Search
Close this search box.

कविता। विचलित मन

👇खबर सुनने के लिए प्ले बटन दबाएं

विचलित मन
मन व्याकुल होता है जब-जब,
सोचती हूँ मैं तब-तब,
क्यों व्याकुल हूँ!यह संदेश कैसा?
किसी रूप में ढूंढूं तुम्हें प्रभु जी
तेरा देश कैसा!तेरा वेश कैसा?
पर्वत,पानी,झरना तेरा,
हम इंसानों ने बांट लिया,
जरा भी ना सोचा हमनें,
हर रूप में तुमको बांट लिया।
मानवता कराह रही,
संवेदना से गुहार रही,
किस रूप में ढूंढूं प्रभुजी,
हर रूप में तुम को बांट लिया।
हर एक की आशा तुम पर टिकी है,
आंसू भरी आंखें थमी है,
इन भरे हुए नैनों से,
तेरा अस्तित्व ढूंढ रही हूं।
एक बार कल्याण करो प्रभु,
इस संसार पर रहम करो प्रभु,
मानव क्या है! घमंड कैसा?
सृष्टि तुम्हारी कर्ता तुम्ही हो,
आज व्याकुल मन से प्रभुजी,
हर रूप में तुमको ढूंढ रही हूं।

डॉ कुमारी प्रियंका, इतिहास विभाग, जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा

READ MORE

[the_ad id="32069"]

READ MORE

बाढ़ आपदा से निपटने के लिए नदियों जोड़ना जरूरी : डा. संजीव – दैनिक जागरण के रजत जयंती भाषण प्रतियोगिता में बोले प्राचार्य – कहा, कोसी की त्रासदी झेल रहे इलाके में चेतना जरूरी – वेट लैंड को वेस्ट लैंड नहीं वंडरलैंड बनाने का हो