BNMU प्रथम साक्षी से संवाद/ शिक्षक एवं शिक्षार्थी में तारतम्य आवश्यक : डॉ. रवि

प्रथम साक्षी से संवाद

जनवरी 1992 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव की सरकार ने कोसी में विश्वविद्यालय की बहुप्रतीक्षित मांग को पूरा किया और मधेपुरा को इसका मुख्यालय बनाया। इस तरह बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय का जन्म हुआ। इसमें डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव ‘रवि’ की महती भूमिका रही और सौभाग्य से आपको विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इस तरह आप इस विश्वविद्यालय के प्रथम साक्षी हैं। आपने इस विश्वविद्यालय की गर्भावस्था का सुख अनुभूत किया और इसकी प्रसव वेदना भी झेली। इसे घुटने के बल चलते देखा, फिर डगमगाते हुए दौड़ते भी देखा और आज इस मुकाम पर भी देख रहे हैं।

आप इस विश्वविद्यालय के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य अर्थात् कल, आज एवं कल को एक साथ देख रहे हैं। इस विश्वविद्यालय का वांग्मय चाहे जितना बड़ा हो जाए, इसकी इमारतों की मंजिलें चाहे कितनी भी ऊंची क्यों ना हो जाए, इसकी बुनियाद बदली नहीं जा सकती है और उस बुनियाद में आपके खून-पसीने को अलग नहीं किया जा सकता है।

आपने शैक्षणिक, साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में कई उपलब्धियां प्राप्त की हैं। आपने लोकसभा सदस्य एवं राज्यसभा सदस्य सहित कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है।

लेकिन विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति के तौर पर बिताए 6 महीने को आप अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ कालखंड मानते हैं। ऐसे आदर्श शिक्षक, यशस्वी लेखक, कुशल प्रशासक एवं लोकप्रिय राजनेता से हम जीवन एवं जगत के विभिन्न पहलुओं पर अगले कुछ दिनों तक लगातार संवाद करेंगे। आपसे कुछ सीखने-समझने का प्रयास करेंगे और उससे भी अधिक स्वयं को एवं अपने श्रोताओं को आपके सामीप्य का सुअवसर उपलब्ध कराएंगे।

हमने इस श्रृंखला का नाम दिया है- डॉ. रवि की पाठशाला तथा प्रथम साक्षी से संवाद।

इस श्रृंखला की इस पहली कड़ी में सोमवार को जनसंपर्क पदाधिकारी डॉ. सुधांशु शेखर ने डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव ‘रवि’ से बातचीत की। यह एक अनौपचारिक बातचीत है और इसका कोई पूर्व विषय निर्धारित नहीं है। इसके बावजूद सुविधा के लिए हमने इसका शीर्षक दिया है ‘शिक्षक शिक्षार्थी एवं साहित्य’।

डॉ. रवि ने कहा कि सुचारू शिक्षण के लिए शिक्षक एवं शिक्षार्थी में तारतम्य आवश्यक है। इसके लिए शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को सजग रहने की जरूरत है। शिक्षक को पूरी तैयारी के साथ कक्षा में जाना चाहिए। साथ ही शिक्षार्थी को भी अपनी ग्रहणशीलता बढ़ानी चाहिए। लेकिन दुख की बात है कि आज के शिक्षकों में साधना की कमी है और शिक्षार्थी भी मेहनत से जी चुराते हैं।

उन्होंने बताया कि उन्होंने पटना विश्वविद्यालय, पटना से पढ़ाई की है। उनके शिक्षक पूरी तरह अफटूडेट होकर कक्षा में आते थे। वे कंप्रीहेंशन स्टडी करते थे। संबंधित विषय से जुड़ी अन्य भाषाओं की पुस्तकें भी पढ़ते थे और लेटेस्ट पुस्तकों को भी पढ़ते थे। साथ ही अन्य भाषाओं के संबंधित साहित्य की भी जानकारी रखते थे। उदाहरण के लिए जब वे छायावाद के स्तंभ जयशंकर प्रसाद, सूमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला या महादेवी वर्मा को पढ़ाते थे, तो पश्चिमी छायावादियों का भी परिचय देते थे। बायरन, शीली, किट्स, वर्डसवर्थ आदि से भारतीय कवियों की तुलना करते थे।

उन्होंने कहा कि कुछ लोग यह कहते हैं कि हिंदी साहित्य ने पश्चिमी साहित्य का अनुकरण किया है। लेकिन यह सर्वथा गलत है।

उन्होंने कहा कि पश्चिमी साहित्य नवीन है। लेकिन भारतीय साहित्य बहुत पुराना है। इसकी पृष्ठभूमि है संस्कृत। छायावाद एवं प्रकृति का मानवीकरण के उदाहरण भी संस्कृत साहित्य में काफी पहले से देखने को मिलता है।

उन्होंने कहा कि उदाहरण शकुंतला की शादी होने वाली है। में उसका दुपट्टा पेड़ की सूखी डाली से अटक जाता है। डाली कहती है कि शकुंतला आप चली जाओगी, तो हमें पानी कौन देगा।

उन्होंने कहा कि साहित्य समाज के लिए है। यह जीवन से जुड़ा हुआ है। साहित्य को समाज की वेदना एवं संवेदना को स्वर देना चाहिए।

उन्होंने कहा कि साहित्य संवेदना है और इसमें दर्द है। उदाहरण के लिए एक प्रेमिका अपने प्रेमी से प्रतिदिन नदी किनारे मिलती है। एक दिन प्रेमी नाव से नदी के उस पार जाता है। प्रेमिका प्रतिदिन नदी किनारे आकर प्रेमी के आने की प्रतीक्षा करती है। एक दिन प्रेमिका यह देखती है कि नदी के दूसरे किनारे एक चिता जल रही है। वह सोचती है कि मै़ं जिनके विरह में जल रही हूं, कहीं यह उन्हीं की चिता तो नहीं जल रही है। यह कोई नकारात्मकता नहीं है, बल्कि यह प्रेम की पराकाष्ठा है।