महत्व बस भारतीय संविधान का ड्राफ्ट लिखना और बहुत कुछ तो दलितों के लिए उसमें आरक्षण का प्रावधान जोड़ने के मामले पर संघर्ष करना है। यह आम्बेडकर के जीवन का ऐसा पक्ष है,जिसकी उपेक्षा भी की जा सकती थी। भारतीय संविधान से वह बहुत खुश नहीं थे। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में उनके द्वारा दिए गए भाषण को आप देखें तो उनकी पीड़ा साफ़ झलकती है। उन्होंने कहा भारतवासियों को केवल राजनीतिक आज़ादी मिली है। खासकर एक व्यक्ति एक वोट की आज़ादी। लेकिन सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के लिए सिर्फ वायदे हैं। उसे सुनिश्चित नहीं किया गया है। अपने वक्तव्य के आखिर में उन्होंने यह कहा कि सामाजिक -आर्थिक विषमता पर टिकी कोई व्यवस्था ( यहाँ अर्थ लोकतंत्र ) बहुत दिनों तक नहीं रह सकती। विषमता के शिकार लोग उसे ध्वस्त कर देंगे।
आम्बेडकर ने जैसे दो तरह के भारत को देखा था, वैसे ही आज दो तरह के आम्बेडकरवादी दिख रह रहे हैं। आरक्षण की सुविधा से टिकट और नौकरियां पाकर आए हुए राजनेता और अफसर आज बाबासाहब की मूर्ती पर मोटी माला डालेंगें और शाम को मित्रों के साथ जाम के ग्लास टकराएंगे। अधिक से अधिक हुआ तो जाति जनगणना की मांग में हाथ उठा कर अपने राजनीतिक क्रियाकलाप को अंजाम दे देंगे, मानो कोई क्रांति का फलसफा लिख मारा हो। लेकिन जो उनके वास्तविक वैचारिक उत्तराधिकारी हैं वे गाँवों कस्बों और आदिवासी इलाकों में सामाजिक -आर्थिक समानता के आंदोलन को गति दे रहे हैं। संघर्ष कर रहे हैं। कुछ लोग अर्बन नक्सली के रूप में भगवा सरकार द्वारा तबाह किए जा रहे हैं।

आप मूर्ती और माला वाली कतार में हैं; या संघर्ष वाली कतार में ?