Poem। कविता। फर्क

घुप्प अंधेरे और उजाले के बीच बहुत फर्क होता है साथी,
उतना ही फर्क होता है जितना की तुम्हारे हाथ के चांदी के चम्मच, और मेरे मिट्टी के .
चोट खाना, गिरना , घेरेबंदी में जकड़ जाना , कुछ नया तो नहीं .
तुम्हारे लिए जो पल भर में हासिल है, वो हमारे लिए सदियों की जकड़न से आजादी है.
तुम्हारे मेरे बीच कुछ भी साम्य नहीं है साथी,
ना तो रूप का, ना ही अंतर्वस्तु का .
तुम प्रमाणित हो, हमें हर दिन प्रमेय की कसौटी पर स्वयं को सिद्ध करना होता है साथी .
फिर भी,
एक जिद्द है, जो कभी झुकने नहीं देती हमें ,
एक भरोसा है, जो कभी रुकने नहीं देता है हमें .

डॉ बंदना भारती
पूर्णियाँ विश्वविद्यालय पूर्णियाँ