#नारीवादी
(नीलिमा सिन्हा)
उसने बजबजाती संकरी गली के
एक सपाट समतल रास्ते से चलना शुरू किया था।
गली धीरे धीरे खुलती चली गई,
रास्ता गो कि अब भी सीधा ही था
पर धीरे धीरे कंकड पत्थर से भरता चला गया।
कंकड पत्थर के ढेर ऊंचे होते चले गए
जैसेकि वो सीढियां हों
और सीढियों के उपर कंकड-पत्थरों का
एक छोटा पहाड खडा हो गया,
गो कि रास्ता अभीतक कुछ खास लंबा नहीं हुआ था।
वह सीढियों के उपर टंगे उस पहाड पर पहुंच चुकी थी।
उसने अपना चेहरा टटोला, चेहरे पर दाढी मूंछ उग आए थे।
उसने जोर से चिल्लाकर कहा-
“लोगों! मेरी दाढी और मूछों के भरम में मत फंसना।
हूं तो मैं औरत ही बस, औरत के पक्ष में कहती सुनती मैं धीरे धीरे मर्द-सी दिखने लगी हूं।
… सुनो! मैं मर्द नहीं हूं !
… और मैं इस दुनिया में किसी मर्द को देखना भी नहीं चाहती।”
…और
उसने बिल्कुल नामालूम-सी आवाज में कहा-
“अब इसका क्या करुं कि मैं खुद ही वही नामुराद मर्द जात हो उठी हूं।”