छोटे- छोटे, हल्के सीधे-सपाट चंद सवाल भी
चुभ जाते हैं उन्हें खंजर की तरह,
तिलमिला जाती हैं उनकी बेहया आंखें
अंततः शुरू हो जाती है…. बदजुबानी
और कलम को रोकने की हिमाकत।
गंगा- यमुना- गोदावरी के प्रवाह की तरह
बीते वक्त के साथ
गुजर गया एक एक कर सभी कालखंड
कई पीढ़ियां भी साथ छोड़ गयीं
लेकिन चापलूसों से घिरे उस निजाम को
अभी तक रास नहीं आया
निंदक नियरे रखिए का मंत्र।
जबकि कनगोजर की माफिक
कानों में घुसते ही
अंदर तक समा जाते हैं चित्कार के शब्द
उनसे संवाद करने को।
लेकिन
सिंहासन हिलने के खौफ से
सत्ता के गलियारों से
बरबस आने लगती है
झौं- झौं- झौं की आवाज
आखिरकार …
बेलगाम हो जाता है नौकरशाह
और अपने निजाम
सवालों का जवाब नहीं देते
बस बांचते हैं प्रवचन।
ऐसा क्या हुआ कि
कई दिनों तक पाटलिपुत्र में
जलकैदी बन कर रह गए हजारों लोग।
दूध के लिए बिखते रहे नवजात बच्चे
प्यास बुझाने को तड़पते रहे निरीह लोग
सेनेटरी नैपकिन के लिए
बेहाल रहीं मां- बहनें।
लेकिन इस घनघोर
विपदा की इस घड़ी में
रहनुमा बनकर आया एक शख्स ???
और पड़ गया भारी
सोयी हुई शासन व्यवस्था पर।
बीमारी बाँटते बारिश के पानी की सड़ांध के साथ
फैल रही है कुव्यवस्था की बदबू
मच्छरों का डंक अभिशाप दे रहा है डेंगू का
अस्पतालों में बढ़ रहे हैं लाईलाज मरीज।
जाओ! लड़ते रहो
पास और दूर के मच्छरों से
तुन्हें भी इक दिन पता चल जाएगा
तुम्हारे इकबाल का अर्थ।
देखो- समझो!
और कसो
अपनी मिशनरी के कलपुर्जे
रोएगी अगर जनता तो
दो- चार, दस नहीं
पूछेंगे हजार सवाल
आँख तरेरते रह जाओगे।
-डॉ. सरोज कुमार
……
सीधे- सपाट चंद सवाल भी
चुभ जाते हैं उन्हें खंजर की तरह,
तिलमिला जाती हैं उनकी बेहया आंखें
अंततः शुरू हो जाती है…. बदजुबानी
और कलम को रोकने की हिमाकत।
गंगा- यमुना- गोदावरी के प्रवाह की तरह
बीते वक्त के साथ
गुजर गया एक एक कर सभी कालखंड
कई पीढ़ियां भी साथ छोड़ गयीं
लेकिन चापलूसों से घिरे उस निजाम को
अभी तक रास नहीं आया
निंदक नियरे रखिए का मंत्र।
जबकि कनगोजर की माफिक
कानों में घुसते ही
अंदर तक समा जाते हैं चित्कार के शब्द
उनसे संवाद करने को।
लेकिन
सिंहासन हिलने के खौफ से
सत्ता के गलियारों से
बरबस आने लगती है
झौं- झौं- झौं की आवाज
आखिरकार …
बेलगाम हो जाता है नौकरशाह
और अपने निजाम
सवालों का जवाब नहीं देते
बस बांचते हैं प्रवचन।
ऐसा क्या हुआ कि
कई दिनों तक पाटलिपुत्र में
जलकैदी बन कर रह गए हजारों लोग।
दूध के लिए बिखते रहे नवजात बच्चे
प्यास बुझाने को तड़पते रहे निरीह लोग
सेनेटरी नैपकिन के लिए
बेहाल रहीं मां- बहनें।
लेकिन इस घनघोर
विपदा की इस घड़ी में
रहनुमा बनकर आया एक शख्स ???
और पड़ गया भारी
सोयी हुई शासन व्यवस्था पर।
बीमारी बाँटते बारिश के पानी की सड़ांध के साथ
फैल रही है कुव्यवस्था की बदबू
मच्छरों का डंक अभिशाप दे रहा है डेंगू का
अस्पतालों में बढ़ रहे हैं लाईलाज मरीज।
जाओ! लड़ते रहो
पास और दूर के मच्छरों से
तुन्हें भी इक दिन पता चल जाएगा
तुम्हारे इकबाल का अर्थ।
देखो- समझो!
और कसो
अपनी मिशनरी के कलपुर्जे
रोएगी अगर जनता तो
दो- चार, दस नहीं
पूछेंगे हजार सवाल
आँख तरेरते रह जाओगे।
-डॉ. सरोज कुमार
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