BNMU। हिमालय का कवि : गोपाल सिंह नेपाली

हिमालय का कवि : गोपाल सिंह नेपाली

आज 11 अगस्त है, यानी हिमालय का कवि और भारत की ‘वन मैन आर्मी’ कहलाने वाले गोपाल सिंह नेपाली (11.8.1911-17.4.1963) की 110वीं जन्म-तिथि। चीन को भारत का ‘नम्बर वन दुश्मन’ साबित करने करने वाले देश के इस ‘पहरुआ’ को गये 57 साल बीत गये। तबसे लेकर आज तक चीन ने न तो अपनी नीति बदली और न ही नीयत। उसके दाँत और नाखून पहले से कहीं अधिक तीखे हो गये हैं। हमारा हिमालय फिर एकबार चीनियों द्वारा पदाक्रान्त हुआ हैै। उसने अपनी विस्तारवादी नीतियों द्वारा विश्व को महायुद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया है।
भौगोलिक दृष्टि से हिमालय भले ही टेथीज सागर में घटित अज्ञात, भू-हलचल के कारण आविर्भूत पर्वत-शृंखला मात्र हो, लेकिन हम भारतीयों के लिए न केवल धर्म, दर्शन, काव्यादि का आलम्बन है, अपितु हमारी समग्र सांस्कृतिक चेतना का हिमावृत्त शुभ्र विग्रह भी। महादेवी वर्मा अनुचित नहीं कहती हैं- ‘‘संसार के किसी भी पर्वत की जीवन-कथा इतनी रहस्यमयी न होगी, जितनी हिमालय की है। उसकी हर चोटी, हर घाटी हमारे धर्म, काव्य से ही नहीं, हमारे जीवन के सम्पूर्ण निःश्रेयस से जुड़ी हुई है। वह मानो भारत की संश्लिष्ट विशेषताओं का ऐसा अखण्ड विग्रह है, जिस पर काल कोई खरोंच नहीं लगा सका।’’ (भारतीय संस्कृति के स्वर(भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि); पृ. 27-28)
जीवन-सागर की अतल गहराई से अपनी विशिष्ट मेधा के साथ उभरने वाले वैदिक मनुष्य की तरह ही पृथ्वी के किसी गुरु-गम्भीर प्रकंप के परिणामस्वरूप हिमालय भी अस्तित्व में आया, यह भौगोलिक सत्य जितना विश्वसनीय है, उतना ही विश्वसनीय है यह तथ्य कि पृथ्वी और पर्वत–दोनों में यह विस्फोटजन्य प्रकंपन कुछ काल तक शेष रहा होगा, अन्यथा ऋग्वैदिक कवि यह बिल्कुल नहीं लिखता-
‘‘यः पृथिवीं व्यथमानादृंदृद्यः पर्वतान्प्रकुपितां अरम्णात।
यो अन्तरिक्षं विममेवरीयो यो द्यामस्तम्नात्स जानस इन्द्र।। ’’( ऋग्वेद,2.12.2)
अर्थात् जिसने कम्पित पृथ्वी को दृढ़ किया,जिसने क्षुब्ध पर्वतों को शान्त किया,जिसने विस्तृत अंतरिक्ष को फैलाया और जिसने आकाश को स्थिर किया, हे जनो ! वह इन्द्र है।
अथर्ववैदिक कवि भी पृथ्वी को सम्बोधित करता हुआ लगभग यही बात कहता है –
‘‘गिरयस्ते पवतः हिमवन्तोsरण्यंते पृथिवी स्योन्मस्तु’’
अर्थात् हे पृथ्वी ! तेरे पर्वत, तेरे हिमावृत्त शल्य, तेरे अरण्य सुखदायी हों !
वैदिक ऋषियों का यह ‘हिमवंत’ आदि कवि वाल्मीकि के युग तक आते-आते ‘शैलेन्द्र’ या ‘शैलराट्’ बन जाता है। इससे अनुप्रेरित महाभारतकार हिमालय का स्मरण ही नहीं करता, वरन् रक्तरंजित विजय से क्षुब्ध पाण्डवों को प्रायश्चित्तस्वरूप उसके हिमशीतल अंक में सुला भी देता है। कालिदास के काव्यों में तो हिमालय सुख-दुख के अनेकानेक उच्छ्वासों में स्पंदित हो उठता है। ‘पृथ्वी का मानदण्ड’ और ‘देवात्मा'(कुमारसम्भवम्) की उपाधियाँ पाने वाले हिमालय की पुत्री पार्वती कठोर तपश्चर्या द्वारा शिव का वरण कर अपराजेय कुमार कार्त्तिकेय को जन्म देती है। गर्व से सिर ऊँचा कर खड़ा रहने वाला हिमालय तुलसीदास तक आते-आते इतना विनम्र हो जाता है कि उसे सद्यः परिणीता पुत्री पार्वती और जामाता शिव का चरण-स्पर्श करने में भी ग्लानि-बोध नहीं होता। देखिए रामचरितमानस के बालकाण्ड की ये पंक्तियाँ –
‘तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे।।

’ ’ ’
‘दाइज दियो बहु भाँति पुनिकर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरण पंकज गहि रह्यो। ’

आगे चलकर कवियों-कलाकारों-चित्रकारों ने अपनी-अपनी तरह से हिमालय का प्रशस्ति-गान किया। तब से आज तक शिव के राशीभूत अट्टहास-सा उज्ज्वल पर्वत भारतीय साहित्य, कला आदि का सहचर रहा है। इस पर दृष्टि पड़ते ही कवि के हृदय में अनंत भावनाओं की घटाएँ उमड़ आती हैं और चित्रकारों की आँखों से विविध रंगमय स्वप्न बरस पड़ते हैं। मूर्त्तिकार को इसमें जीवन की विराटता प्रत्यक्ष हो जाती है। स्वरकार के आरोह-अवरोह इसकी परिक्रमा करने लगते हैं और नृत्यकार इसमें महाकाल के ताण्डव और लास्य की चाप सुन लेता है।
ऐसे कवियों/कलाकारों में प्रसाद( हिमाद्रि तुंग-शृंग से….), दिनकर (मेरे नगपति मेरे विशाल), पंत (हिमाद्रि ), महादेवी वर्मा (हे चिर महान् ), माखनलाल चतुर्वेदी (वह हिमाद्रि, आज चीन को मजा चखा दें ), राजकुमार चतुर्वेदी (हिमालय की पुकार ), राममोहन त्रिपाठी(झुकना नहीं हिमालय), रामविलास शर्मा, इन्दौर(हिमालय का आह्वान), वीरेंद्र मिश्र( हिमालय छीन ले), पद्मसिंह शर्मा कमलेश (ओ हिमालय के सपूतो ), विद्यानिवास मिश्र (अस्ति की पुकार हिमालय (निबंध)), रोरिक (हिमालय पर आधारित ढेरों चित्र बनाने वाला पश्चिमी चित्रकार) प्रभृति के नाम आदर के साथ लिये जा सकते हैं।
एक ऐसे ही कवि-गीतकार का नाम है गोपाल सिंह ‘नेपाली’ । औरों ने तो हिमालय पर मात्र एक या दो कविताएँ/ गीत लिखकर इतिहास में अपना नाम सुरक्षित करा लिया, जबकि नेपाली ने ‘हिमालय ने पुकारा’ (1963) नाम से प्रकाशित अपना पूरा काव्य- संग्रह ही हिमालय को समर्पित कर दिया। इस संग्रह की चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा, हिमालय और हम, इन चीनी लुटेरों को हिमालय से निकालो, भारत माता की प्रभाती, है ताज हिमालय सिर पर, तुम उसको गोली दो, हिन्दुस्तान की ललकार के अतिरिक्त ‘पंचमी’ से ‘हिमांचल’ (1942), ‘नीलिमा’ (1944) से ‘तरु वृक्षों की पाँति घनी यह’, उमंग (1934) से ‘नवीन नेपाल’ उनकी उल्लेखनीय हिमालय-विषयक रचनाएँ हैं।
इनमें से अधिकांश कविताएँ तब की हैं, जब देश संकट की स्थिति से गुजर रहा था। यह संकट था भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश (नेफा) पर चीन का अप्रत्याशित व विश्वासघाती हमला। इसका आभास उन्हें पहले ही हो गया था। इसीलिए तो जुलाई, 1957 में रचित कविता ‘नजर है नई तो नजारे पुराने’ की इन पंक्तियों के माध्यम से कहना प्रारम्भ कर दिया था-
‘‘हुआ देश की खातिर, जनम है हमारा
कि कवि हैं, तड़पना करम है हमारा
कि कमजोर पाकर मिटा दे न कोई
इसी से जगाना धरम है हमारा
कि मानें न मानें, हमें आप अपना
सितम से हैं नाते हमारे पुराने
नई रोशनी को मिले राह कैसे
नजर है नई तो, नजारे पुराने।’’

अप्रैल, 1959 में रचित ‘चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा’ शीर्षक गीत प्रथम चीनी आक्रमण की पृष्ठभूमि पर आधारित अपेक्षाकृत लम्बी रचना है। लोकप्रिय धारणा है कि चीन ने अक्टूबर, 1962 में पहला आक्रमण किया था। लेकिन, सचाई यह है कि चीनियों ने पहला हमला 1959 में ही किया था। कविता के प्रतिपाद्य पर विमर्श करने के पूर्व इतिहास के इस दुखद पहलू पर दृष्टिपात करना अप्रासंगिक न होगा।
1947 में भारत विदेशी दासता से मुक्त हुआ। इसके ठीक दो साल बाद 1949 में चीन भी साम्राज्यवादी शक्ति से मुक्त होकर गणतांत्रिक राज्य बना। दोनों की पीड़ाएँ एक-सी थीं। इसलिए, यह प्रत्याशित था कि दोनों मिलकर रहेंगे और लोगों की बेहतरी के लिए काम करेंगे। इसी आलोक में 1954 का पाँचसूत्री सिद्धांत पर आधारित ‘पंचशील’ नामक समझौता अस्तित्व में आया। इस पर दोनों देशों के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों– पं. जवाहरलाल नेहरु तथा चाऊ-एन-लाई के हस्ताक्षर थे। ये सिद्धांत थे – (1) एक दूसरे के क्षेत्रों तथा प्रभुसत्ता का आदर, (2) अनाक्रमण की नीति पर अमल (3) एक दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करने के साथ-साथ समानता तथा आपसी लाभ की नीति पर चलने का निर्णय तथा (4) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का अनुसरण।
‘पंचशील’ के अस्तित्व में आने के चार साल पूर्व ही चीन ने भारत को विश्वास में लिये बगैर तिब्बत को हथिया लिया। भारतीय नेतृत्व की नपुंसकता तब और उजागर हुई, जब विश्व-नेता का सपना देखनेवाले पं. जवाहरलाल नेहरु ने तिब्बत पर चीन की एकतरफा कार्रवाई को विधिवत् मान्यता दे दी। हद तो तब और हो गई, जब भारतीय प्रधानमंत्री ने वानडुंग में आयोजित एशिया-अफ्रीका कांफ्रेंस में चाऊ-एन-लाई को बिना किसी शर्त्त के अपना समर्थन दे डाला। इसका सिला यह मिला कि 1959 में साम्यवाद-रूपी भेंड़ की खाल ओढ़कर साम्राज्यवाद रूपी धूर्त्त भेंड़िये की तरह ‘पंचशील’ के रूप में तैनात पहरेदार को धता बताते हुए लद्दाख के कोगंका दर्रे पर खूनी हमला कर दिया। तब भी हमारा नेतृत्व शांतिकामी और सहिष्णु बना रहा। उल्टा उसने भारतीय नेतृत्व पर आरोप मढ़ दिया कि उसने चीन के शत्रु और स्वतंत्र तिब्बत के समर्थक दलाई लामा को शरण दे रखी है। भारत को अंतिम धक्का लगना अभी बाकी था। 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने नेफा, अर्थात् अरुणाचल प्रदेश पर आक्रमण कर न केवल हमारे दर्जनों सैनिकों को मार गिराया और देश को पीछे हटने के लिए बाध्य किया, बल्कि कई चौकियाँ भी हथिया लीं। आज भी हजारों वर्गमील जमीन उसके कब्जे में है। जब पं. नेहरू ने 9 नवम्बर, 1962 को अमेरिका और ब्रिटेन को अलग-अलग पत्र लिखकर सैनिक सहायता माँगी, तब कहीं जाकर दुष्ट चीन पीछे हटा। लेकिन, उसकी साम्राज्यवादी नीति आज भी ज्यों-की-त्यों कायम है। आए दिन लद्दाख और अरुणाचल में उसकी घुसपैठ होती रहती है। वह लद्दाख, अरुणाचल और आसाम की 50 हजार वर्गमील जमीन को अपने नक्शे में दिखा रहा है। गोपाल सिंह नेपाली जैसे सजग और राष्ट्रवादी कवि-गीतकार ने इसी परिप्रेक्ष्य में अपनी महत्त्वपूर्ण हिमालय-विषयक रचनाएँ कीं। उनकी दृष्टि में हिमालय भारत का गर्वोन्नत भाल है। उस पर किसी तरह का आक्रमण भारत के अस्तित्व पर आक्रमण है।
पाँच-पाँच पंक्तियों के बारह बंधों में रचित आलोच्य कविता के केंद्र में लद्दाख पर चीनी आक्रमण से उत्पन्न सात्विक आक्रोश ही तो है-
‘कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगे
लद्दाख की क्या बात है, बंजर भी न देंगे
आसाम हमारा है रे मरकर भी न देंगे
है चीन का लद्दाख तो तिब्बत है हमारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।

इस गीत में कवि ने हिमालय को ‘हिंद की दीवार’, ‘शांति की मीनार’, ‘धरती का मुकुट’, ‘भारत का अचल भाग्य’ जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया है। फिलहाल इसे ‘लाल’ चीन की कुदृष्टि लग गई है, जिस से बचने के लिए भारत को अहिंसक नीति को छोड़कर बन्दूक उठानी पड़ी-
इतिहास पढ़ो समझो तो यह मिलती है शिक्षा
होती न अहिंसा से कभी देश की रक्षा

’ ’ ’

संग्राम बिना जिन्दगी आँसू की लड़ी है
तलवार उठा लो तो बदल जाये नजारा

कवि ने देश भर में घूम-घूमकर यह गीत गाया था। मुजफ्फरपुर के एक कवि-सम्मेलन में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन इस गीत को सुनकर इतने प्रभावित हुए कि इसे भारत भर में हिंदी के अलावा उर्दू में छपवाकर वितरित करने की इच्छा जताई। यही नहीं, आसाम रायफल्स के तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ ने अपने सैनिकों के सामने इस रचना के पाठ के लिए नेपाली जी को लिखित आमंत्रण भेज दिया। देखते-देखते यह भारत का प्रयाण-गीत (मार्चिंग सोंग) बन गया।
जनवरी,1958 में रचित ‘हिमालय और हम’ शीर्षक कविता में नेपाली ने गिरिराज हिमालय को चालीस करोड़ भारतवासियों के अक्षय व आत्मीय प्रेरणा-स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने भारत के साहित्यिक सौंदर्य के साथ-साथ ऐतिहासिक तथा आध्यात्मिक समृद्धियों व छटाओं को एक साथ दिखाया है।
देखिए-
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है।
चालीस करोड़ों का जत्था, गिर-गिरकर भी उठ जाता है।

कवि ने हिमालय की सर्वोच्च चोटी को ‘सकल धरती का सरताज’, ‘अरुणोदय और संध्या की लाली’, ‘भारत का ऊँचा शीश’, ‘उत्तर की मीनार’, ‘जगत भर का पहरेदार’, ‘लाखों लोगों के सुखों का रखवाला’, ‘मन का दानी’, ‘गूँगे का मुख’, ‘गौरीशंकर का निवास-स्थल’, ‘गंगा का उद्गम-स्रोत’- जैसे विशेषणों से भूषित गौरवराट् के रूप में प्रस्तुत किया है।
आगे कवि ने हिमालय के पराक्रम का बखान करते हुए लिखा कि इससे टकराने वाले बादल पानी-पानी हो जाते हैं। प्रतीकार्थ यह कि भारत के दुश्मनों का हौसला पस्त हो जाता है। कुल मिलाकर, हिमालय हमारा गौरव है, हमारी पहचान है। अपनी आँखों में जो व्यक्ति इसे बसा लेता है, वह अपने सिर पर समस्त ‘गगन’ को उठा लेता है। ऐसे हिमगिरि को भूलने वाला देश निश्चित ही, परतंत्र होकर दयनीय जीवन जीता है–
हम कभी हिमालय को भूले, तो दीन हुए, परतंत्र हुए
फिर पुण्य जगा बलिदानों का, तो आगे बढ़े, स्वतंत्र हुए

कविता की वर्ण्य वस्तु से पता चलता है कि तब तक चीन ने हिमालय-प्रांत को पददलित नहीं किया था, लेकिन घुसपैठ की योजना बना ली थी।
‘टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं
तूफान चले आते हैं तो, ठोकर खाकर सो जाते हैं’-
इस कवितांश में प्रयुक्त ‘बादल’ और ‘तूफान’ चीन और पाकिस्तान-जैसे
घातक मंसूबों वाले भारत के दुश्मन देशों की तरफ साफ-साफ इशारा करते हैं।

‘इन चीनी लुटेरों को भारत से निकालो’ शीर्षक कविता चीनी आक्रमण के ठीक बाद की लिखी प्रतीत होती है। इसके रचना-काल के स्थान पर अक्टूबर, 1962 उल्लिखित है। ज्ञातव्य है कि चीनी आक्रमण 20 अक्टूबर को हुआ था। इसका सीधा अर्थ है कि यह कविता 20 से 31 के बीच की किसी तारीख को लिखी गई है।
ध्यातव्य है कि चीनियों का पहला आक्रमण लद्दाख पर हुआ था, जबकि दूसरा नेफा (आज का अरुणाचलप्रदेश) पर। कवि ने गुस्से में लिखा-
‘‘लद्दाख चलो, चीन जहाँ घुसके अड़ा है,
नेफा को चलो, चोर जहाँ छुपके खड़ा है।’’

ध्यातव्य है कि चीन आज भी लद्दाख में घुसा हुआ है।
25 छंदों में रचित यह लम्बी कविता एकतरह से प्रयाण-गीत है। सम्भवतः सीमा-समस्या पर रचित कविताओं में सर्वाधिक प्रभविष्णु व प्रतिनिध्यात्मक है, जिसमें कवि ने भारतीयों को जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र इत्यादि की क्षुद्र सीमाओं से निकलकर चीनियों से लड़ने हेतु आह्वान किया है-

‘‘मंदिर से चलो थाम के बंदूक पुजारी
मस्जिद से चलो साथ ले तलवार दुधारी
राजपूत चलो, सिक्ख चलो, जाट चलो रे
घर जिसने जलाया है चिता उसकी जला लो
इन चीनी लुटेरों को हिमालय से निकालो।’’

यह वक्त का तकाजा है कि अहिंसा और शांति के पुजारी भारत को, कुछ समय के लिए ही सही, अहिंसा-सिद्धांत को जेब में रख लेना चाहिए- ‘‘कुछ दिन को अहिंसा का नाम जेब में रख लो’’ क्योंकि, ‘‘लातों के पुजारी कभी बातों से नहीं माने।’’
उधर दिनकर भी अहिंसावादी का युद्धगीत/1962’ कविता के माध्यम गरज रहे थे-
‘‘देशवासी! जागो/जागो/ गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो!/ रुधिर में रखें शीत या ताप?/अहिंसा वर है अथवा शाप?/ युद्ध है पुण्य या कि पाप?/ आज सारा विवाद त्यागो/ गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से भागो/’’
नेपाली ने चीनी नेतृत्व को ‘चोर’, ‘कम्युनिज्म को बदनाम करने वाला’, ‘साम्यवाद की आड़ में साम्राज्यवाद की नींव डालनेवाला’, धूर्त्त और विश्वासघाती कहकर तीखी भर्त्सना की है। जो हो, लेकिन केन्द्र में है हिमालय ही।
नवम्बर, 1961 में रचित ‘हिन्दुस्तान की ललकार’ चीनी आक्रमणजन्य देशव्यापी आक्रोश से उत्पन्न महत्त्वपूर्ण प्रयाण-गीत है। इस कविता की अतिरिक्त विशेषता यह है कि इसमें कवि ने गढ़वाल और नेपाल–दोनों का एक साथ उल्लेख किया है। इन दोनों जगहों से उनका संबंध भी रहा है।
जो हो, इस प्रयाण-गीत में हिमालय का मात्र एक बंद में उल्लेख हुआ है। इसमें उसे भारत के द्वार और ढाल (रक्षक) के रूप में दिखाया गया है–
‘‘जब से हुई दुनिया शुरु
चन्दा बना तारे बने
नदियाँ, हिमालय, सिन्धु
हिन्दुस्तान के द्वार बने
तब से हिमालय है खड़ा सटकर हमारी ढाल से
ओ चीनियो! जाओ निकल लद्दाख से नेपाल से।’’ (वही, 106)

कहना न होगा कि चीन पाकिस्तान और नेपाल — दोनों देशों में घुसकर भारत के खिलाफ काम कर रहा है।
‘ है ताज हिमालय के सिर पर’ (जुलाई , 1958 शीर्षक कविता भारत की तत्कालीन देशी रियासतों में वास्तविक जनतंत्र स्थापित होने के ठीक बाद रची गई थी। कहते हैं, भारत के इन देशी राज्यों ने भारत के राष्ट्रीय, सामाजिक और आर्थिक जीवन में कई तरह की कुरूपताएँ पैदा कर रखी थीं; जैसे- विपन्नता, ऊँच-नीच की भावना आदि। ये देशी रियासतें शोषण और भेदभाव पर टिकी थीं। इतना ही नहीं, इन रियासतों के तथाकथित ताज विदेशी हुकूमत के पिट्ठू बने हुए थे। भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की दूरदर्शिता से इन सैकड़ों रियासतों का भारतीय संघ में विलय हो गया था। इससे देश में हर्ष का वातावरण छा गया था। गरीबों ने राहत की साँस ली थी। आलोच्य कविता इसी भावना की सुन्दर अभिव्यक्ति है। देखिए–
“आजाद परिन्दों से कह दो, अब यहाँ विदेशी राज नहीं
है ताज हिमालय के सिर पर, अब और किसी का ताज नहीं।’’
कवि ने कहना चाहा है कि अब देश का एक ही ताज है और वह है हमारा सरताज हिमालय। हिमालय यहाँ समस्त भारत का प्रतीक बनकर आया है– हमारी एकता, हमारे समेकित बंधुत्व का प्रतीक।
‘तुम उसको गोली दो’ (नवम्बर, 1962) चीनी आक्रमण के ठीक बाद की रचना है। अपनी तरह के छोटे छंद में रचित इस कविता का केन्द्रीय स्वर राष्ट्रीय पौरुष की अभिव्यक्ति है, जिसका माध्यम पुनः एक बार हिमालय बना है। उन्मीलक पंक्तियाँ देखिए-
‘‘आज बाँह फड़की है, छाती भी धड़की है
गोद में हिमालय की, रण-बिजली कड़की है।’’
(हिमालय ने पुकारा /39)

कवि ने इसमें लापरवाहों, भीरुओं और धनलोलुपों को कड़े शब्दों में फटकारा है–
‘‘चर्चा तू करता है, साम्यवाद, हिंसा की
सर्वोदय, पंचायत, ट्रस्ट की, अहिंसा की
लुटती है आजादी, तुझको न चिन्ता है
सोते में जगते में, तू रुपये गिनता है।
दौड़ चलो नेफा को, देश जहाँ लुटता है
खून सी धरती पर, नाम जहाँ उठता है
तिब्बत की सीमा से, हिन्द यहीं मिलता है।’’
(हिमालय ने पुकारा/ 42)
कवि ने इन पंक्तियों में लद्दाख और नेपाल को हिमालय की गोद कहकर अभिहित किया है।
फरवरी, 1963 में रचित नेपाली की अत्यंत लोकप्रिय कविताओं में एक ‘भारत माता की प्रभाती’ में कवि ने हिमालय को घायल, पददलित और अपमानित रूप में दिखाया है। कहा जा चुका है कि भारतीयों के लिए हिमालय पर्वतराज मात्र नहीं, अपितु भारतीयता का, उसके समग्र अस्तित्व का प्रतीक है। इसलिए, हिमालय को लगने वाली कोई भी चोट समस्त भारत की चोट होती है। शांति भंग होती है हिमालय की और अशांत हो उठता है भारत। इसी से पता चलता है कि कितना महत्त्वपूर्ण है हमारा हिमालय! नेपाली की यही पीड़ा इन पंक्तियों में छलक पड़ी है-
‘‘तुम लाल सोते रह गये, शंकर भी सोते रह गये
घायल हिमालय रोया, तुम घाव धोते रह गये
इतना न सोना बेटो, बिस्तर कबर हो जाये
अपना हिमालय लुटके, कल को उधर हो जाये।’’ ( वही, 36)

कहते हैं, यह जागरण-गीत ईरान की एक प्रसिद्ध लोकधुन पर आधारित है। कई स्थलों पर सशक्त प्रतीकों के प्रयोग के कारण कविता और भी महत्त्वपूर्ण बन गई है।
‘तरु-वृक्षों की पाँति घनी यह’ नेपाली के कविता-संग्रह ‘नीलिमा’ में संकलित हिमालय विषयक अपेक्षाकृत छोटी कविता है– मात्र अठारह पंक्तियों की। छन्द भी काफी छोटा है। रचना-क्रम (1939) की दृष्टि से ‘नीलिमा’ कवि का चौथा संग्रह है, किन्तु प्रकाशन की दृष्टि से पाँचवाँ। 1944 ई. में मशहूर साम्यवादी नेता रामदेव शर्मा ने इसे वैशाली निकुंज, मुजफ्फरपुर से प्रकाशित कराया था। यह संकलन मूलतः उनके प्रेम व प्राकृतिक सौन्दर्य-बोध का अभिव्यंजन था।
‘तरु-वृक्षों की पाँति घनी यह’ कवि के प्रकृति-प्रेम और देश-प्रेम का मीलित उदाहरण है, जिसमें उन्होंने हिमालय को भारत की महानता, उदारता, सुन्दरता और मुखरता का आधार बताया है। देखिए–
‘‘सुन्दर है जग में यदि भारत,
तो आधार हिमालय है।
करुणा की पाषाणी पिघली
महाविजन में गंगा निकली
नीचे हिम ऊपर घन उज्ज्वल
यह संसार हिमालय है।

…भारत को जो कुछ कहना है
उसका उद्गार हिमालय है।’’

इस पूरी कविता में कवि ने भारत को हिमालयमय और हिमालय को भारतमय दिखाते हुए दोनों में अद्वैत का सम्बन्ध दिखाया है।
वर्ण्य वस्तु से स्पष्ट है कि हिमालय-विषयक यह कविता नेपाली के द्वारा युद्ध-काल में रचित अन्य कविताओं से भिन्न है। राष्ट्रीयता का पुट दोनों में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि युद्ध-काल-पूर्व रचित हिमालय-विषयक कविताओं में राष्ट्रीयता का सांस्कृतिक रूप दृष्टिगत है तो परवर्त्ती रचनाओं में राष्ट्रीयता का उद्दात रूप।
‘पंचमी’ (1942) में संकलित ‘हिमांचल’ कविता ‘तरु-वृक्षों की पाँति घनी यह’ की ही भाँति प्रथमतः और अंततः प्राकृतिक सौन्दर्योन्मीलन की रचनात्मक प्रस्तुति है। हिमांचल साधारण पर्वत नहीं है। वह तो धरा का गर्वोन्नत भाल है, जिससे कंकड़ को किंकणी बनाती हुई सुरसरि की पतली-सी धारा प्रवाहित होती रहती है, जिसके आश्रय में बसता है विहग-किन्नरियों से सदैव मुखर रहने वाला मानसरोवर। हिमांचल ऐसा गजराज है, जो ‘धरा पर घट भर-भर जल डाल रहा है।’ ऐसे उदारचित्त हिमगिरि को निहारना सदैव सुखकर व प्रीतिकर प्रतीत होता है।
गोपाल सिंह ‘नेपाली’ न केवल स्वयं को, बल्कि कवि मात्र को हिमगिरि-दर्शन हेतु आमंत्रित करते हैं–
‘‘आज धरा से ऊपर उठकर
कवि विशाल हिमगिरि को देखो।’’

# प्रो. (डाॅ.) बहादुर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार
11/08/2020