Bhagalpur नाटककार एम. सिराज सूरज का निधन

नाटककार एम. सिराज सूरज का निधन

आलेख जो लिखते लिखते रिपोर्ताज बन गया : –

इस दुनिया को अलविदा तो सबों को करना पड़ता है लेकिन जब आपके स्नेही जन या किसी परिचित के इस दुनिया से रूखसत होने की जानकारी मिलती है तो बहुत देर तक अफसोस होता है और उनसे संबंधित तमाम यादें यादृच्छिक रूप से स्मृति पटल पर कौंधने लगती है. एक माह पूर्व उनसे मुलाकात हुई थी, उनसे कुछ पुस्तकें ली. उस समय वे अस्वस्थ दिखे थे पर आज शाम जब उनके दुकान पर गया तो उनके पुत्र ने बताया कि तीन दिन पहले उनका इंतकाल हो गया.

सुनकर हतप्रभ रह गया क्योंकि मेरे लिए वे केवल दुकानदार ही नहीं थे बल्कि जब भी मिलते, आत्मीयता पूर्वक विविध मुद्दे पर गुफ्तगु करते थे, लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व अपने प्रिय मित्र सुधांशु शेखर के साथ पहली बार उनसे दुकान पर मुलाकात हुई थी. दो चार माह में जब कभी उनके दुकान पर जाना होता तो, स्वयं कुर्सी से उतर कर – कहते-बैठो. और हाल चाल जरूर पूछते. मित्र के बारे में भी कुशल क्षेम पूछते. मुझे कहते- मौलिक पुस्तक लिखो. एक किताब की प्रुफ देखे तो कहे- बहुत सुन्दर विषय है.

पिछले वर्ष सितम्बर 2020 में संयोग से हिन्दी दिवस पर जब उनसे मुलाकात हुई तो उनका विडियो रिकार्ड भी किया था. हिन्दी की दशा को लेकर उनके मन में भी व्यथा होती थी. वो विडियो भी प्रस्तुत है.

मुझे ऐसा लगता है कि इस दुनिया में बहुत से लेखक गुमनाम ही चल बसते है. हमलोगों को अपने आसपास के लेखकों को जानना जरूर चाहिए. नाटक जैसी सर्जनात्मक लेखन उनका शौक था.
आपको बता दें कि अन्य लोगों की तरह वे भी स्वयं को उपेक्षित महसूस करते थे. मूलतः वे खगड़िया के गोगरी जमालपुर निवासी थे लेकिन आरंभिक दिनों से ही भागलपुर को ही अपना लिए थे. भागलपुर के हिंदी के नाटककार एम सिराज सूरज के रूप में अपनी प्रसिद्धि पाई. स्वयं को बिहार के प्रथम मुस्लिम हिंदी नाटककार के रूप में पाते थे. हिन्दी के नाटककार होने के नाते हिंदी की दशा और दिशा को लेकर उनके मन में भी टीस रही. वे हिंदी के साथ साथ हिंदी के लेखक को भी उपेक्षित मानते थे.
आज भले हीं इंटरनेट मीडिया के दौर में आज के बच्चे नाट्य विधा को न समझते हो पर मोबाईल युग के पहले तक रंगमंच मनोरंजन का सशक्त जरिया हुआ करती थी.एक कला ही क्यों मिश्रित कला का रूपांतरण नाट्य विधा में हुआ करती है. इतिहास, राजनीति, समाज, संस्कृति, लोककथा हर एक पहलू के ज्वलंत मुद्दे को केन्द्रित कर सिराज सूरज की 26 नाटक हिंदी में प्रकाशित हो चुकी है जैसे रोजी-रोटी की तलाश, खून खौल उठा, बेकफन, दो बूंद आंसू, जहर, लहू का रंग एक है, उठा लो बंदूक मिटा दो बिंदिया, दफन जैसे कई नाटकों का मंचन बड़े बड़े मंचों से हुआ है. यह भी अकाट्य सत्य है कि नाटककार होना भी मामूली बात नहीं है क्योंकि नाट्यकर्ता जब तक विविध कलाओं का ज्ञाता न होगा अपना संदेश जनसमुदाय तक सहज रूप से संप्रेषण न कर सकेंगे.
किसी भी रचनाकार के लिए तात्कालिक समय और समाजिक परिस्थिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाते है. उनके चिन्तन पर परिस्थिति का प्रभाव रहता है यही कारण रहा कि जेपी आंदोलन के समय राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था को केंद्र बिंदु मानकर वे नाटक लिखते रहे थे. वे बताते थे कि रामविलास पासवान, कर्पूरी ठाकुर, प्रमंडलीय राजभाषा कार्यालय आदि कई जगहों से प्रशंसनीय पत्र भी मिले हैं, इनके उज्जवल भविष्य की कामना की जाती रही पर दुर्भाग्य से इनका भविष्य उज्जवल हो न सका. वे बस स्टैंड में सरकारी नौकरी करते थे तथा कहते थे कि हमलोग को सरकार पेंशन नहीं देती है. बड़ा दु:खमय जीवन है. 80 और 90 के दशक में कई बार इनका व्यक्तित्व समाचार पत्रों की सुर्खियों में भी रहा. हिन्दी दिवस के दिन उन्होंने मुझसे जो कहा था, उनके शब्दों में कहें तो – आज की परिस्थिति में हिंदी की स्थिति व्यथित करने वाली हैं वे मानते हैं कि हिंदी सर्वश्रेष्ठ भाषा है. हिंदी का व्याकरण इसे व्यापक आकार प्रदान करती है. हिंदी हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा है इसे हम सबों को मानना चाहिए, अपनाना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से आज की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती. उर्दू तथा हिन्दी के जानकर हिंदी नाटककार, लेखक को भी समाज और सरकार से जितनी सहयोग मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पाती है.
जब भी वे अकेले पड़ते भिन्न भिन्न तरह की पुस्तकों को पढ़ते रहते. एक माह पूर्व तक नाटककार एम. सिराज सूरज पुस्तक प्रेम के कारण ततारपुर में पुरानी किताबें बेचने का कारोबार करते रहे. इससे दो पैसे कमाने के साथ साथ पुस्तक से दोस्ती निभाने का मौका मिलते रहा. इनकी सोच थी कि सरकार को कागज पर से बाहर आकर नाटककार और लेखकों की भी सुधि लेनी चाहिए और इनकी भी दशा हिंदी की तरह अच्छा हो इसके लिए प्रयास होना ही चाहिए. पर अब समाज और सरकार से उनके तरफ से कोई शिकवा नहीं होगा, रंगमंच की भांति उनके जीवन के रंगमंच का यवनिका सदा के लिए गिर गया.
आपको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि !

-डाॅ. मिथिलेश कुमार, बलुआचक, भागलपुर, बिहार

01 अप्रैल, 2021