Geeta। आपदकाल में गीता की स्थितिप्रज्ञता, स्वधर्म और लोकसंग्रह/ डॉ. इन्दू पाण्डेय खंडूड़ी

एक बार राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था कि जब भी मैं किसी समस्या का समाधान नहीं खोज पाता हूँ तो श्रीमद्भागवतगीता की शरण में जाता हूँ और कही न कही मुझे अपनी समस्या का समुचित समाधान मिल जाता है| आज जब पूरा विश्व एक भयावह दौर से गुजर रहा है| कोरोना का डर इस तरह व्याप्त हो रहा है कि कुछ लोग मृत्यु से पूर्व मृत्यु को अपना ले रहे है या वास्तविक स्थिति से पलायन कर अपने साथ अन्य लोगो के लिए भी संकट आमंत्रित कर रहे हैं| ऐसी स्थिति में गीता एक बार पुनः हमारे मानसिक संबल के लिए प्रबल आधार प्रदान करने में सक्षम है| आवश्यकता बस पूरे विश्वास के साथ गीता के निर्देशों का अनुपालन करने की है|
गीता के दूसरे अध्याय में स्थितिप्रज्ञता का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि दुःख की प्राप्ति होनेपर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखो की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, द्वेष, भय और क्रोध नष्ट हो गए है , ऐसा व्यक्ति स्थिर बुद्धि कहा जाता है| साथ ही जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने विषयों से विरक्त हो चुकीं हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है|
आज जब सम्पूर्ण विश्व जीवन के प्रति राग, मृत्यु से भय और वर्तमान कोरोना के उपचार की अक्षमता के कारण उपजे क्रोध से ग्रस्त और त्रस्त है, ऐसे समय में स्थिरबुद्धि से इसके उपायों पर चिंतन मनन करने की आवश्यकता है| इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है|
स्थिरचित्त से समुचित निर्णय लेकर स्वधर्म के अनुपालन से ही लोक कल्याण या लोकसंग्रह संभव है| गीता का स्वधर्म यद्यपि वर्णानुसार कर्तव्यों के पालन के निर्देश पर केन्द्रित है| परन्तु यहाँ पर लोक-संग्रह हेतु युगानुकुल स्वधर्म के पुनर्व्याख्या की अनुमति भी है|
आज की विषम परिस्थिति में जब कोरोना का संक्रमण तेजी से प्रसारित होकर जीवन संकट उपजा चुका है| ऐसे समय में स्वधर्म सर्वप्रथम अपना और अपने समाज का बचाव है| इसके लिए यदि सामाजिक जीवन से दूर रहना आवश्यक है, तो यही स्वधर्म है| बाह्यवृत्तियों की उन्मुखता को अंतर्मुखी करते हुए आत्मविश्लेषण से लोक संग्रह का मार्ग अपनाने का समुचित समय है|
गीता के तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते है कि अच्छे प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है| अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है, दूसरे का धर्म भय उपजाने वाला होता है| वर्तमान संकट के युग मानव जाति का स्वधर्म मानव को सुरक्षित बचाना है| इस स्वधर्म का अनुपालन अपनी सुरक्षित सीमाओं में सिमटकर अत्यंत खतरनाक संक्रमण से बचाव ही है|
इस प्रकार स्वधर्म का अनुपालन लोकसंग्रह या लोककल्याण के उच्चतम् उद्देश्य को परिपोषित करेगा| सामाजिक दूरी बनाये रखने की अवधारणा को अपना कर हम लोक-कल्याण के मार्ग पर चल सकते है| आज समाजहित में दया, दान, परोपकार, भावनात्मक सहयोग के लिए शारीरिक रूप से उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है|
अपेक्षा इस बात की सामान्य सामाजिक व्यवहार पर कुछ दिनों के स्वतः ही नियंत्रण रखा जाय| जितना संभव हो अपने घर ही रहे| मित्रों और रिश्तेदारों से दूरी बनाने के लिए आना –जाना बंद कर दें| सामाजिक समारोह में न जाये| भीड़ से दूर रहे और कहीं पर भी भीड़ न लगने दे| यात्रा को यथासंभव रोके| संक्रमण के आपदकाल में अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने के लिए उनसे भी दूरी बनाए रखे|
सामान्य रूप से इस प्रकार के व्यवहार आपको अंतर्मुखी या गैर-सामाजिक बता देते है| संवाद और एक-दूसरे से संबंधों को जीवंत बनाये रखना एक सहज वृत्ति है| संवाद की सहज वृत्ति बनाए रखे, एक दूसरे का हाल-चाल अवश्य लेते रहे, परन्तु एक-दूसरें के साथ शारीरिक निकटता और उपस्थिति को स्थिति सामान्य होने तक टाल दें |
ऐसा करने की मनोवृत्ति बनाने में गीता के उपदेश यथा- स्थितिप्रज्ञता, स्वधर्म एवं लोकसंग्रह की वैचारिक अवधारणा परिस्थिति अनुकूल विवेचन के माध्यम से नैतिक दिशा-निर्देश देने में आज भी महत्त्वपूर्ण है | बाह्य विषयों के प्रति संलग्नता को समाप्त करें| कोरोना से उपजे आपद काल में स्थिरचित्त होकर स्वधर्म का पालन करें; और लोक कल्याण तथा मानव जाति को इस संकट के संक्रमण से बचाने में अपने सहभागिता सुनिश्चित करें |
डॉ. इन्दू पाण्डेय खंडूड़ी
आचार्य एवं अध्यक्षा, दर्शनविभाग
हे.न.ब.ग. केंद्रीय वि.वि.
श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखण्ड