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BNMU मृत्यूपरान्त बनाम मृत्योपरान्त

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मृत्यूपरान्त बनाम मृत्योपरान्त

इन दोनों शब्दों को लेकर भी भ्रामक स्थिति है। न केवल छात्र, वरन् शिक्षक और लेखक भी मतिभ्रम के शिकार हैं। एक उदाहरण देख लिया जाए- ‘‘लेखक ने अज्ञेय के मृत्योपरान्त प्रकाशित दो असमाप्त उपन्यासों ‘छायामेखल’ और ‘बीनू भगत’ की भी चर्चा की है।’’ (तिवारी, वरुण कुमार. ‘‘सृजन समीक्षा के अन्तर्पाठ, पृ. 33)
श्री तिवारी हिन्दी-प्राध्यापक (सेवानिवृत्त) तो हैं ही, अच्छे कवि और आलोचक भी हैं। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने ऊपर कोष्ठकबद्ध आलोचना-कृति में असाधु शब्द, ‘मृत्योपरान्त’ का प्रयोग कर रखा है। ऐसे कई प्रयोग मुझे अन्यत्र देखने को मिले। ऐसे बहुत सारे सुशिक्षित सज्जन मिल जाएँगे, जो ‘मृत्यूपरान्त’ के अस्तित्व से ही अनभिज्ञ हैं।
अब दोनों शब्दों की साधुता-असाधुता पर विचार कर लिया जाए।
मृत्यु+उपरान्त = मृत्यूपरान्त का अर्थ होता है – मृत्यु के बाद (आफ्टर डेथ) यह दीर्घ स्वर सन्धि का उदाहरण है। अकः सवर्णे दीर्घः (अ. 6/1/101) – अकः सवर्णेऽचि परे पूर्वपरयोदीर्घे एकादेश: स्यात्, अर्थात् अक् (अ, इ, उ, ऋ) से अच् परे होने पर पूर्व के स्थान पर दीर्घ का एकादेश हो। दूसरे शब्दों में, दो समान स्वरों के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे दीर्घ स्वर सन्धि कहते हैं; यथा – (1) अ+अ = आ (राम + अवतार = रामावतार) (2) अ + आ = आ (पुस्तक + आलय = पुस्तकालय) (3) आ+अ =आ (विद्या+अर्थी =विद्यार्थी) (4) आ + आ = आ (विद्या +आलय = विद्यालय) (5) इ +इ = ई (गिरि + इन्द्र = गिरीन्द्र ) (6) इ + ई = ई (गिरि +ईश = गिरीश) (7) ई + इ =
ई (मही+इन्द्र महीन्द्र) (8) ई + ई = ई (नदी + ईश = नदीश ) (9)उ + उ = ऊ (भानु + उदय = भानूदय) (10) उ + ऊ = ऊ (लघु + ऊर्मी = लघूर्मी) (11) ऊ + उ = ऊ (वधू +उत्सव = वधूत्सव), (12) ऊ + ऊ = ऊ (भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ) (13) ऋ + ऋ = ऋ (पितृ + ऋण = पितृण)।
इसके कुछ अपवाद भी हैं; यथा – मार्त + अण्ड = मार्तण्ड, विष्णु + उमेश = विष्णुउमेश।
ये उदाहरण पं. शम्भुनाथ शास्त्री की पुस्तक ‘संस्कृत सागर’ में भी द्रष्टव्य हैं।
ऊपर नवें क्रम पर आये प्रयोग को देखा कि कैसे उ ( ु ) के साथ उ ( ु ) के मेल से ऊ ( ू ) बना। उदाहरण के लिए भानु +उदय = भानूदय। ठीक इसी सूत्र से मृत्यु + उपरान्त = मृत्यूपरान्त भी (उ + उ = ऊ) ( ू ) बना है। फिर मृत्योपरान्त क्यों और कैसे? चलिए इसका सन्धि-विच्छेद भी किया जाए। मृत्य + उपरान्त = मृत्योपरान्त (अ + उ =ओ, गुण स्वर सन्धि)।
‘मृत्य’ शब्द से मैं तो कभी नहीं मिला। आपमें से कौन-कौन मिला है? उत्तर होगा कोई नहीं; क्योंकि यह शब्द होता ही नहीं। होता है ‘मर्त्य’ (मरणशील)। मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ पढ़ी-सुनी होंगी – ‘‘विचार लो कि मर्त्य हो / न मुत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो कि/ याद जो करें सभी।’’
अतः, सदैव ‘मृत्यूपरान्त’ का प्रयोग किया जाए, न कि ‘मृत्योपरान्त’ का। यदि आप इसका प्रयोग करेंगे तो उपहास के पात्र बनेंगे।
शुभमिति!

बहादुर मिश्र
31.08.2021

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