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BNMU Dairy अखबार में नाम

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*अखबार में नाम*
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हर कोई चाहता है कि उसका ‘नाम’ हो। कहते हैं न कि “पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा…।” प्रायः सभी लोगों में नाम की चाहत होती है। यह एक तरह से ‘अमरता’ का ही प्रयास है।

वैसे प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने नाम की वजाय सत्य को प्राथमिकता दी। प्रायः लोग अपने अमूल्य ग्रंथों में भी अपना नाम नहीं देते थे। लेकिन फिर नाम का चलन चला। नाम के लिए शिलालेख खुदबाने, सिक्के चलाने और किताबें लिखने तक कई यत्न किए जाते रहे हैं।

*एक कहानी*
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नाम का एक प्रमुख माध्यम है-अखबार। ‘अखबार में नाम’ बहुत मायने रखता है और इसको लेकर एक कहानी भी बहुत प्रचलित रही है। उस कहानी में नायक ‘अखबार में नाम’ के लिए अपना जीवन दांव पर लगा देता है।

*लेख का प्रभाव*
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खैर, मेरी भी बचपन से ही अखबारों में रूचि रही है। मेरे मामा जी श्री अग्निदेव सिंह, जब भागलपुर से वापस घर आते थे, तो सभी पुराने अखबार एवं पत्रिकाएं लेते आते थे। मैं उसे पढ़ता था और जरूरी चीजों की कटिंग्स पर रखता था। प्रायः हिन्दुस्तान अखबार के ‘रविवासरीय’ पृष्ठ पर छपे फीचर, ‘माया’ पत्रिका के राजनीतिक आलेख और ‘कादम्बनी’ के कुछ लेख मैं संग्रहित करता था। मेरे जीवन पर भी इन चीजों का काफी प्रभाव रहा। ‘कादम्बिनी’ के एक लेख ‘कमल है नाभी’ में बताया गया था कि सूर्यास्त के बाद भोजन करना हानिकारक है। इस आलेख के प्रभाव में मैंने काफी दिनों तक रात में खाना छोड़ दिया था।

*मामा की खुशी*
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बहरहाल, बात ‘अखबार में नाम’ की थी। मेरे मामा जी जब किसी अखबार में यूपीएससी परीक्षा में उत्तीर्ण लोगों का फोटो देखते, तो मुझे कहते कि जिस दिन तुम्हारा फोटो छपेगा, बहुत खुशी होगी। लेकिन मैं मामा जी को वह खुशी नहीं दे पाया!

*पहला प्रकाशन*
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हाँ, वर्ष 2002-2003 से मैं अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगा। ‘हिन्दुस्तान’ के स्तंभ ‘लोकवाणी’ और एक पत्रिका ‘गृहशोभा’ के स्तंभ ‘आपके पत्र’ में मेरे जो पत्र छपे थे, वे आज भी मेरे पास संग्रहित हैं।

*विज्ञप्ति लेखन*
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इधर, पत्रकारिता एवं लेखन में रूचि ने मुझे पत्र लेखक के साथ-साथ विज्ञप्ति लेखक भी बना दिया। इसमें मेरी थोड़ी अच्छी हेंडराइटिंग का भी योगदान रहा। मैं जब भी किसी कार्यक्रम में जाता, लोग मुझे विज्ञप्ति लिखने बैठा देते थे। मेरे लिए यह बहुत ही मजेदार काम था और है भी।

लेकिन इसमें बहुत खतरे थे और हैं। प्रायः लोग मुझसे शिकायत करते कि मेरा नाम क्यों छोड़ दिए ? कई बार जल्दबाजी में सचमुच महत्वपूर्ण व्यक्ति का भी नाम छुट जाता है। कई बार अखबार वाले किसी का नाम छोड़ देते हैं। कुछ लोगों की शिकायत होती थी कि पूरा नाम क्यों नहीं दिया ? उदाहरण के लिए बड़े भाई ‘विजय सिंह यादव धावक गाँधी टाइगर’ का नाम देखें। कुछ लोगों के नाम का ‘डाॅ.’ छुट जाए, तो वे सिर पर आसमान उठा लेते थे।

*पीआरओ की पीड़ा*
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इधर, अगस्त 2017 से बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के जनसंपर्क पदाधिकारी (पीआरओ) का काम देख रहा हूँ। यहाँ भी अक्सर ऐसी शिकायतें मिलते रहती हैं। मैं यथासंभव समाधन करने का भी प्रयास करता हूँ। उदाहरण के लिए कल ही एक विभागाध्यक्ष महोदय ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा कि वे पी-एच. डी. नहीं हैं, इसलिए उनके नाम के आगे ‘डाॅ.’ नहीं लगाया जाए। इसके पूर्व एक संकायाध्यक्ष महोदय ने भी मुझे उनके नाम में हुई गलती को सुधारने में मदद की थी। यह सब बहुत अच्छा लगता है।

लेकिन पीड़ा तब होता है, जब कोई अनाधिकारपूर्वक यह कहने लगता है कि मैंने उनका नाम और भाषण क्यों नहीं लिखा ? कुछ महिनों पूर्व मैंने एक बैठक की खबर जैसे ही मीडिया ग्रुप में डाली, तत्क्षण मुझे एक शिक्षक का फोन आ गया कि मैंने उनका भाषण क्यों नहीं लिखा ? (शायद मेरे एक पत्रकार मित्र ने उन्हें मेरे द्वारा भेजा गया ‘न्यूज’ बता दिया था!) मैंने कहा कि आपको अपनी बात छपबानी हो, तो आप खुद अखबार में दे दीजिए। इस पर वे भड़क गए। इसके बावजूद मैंने बात को ज्यादा तुल नहीं दिया।

*दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?*
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लेकिन आज शाम हुए वाकए ने मुझे उद्देलित कर दिया। मैं सुबह से ही विभिन्न कार्यक्रमों में कुलपति महोदय के साथ रहा। शाम के करीब 6 बजे मैं कुलपति आवास से पैदल ही अपने आवास आ रहा था।

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर एक कर्मचारी ने मुझे देखते ही कहा, “आपने अखबार में मेरा नाम नहीं दिया। मेरे ही विभाग की बैठक वाले खबर में।” मैंने कहा, “किस खबर में ?” उन्होंने बताया। लेकिन वे उस बैठक में सदस्य नहीं थे, तो मैं उनका नाम कैसे दूँ ? इसके बावजूद मैं बिना कुछ जवाब दिए ही चल दिया। फिर उन्होंने पास बैठे गार्ड आदि को सुनाते हुए मुझसे कहा, “आप तो बहुत अच्छे आदमी हैं। दुश्मनी क्यों मोल ले रहे हैं ?” इस टिप्पणी से काफी आहत हुआ।
30.10.2018

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बिहार के लाल कमलेश कमल आईटीबीपी में पदोन्नत, हिंदी के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय पहचान अर्धसैनिक बल भारत -तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) में कार्यरत बिहार के कमलेश कमल को सेकंड-इन-कमांड पद पर पदोन्नति मिली है। अभी वे आईटीबीपी के राष्ट्रीय जनसंपर्क अधिकारी हैं। साथ ही ITBP प्रकाशन विभाग की भी जिम्मेदारी है। पूर्णिया के सरसी गांव निवासी कमलेश कमल हिंदी भाषा-विज्ञान और व्याकरण के प्रतिष्ठित विद्वान हैं। उनके पिता श्री लंबोदर झा, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक हैं और उनकी धर्मपत्नी दीप्ति झा केंद्रीय विद्यालय में हिंदी की शिक्षिका हैं। कमलेश कमल को मुख्यतः हिंदी भाषा -विज्ञान, व्याकरण और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए देश भर में जाना जाता है। वे भारतीय शिक्षा बोर्ड के भी भाषा सलाहकार हैं। हिंदी के विभिन्न शब्दकोशों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। उनकी पुस्तकों ‘भाषा संशय-शोधन’, ‘शब्द-संधान’ और ‘ऑपरेशन बस्तर: प्रेम और जंग’ ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। गृह मंत्रालय ने ‘भाषा संशय-शोधन’ को अपने अधीनस्थ कार्यालयों में उपयोग के लिए अनुशंसित किया है। उनकी अद्यतन कृति शब्द-संधान को भी देशभर के हिंदी प्रेमियों का भरपूर प्यार मिल रहा है। यूपीएससी 2007 बैच के अधिकारी कमलेश कमल की साहित्यिक एवं भाषाई विशेषज्ञता को देखते हुए टायकून इंटरनेशनल ने उन्हें देश के 25 चर्चित ब्यूरोक्रेट्स में शामिल किया था। वे दैनिक जागरण में ‘भाषा की पाठशाला’ लोकप्रिय स्तंभ लिखते हैं। बीते 15 वर्षों से शब्दों की व्युत्पत्ति एवं शुद्ध-प्रयोग पर शोधपूर्ण लेखन कर रहे हैं। सम्मान एवं योगदान : गोस्वामी तुलसीदास सम्मान (2023) विष्णु प्रभाकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान (2023) 2000 से अधिक आलेख, कविताएँ, कहानियाँ, संपादकीय, समीक्षाएँ प्रकाशित देशभर के विश्वविद्यालयों में ‘भाषा संवाद: कमलेश कमल के साथ’ कार्यक्रम का संचालन यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए हिंदी एवं निबंध की निःशुल्क कक्षाओं का संचालन उनका फेसबुक पेज ‘कमल की कलम’ हर महीने 6-7 लाख पाठकों द्वारा पढ़ा जाता है, जिससे वे भाषा और साहित्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। बिहार के लिए गर्व का विषय : आईटीबीपी में उनकी इस उपलब्धि और हिंदी के प्रति उनके योगदान पर पूर्णिया सहित बिहारवासियों में हर्ष का माहौल है। उनकी इस सफलता ने यह साबित कर दिया है कि बिहार की प्रतिभाएँ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार स्वयं प्रकाश के फेसबुक वॉल से साभार।

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