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कहानी बिहार के पहले दलित सांसद की…

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पुण्यतिथि विशेष डॉक्टर राठौर की कलम से…..

*कहानी बिहार के पहले दलित सांसद की*

किराए मुसहर यूं तो एक सामान्य सा नाम है लेकिन जब इस नाम के तह में जाते हैं तो अनगिनत उपमाएं आकार लेती हैं देश की पहली संसद में इस क्षेत्र के पहले सांसद,बिहार के पहले दलित सांसद, सांसद बनने से पहले और सांसद के बाद भी खेतों में मजदूरी करने वाले एक ऐसे सांसद जो ट्रेन की फर्श पर बैठकर दिल्ली पहुंचे और आजाद भारत में राजनीति की अलग परिभाषा तैयार की।
प्रथम लोकसभा चुनाव में कोसी अंचल में एक ऐसे ही सांसद थे किराए मुसहर सांसद बनने से पहले मजदूर थे और मरने के दशकों बाद भी उनका परिवार दूसरों के खेतों में मजदूरी को विवश हैं.आज किराए मुसहर की 60वीं पुण्यतिथि है लेकिन शायद ही बिहार सरकार अथवा स्थानीय स्तर पर किसी को उनकी याद हो. उनका जन्म दलित परिवार में 17 नवंबर 1920 को मधेपुरा के मुरहो गांव में हुआ था जो मुख्यतः मंडल आयोग के प्रणेता बी पी मंडल के कारण चर्चित है।
आजादी के बाद 1952 में जब प्रथम आम चुनाव हुए तब भागलपुर-पूर्णिया संयुक्त लोकसभा क्षेत्र से किराई मुसहर को सोशलिस्ट पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया गया और वो लोकसभा क्षेत्र सांसद निर्वाचित भी हुए थे. दूसरों के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर का सांसद बनना आजाद भारत में एक बड़े बदलाव की आहत जैसी ही थी. महात्मा गांधी और डॉ.लोहिया के विचारों का उनके जीवन पर प्रभाव जरूर था।
लोग बताते हैं एक बार जब महात्मा गांधी कोशी आए और आने की खबर सुनकर वह सहरसा चले गए उन्हें देखने. वापस लौटने पर मालिक ने काम से ही हटा दिया था जिससे उनके जीवकोपार्जन पर संकट आ गया,बाद के दिनों में अन्यत्र हलवाहे का काम करने लगे
उस दौरान डॉ.राममनोहर लोहिया और उनके कुछ समकालीन नेताओं के संपर्क में आ चुके थे. खेती बारी के काम से समय निकाल सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर पहुंच जाया करते. वहां डॉ.राममनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी और जयप्रकाश नारायण से जुड़े प्रसंगों के अलावा देशकाल व परिस्थिति पर बहस सुनने का मौका मिलता।प्रभाव ऐसा रहा कि सोशलिस्ट पार्टी से जोड़ने का प्रयास करने लगे।

*डॉ. लोहिया ने रखा था किराए मुसहर के नाम का प्रस्ताव*

डॉ.राममनोहर लोहिया हमेशा बिहार को समाजवाद के लिए उर्वर भूमि मानते थे. पहले आम चुनाव की घोषणा के बाद तत्कालीन भागलपुर सह पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से योग्य उम्मीदवार की तलाश होने लगी।कई दिग्गज नामों की चर्चा हुई उनमें किसी पर सहमति नहीं बनी कुछ समय बाद डॉक्टर लोहिया ने कुर्ते की जेब से एक पर्चा निकाला और मेज पर रख दिया. किराई मुसहर का नाम देख सभी अचंभित हो गए .
सबने एक साथ कहा क्या चुनाव लड़ने से पहले ही आप पार्टी को हराना चाहते हैं? डॉ.लोहिया ने तत्काल उत्तर दिया, चुनाव सिर्फ जीतने की इच्छा के साथ नहीं लड़ा जाना चाहिए. बिहार जैसे जातिवादी-सामंती पृष्ठभूमि से जुड़े प्रदेश में वंचित समुदाय के लोगों को सामने लाना पहली जरूरत है. राजनीति में एक खास वर्ग के प्रभुत्व को खत्म किए बगैर भारत का यह नवजात लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा.

*जिस समय नाम पर लग रही थी मोहर उस समय खेत में मजदूरी कर रहे थे किराए मुसहर*

सर्वाधिक दिलचस्प यह भी था कि जिस समय यह कवायद चल रही थी उस वक्त किराई मुसहर खेत में काम कर रहे थे. अपनी उम्मीदवारी की खबर सुनकर वे सहरसा पहुंचे और डॉक्टर लोहिया से कहा मैं चुनाव लड़कर अपने परिवार को मुसीबत में नहीं डाल सकता. मैं भला चुनाव कैसे लड़ सकता हूं?डॉ.लोहिया ने कहा, ‘फैसला हो चुका है और इसे बदला नहीं जा सकता. वर्षों की गुलामी के बाद देश में पहला चुनाव हो रहा है. समाजवाद के नाम पर हम तुम्हारी बलि लेने आए हैं ऐसा ही समझो. अगर चुनाव तुम्हारी जीत होती है तो वंचितों को राजनीति में भागीदारी का यह संदेश बिहार से देश में जाएगा. अगर तुम हार गए तब भी एक सामाजिक प्रतिक्रिया होगी, चारों तरफ इसकी चर्चा होगी. इसके दो खतरे मुझे साफ दिख रहे हैं पहला सामंती मानसिकता के लोग सोशलिस्ट पार्टी से किनारा करेंगे लेकिन मुमकिन है कि इस चुनाव के बाद सोशलिस्ट पार्टी आम जनों की पार्टी बन जाएगी.’
डॉ. लोहिया की दलील सुनकर किराई मुसहर के पास चुनाव नहीं लड़ने का कोई तर्क नहीं बचा. इस तरह देश का पहला आम चुनाव संपन्न हुआ और भागलपुर सह पूर्णिया संसदीय क्षेत्र को एक ऐसा सांसद मिला, जिसकी न तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि थी और न ही कोई संपत्ति.और किराए मुसहर इस क्षेत्र के सांसद के साथ एक और उपलब्धि अपने नाम कर ली और वो उपलब्धि थी बिहार के पहले दलित सांसद की।

*सांसद बनने पर भी ट्रेन की सीट पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा सके किराए*

चुनाव जीतने के साथ देश की सबसे बड़ी सदन के सदस्य बनने के बाद मई 1952 में बतौर सांसद किराई मुसहर लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने दिल्ली के लिए निकले. लोग बताते हैं कि पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं ने किसी तरह चंदा जमा कर रेल भाड़ा और दिल्ली में उनके ठहरने का इंतजाम किया. सामान के नाम पर उनके पास सिर्फ एक बक्सा था जिसमें जरूरी कुछ सामान थे। खाने के नाम पर उनकी पत्नी ने सत्तू, चूड़ा, नमक और मिर्च बांध दिया था. सहरसा रेलवे स्टेशन पर गाड़ी में चढ़ाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी के कुछ कार्यकर्ता आए थे. सदियों से जारी शोषण और अत्याचार का आलम यह था कि
सामाजिक जातिगत हीनता की वजह से इस क्षेत्र के पहले सांसद ट्रेन में वह अपनी सीट पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा सके. दिल्ली तक का सफर उन्होंने रेल की फर्श पर बैठकर पूरा किया. ऊंची जातियों के समक्ष दलितों का खाट व कुर्सी पर बैठना आसान नहीं था. शायद यही वजह थी कि सांसद चुने जाने पर भी किराई मुसहर रेलगाड़ी में अपनी सीट पर बैठने का साहस नहीं कर पाए.

*संसद में पंडित नेहरू तक का खींचा था ध्यान*
दिल्ली पहुंचने पर सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेने पहुंचे किराए मुसहर के लिए सदन की भव्यता और अन्य सांसदों का परिधान असहज करने वाला रहा. भाषा की समस्या अलग ही थी।उनके समकालीन लोगों की माने तो एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की नजर सदन के आखिरी छोर में बैठे किराई मुसहर पर पड़ी. उन्होंने विनम्रता से पूछा, किराई जी आप बिहार के जिस क्षेत्र से आते हैं, क्या वहां कोई समस्या है? हिंदी बोल पाने में असमर्थ किराए मुसहर ने मैथिली भाषा में प्रधानमंत्री नेहरू से कहा था पंडितजी हमारे गांव में दलित समुदाय के लोग उसी गड्ढे का पानी पीते हैं, जहां कुत्ते और सुअर पानी पिया करते हैं। इसके अलावा उन्होंने कोसी नदी में आने वाली सालाना बाढ़ और उससे होने वाली महामारी का जिक्र भी सदन के समक्ष किया. माना जाता है कि सार्वजनिक जगहों पर नल लगवाने और प्रसिद्ध कोसी परियोजना के निर्माण की प्रेरणा किराए के उसी मार्मिक व्यथा का प्रतिफल है.अपने कार्यकाल में कभी भी निजी हित को प्राथमिकता नहीं देने वाले किराए मुसहर जीवन के अंतिम दिनों में आर्थिक तंगी लंबी बीमारी से ग्रस्त रहे।

*मौत के छह दशक बाद भी नहीं मिल पाया उचित सम्मान*
पूर्व सांसद किराई मुसहर की 18 अगस्त 1965 को मृत्यु हो गई. उन दिनों डॉ.राममनोहर लोहिया फर्रूखाबाद से सांसद थे. अपने साथी किराई जिन्हें वह जन्मजात समाजवादी कहते थे,उनके असामयिक निधन से डॉ.लोहिया अत्यंत व्यथित हुए.हो भी क्यों नहीं आखिर एक सामान्य से मजदूर को सदन तक पहुंचाकर समाजवाद की परिभाषा इन्हीं किराए से मिली थी।23 नवंबर 1965 को लोकसभा में डॉ.राममनोहर लोहिया ने पूर्व सांसद किराई मुसहर की मृत्यु पर आयोजित शोकसभा में अत्यंत मार्मिक भाषण दिया था- ‘अध्यक्ष महोदय, एक हमउम्र और जानदार दोस्त की मौत पर कितनी यादें आती हैं व कितनी तकलीफें होती हैं. मैं इस सदन को केवल इतना बताऊं कि जब श्री किराए ऋषिदेव चुने गए थे तो पहली मर्तबे रेल के डिब्बे में अपनी जगह पर नहीं, फर्श पर बैठे,उनके संबंध में लोहिया ने संसद में कहा था ‘वह ऐसी जमात से आए थे लेकिन फिर बाद में स्वाभिमान में बढ़ते गए और मैं समझता हूं कि ऐसा जानदार समाजवादी, जिसको हम कहा करते हैं जन्मजात समाजवादी, बहुत कम देखने को मिले हैं. इसलिए मैं आपसे यह अर्ज करूं कि जहां भारत में और सब कमियां रही हैं. यह खुशी की बात रही है कि जो दबे हुए लोग हैं- हरिजन,आदिवासी, पिछड़े, औरतें उनमें पिछले अठारह वर्षों में धीरे-धीरे कुछ निर्भीकता और कुछ स्वाभिमान जागा है. आखिर में मैं खाली एक अफसोस जाहिर कर दूं कि उनकी मौत कुछ अभाव के कारण हुई जिसको हम लोग अपनी सीमित शक्ति के कारण दूर नहीं कर सके और एक बहुत जानदार दोस्त अपना चला गया.’कोसी अंचल के पहले सांसद और डॉ.लोहिया के आत्मीय रहे किराई मुसहर के घर पर जाना उन्हें याद करना और उन्हें उचित सम्मान देने की पहल उनके जाने के छह दशक बाद भी नहीं की जा सकी जो किसी दुर्भाग्य से कम नहीं।दुर्भाग्य का आलम यह कि किराई मुसहर के घर तक जाने के लिए कोई सक्षम रास्ता भी नहीं है. उनके घर पहुंचने के लिए आज भी अनेकों परिवारों के आंगन लांघकर ही पहुंचा जा सकता है. इंतजार है किसी ऐसे तारणहार की जिसकी नजरें इनायत होगी और देश की पहली संसद में इस क्षेत्र के पहले सांसद को उचित सम्मान मिल सकेगा।

डॉ. हर्ष वर्धन सिंह राठौर
प्रधान संपादक युवा सृजन

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