BNMU। महात्मा गाँधी को नमन

बापू की 151वीं जन्म-तिथि पर

# प्रो. (डाॅ.) बहादुर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार

‘‘जीवन का रस कर्म में समाहित है,
सृष्टि में आनंद पाना जीवन का नियम है
उठो और एक नये संसार की सृष्टि करो।
अपने को ज्वालाओं से ढँक लो।
× × × ×
दृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति स्वयं अपना ही मालिक है।
× × × ×
संघर्ष करने वाला व्यक्ति ही भाग्य को अनुकूल पाएगा।’’

गीता के निष्काम कर्म-दर्शन से आलोकित इन पंक्तियों के प्रणेता कवि-दार्शनिक मो. इकबाल की इन पंक्तियों से वे परिचित थे या नहीं, मुझे मालूम नहीं । पर, उन्होंने अपना जीवन-रस निष्काम कर्म में तलाशा था और धारण किया था धधकती ज्वालाओं का महावलय। एक सर्वथा नये हिंसामुक्त संसार के निर्माण में वे प्राणपण से अग्रसर थे। तभी एक विवेकशून्य हाथ ने उनकी संघर्षमय यात्रा पर सदा के लिए विराम लगा दिया।
महात्मा गाँधी का समग्र जीवन एक ‘वर्कशॉप’ था, जिसमें उन्होंने खराद पर चढ़ाकर इस कदर माँजा था कि पोरबंदर रियासत के दीवान करमचन्द का सबसे छोटा बेटा मोहन, उर्फ ‘मोहनिया’ देखते-देखते ‘महात्मा’ बन बैठा। झेंपू स्वभाव का अत्यन्त साधारण लड़का संसार का सबसे अहिंसक योद्धा कहलाने लगा। ऐसा महायोद्धा, जो नफरत को नफरत से नहीं, प्यार से परास्त करता था। वह परपीड़न के बजाय आत्मपीड़न से सुधार का पक्षधर था। इसका पहला प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में किया और सफल रहा।
भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के महानायक गाँधी प्रारंभ में राजभक्त थे। लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे राष्ट्रभक्त-रूप में अवतरित हुए। शासन का दमन-चक्र ज्यों-ज्यों तेज होता गया, त्यों-त्यों राजभक्ति की केंचुली उतरती गयी और सँवरती गयी जननायक की अभिनव छवि। राजनैतिक निर्णय लेने के उनके अपने मानदण्ड थे। घटनाओं, परिस्थितियों तथा लोगों से निबटने के उनके अपने तरीके थे। अपनी सीमाओं के बावजूद उनके विचार और क्रियाकलाप देशवासियों के अनुकूल थे; जैसे– उनके खादी ग्रामोद्योग, नशाबंदी, अस्पृश्यता-निवारण, हिन्दू-मुस्लिम-एकता, प्रौढ़शिक्षा, बुनियादी शिक्षा, ग्राम-सुधार ट्रस्टीशिप, हिन्दी का प्रचार-प्रसार इत्यादि। उनका आर्थिक कार्यक्रम दस्तकारी, चर्खा-चालन, मधुमक्खी-पालन इत्यादि पर आधारित था। हरेक सत्याग्रही से अपेक्षा की जाती थी कि वह इन रचनात्मक कार्यक्रमों का सहभागी बने। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जिसतरह सशस्त्र विद्रोह के लिए सैनिक शिक्षा आवश्यक है, उसीतरह, असहयोग आन्दोलन के लिए रचनात्मक क्रियाकलाप।
गाँधीजी परंपरा और प्रयोग के मीलित रूप थे। उनकी बड़ी विशेषता मन-वचन-कर्म में एकरूपता थी। उनके अनुसार, सत्य साध्य है तो अहिंसा साधन। वे अहिंसा को स्वराज्य से उच्चतर मानते थे। अहिंसा का अर्थ अत्याचार के समक्ष समर्पण नहीं, अपितु प्राणपण से अहिंसक प्रतिकार है। अहिंसात्मक प्रतिरोध का दूसरा नाम सत्याग्रह है।

गाँधी के समकालीनों में अब्राहम लिंकन, कार्लमार्क्स, माओत्से तुंग, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर- सब थे। सब-के-सब प्रतिभाशाली और प्रभावशाली। परन्तु, गाँधी की प्रभावशालिता सबसे अलग थी। वे एकसाथ बुद्ध और मुहम्मद की तरह पैगंबर, वाशिंगटन और गैरीबाल्डी की तरह मुक्तिदाता, सुकरात और कन्फ्यूशियस की तरह लोक-शिक्षक, मार्क्स और संतोकनी की तरह अर्थशास्त्री तथा कृष्ण और अशोक की तरह राजनेता थे। वे न तो चाणक्य थे और न मैकियावेली । वे न तो ईसा की तरह अपने समाज द्वारा परित्यक्त थे और न ही राम की तरह पूज्य। वे साधारण में असाधारण और विरोध में अविरोध थे, जिसे लोगों ने भरपूर प्यार दिया और अन्त में गोली भी मारी। एक महानायक की विडम्बनापूर्ण मौत, स्वाधीन भारत में एक पराधीन मौत!

गाँधी को गये 72 बरस बीत गये। न चाहने वाले कमे, न कोसने वाले। जिसतरह आज विश्व में युद्ध, तनाव, आतंक और अविश्वास का माहौल बना हुआ है, ऐसे में चाहे-अनचाहे याद आते हैं गाँधी और उनका दर्शन।

अन्त में, राष्ट्रकवि दिनकर के उद्गार में ही हमारा उद्गार शामिल है – ‘‘तू कालोदधि का महास्तंभ,/ आत्मा के नभ का तुंग केतु,/ बापू! तू मर्त्य-अमर्त्य,/स्वर्ग-पृथ्वी, भू-नभ का महासेतु।। तेरा विराट यह रूप कल्पना/ पट पर नहीं समाता है, / जितना कुछ कहूँ, मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है।’’

# प्रो. (डाॅ.) बहादुर मिश्र, पूर्व अध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार