सफलताएं
प्रेमकुमार मणि
कहा गया मुझ से /आलस्य छोड़ दो /छोड़ दिया मैंने/नींद पर लगाम लगाई /अल्पाहारी बना। संसार में जितनी कमियां थीं, मुझ में थी/दूसरों की निन्दा-आलोचना की फुर्सत नहीं थी मुझे/
फूंक-फूंक कर कदम रखे/
संभव सावधानियां बरतीं।
असर हुए सब के
आत्मविश्वास लौटा
सफलताएं हासिल की
मेरे चारों तरफ अब एक दुनिया थी
केन्द्रक मैं था।
मुझे संतुष्ट होना था
लेकिन वह संभव नहीं हुआ
मुझे अधिक ऊंचाइयां चाहिए थीं
सीढ़ियां नाकाफी थीं मेरे लिए
पूरा आकाश चाहिए था मुझे
चाँद-सितारों से भरा आकाश।
मना किया गया मुझे
सफलताओं की भी सीमा होनी चाहिए
जिंदगी की भी सीमा है.
किन्तु
मेरी जिद में चाँद-सितारे थे
ब्रह्माण्ड था
पूर्ण नहीं,सम्पूर्ण होने की आकांक्षा थी
स्वर्ग चाहिए था मुझे
उस से कम कुछ भी नहीं।
अब सफलताओं का दूसरा दौर था
पहले दौर में
मैंने नींद, परनिन्दा और आलस्य की बलि दी थी
अब इस दूसरे दौर की सफलताएं
मुझ से नैतिकता, मनुष्यता और ईमान की बलि चाह रही थीं
मैंने दिए एक-एक कर
मुझे सफलताएं चाहिए थीं
हर चीज़ की कीमत चुकानी होती है।
मेरे अधिकार बढ़ते गए
मैं अधिपति था अब
स्वर्ग बस बित्ते भर दूर था मुझ से
मेरी ताकत बढ़ती ही जा रही थी।
लाख कोशिश की
निरभिमान होने की
लेकिन सब कुछ मेरे बस का नहीं था
तीर कमान से छूट चुका था
मैं भी ज़मीन से उठ चुका था
आसमान,चाँद-सितारों की तरफ बढ़ चुका था
अब मैं मनुष्य नहीं
कुछ और था
शायद अपना ही प्रेत.
सफलताएँ मेरे साये में दहाड़ रही थीं
और मैं उसके आसन पर चुपचाप बिलख रहा था.
सच कहूँ
मैं अपनी पुरानी दुनिया में लौटना चाहता था
मनुष्य बन कर
अपनी भूख,नींद और ज़िन्दगी के साथ
सफलताओं से दूर
किसी घाटी में
आसमान के नीचे और धरती के ऊपर
किसी छोटी नदी के तट पर
वनस्पतियों से घिरे किसी कुंज में
वनवासियों के बीच.
लेकिन शायद यह
नामुमकिन था।