Vinoba। विनोबा : कर्म, ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय

विनोबा : कर्म, ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय
12 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य का संकल्प तथा 21 वें वर्ष में ब्रह्म साक्षात्कार की जिज्ञासा से गृह त्याग करनेवाले संत विनोबा जी का जीवन अद्वैत की अखंड साधना तथा गीता से ओतप्रोत और संपुष्ट था । उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को गागोदे, रायगड महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता का नाम नरहरि शम्भू राव भावे था। उनका पूरा नाम विनायक नरहरि भावे था। पांच भाई बहनों में विनोबा जी सबसे बड़े थे। सबसे छोटे का नाम दत्तात्रेय था। उनकी मृत्यु बचपन में हो गई। बहन शांता बाई की भी शादी के बाद छोटी उम्र में मृत्यु हो गई। शेष दो भाई बालकोवा और शिवाजी भी विनोबा जी की तरह बालब्रह्मचारी थे और उन्होंने भी अपना जीवन विद्याध्ययन और समाजसेवा में लगा दिया। उनके दादा शंभू राव तथा माता रुक्मिणी बाई ( रखुमाई) बहुत ही उच्च विचार एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे। विनायक पर उनके दादा एवं माता के शिक्षा का गहरा असर पड़ा। विनोबा जी के शब्दों में ‘अगर उन्हें मां की शिक्षा नहीं मिलती तो उन्हें भूदानयज्ञ का विचार नहीं सुझता।’ दरअसल विनोबा नाम महात्मा गांधी का दिया हुआ है । जब गांधी जी ने 1916 में उनके पिताजी को पत्र लिखकर सूचित किया था कि ‘आपका लड़का विनोबा मेरे पास है । इतनी छोटी उम्र में आपके लड़के ने जितनी तेजस्वीता और वैराग्य का विकास कर लिया है उतना विकास करने में मुझे बहुत साल लग गए थे।’ तब से विनोबा नाम प्रचलित हो गया।
‘पूत के पांव पालने में देखे जाते हैं’ यह कहावत पूरी तरह से विनोबा जी पर चरितार्थ होती है। विनोबा जी अत्यंत मेधावी और दृढ़ निश्चयी थे। वे गौतम बुद्ध, शंकराचार्य और रामदास से प्रभावित थे। छात्र जीवन में ही उन्हें ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ और रामदास के 5000 ओवियां, भजन कंठस्थ थे। वैसे उन्हें पचास हजार पद्य कंठस्थ थे। मैट्रिक की पढ़ाई बड़ौदा से करने के बाद उन्होंने कॉलेज में दाखिला लिया , लेकिन उनका मन कॉलेज की पढ़ाई में नहीं रमा। इस दौरान उन्होंने बड़ौदा के सेंट्रल लाइब्रेरी से लगभग 5000 पुस्तकों का अध्ययन कर लिया था। छात्र जीवन में ही उन्होंने मराठी, हिंदी , संस्कृत , गुजराती , फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान ज्ञान प्राप्त किया था । उन्हें 16 भारतीय और विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। 25 मार्च 1916 को बड़ौदा से इंटर की परीक्षा देने के लिए मुंबई के लिए निकले लेकिन अपने दो मित्रों के साथ सूरत से ट्रेन बदलकर काशी पहुंच गए । पिता जी को पत्र लिखा कि ‘मैं परीक्षा देने मुम्बई नहीं, कहीं और जा रहा हूँ। इतना तो आपको विश्वास होगा कि मुझसे कोई गलत कार्य नहीं होगा।’ छात्र जीवन से ही विनोबा जी को एक तरफ ज्ञान की उपासना की जिज्ञासा थी, तो दूसरी तरफ वे बंगाल की क्रांति से भी प्रभावित थे। काशी हिमालय और बंगाल के रास्ते के मध्य में था । इसलिए संस्कृत के अध्ययन के लिए काशी आ गए। विनोबा जी के काशी आने से पहले महात्मा गांधी 04 फरवरी,1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन में आए थे और उनका भाषण 06 फरवरी को हुआ था, जो चर्चा में था। विनोबा जी ने वह भाषण पढा जो समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था। उन्हें यह भाषण पसंद आया। उन्होंने गांधी जी को पत्र लिखा । गांधी जी ने जवाब दिया। फिर उन्होंने दूसरा पत्र लिखा । गांधी जी ने लिखा यह सब बात पत्र से नहीं जीवन संपर्क से होता है । तुम सत्याग्रह आश्रम आ जाओ। विनोबा जी कहते हैं कि उनका यह जवाब कि ‘ समाधान बातों से नहीं जीवन से होगा, मुझे जंच गया। जवाब के साथ गांधी जी ने आश्रम का नियम पत्रक भी भेजा था। उसमें लिखा था। ‘इस आश्रम का ध्येय विश्व हित अविरोधी देश सेवा है और इसके लिए निम्नलिखित व्रत आवश्यक मानते हैं।’ और नीचे सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य ,अस्तेय, अस्वाद , अपरिग्रह, शरीर-श्रम आदि एकादशी व्रत के नाम लिखे थे, जो विनोबा जी को आकर्षित किया । वे कहते है कि ‘ मैंने जितना इतिहास पढ़ा था, कहीं भी ये बातें मुझे पढ़ने को नहीं मिली। यह सारी बातें योगशास्त्र, धर्म ग्रंथ, भक्ति मार्ग में आती है। लेकिन देश सेवा के लिए यह आवश्यक है, यह बात उस पत्रक में लिखा था।’यह बात उनके लिए बिल्कुल नयी थी, जो उन्हें आकर्षित किया। वे कहते हैं ‘मुझे लगा यह पुरुष ऐसा है जो देश की राजनीतिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक विकास दोनों साथ-साथ साधना चाहता है। मुझे यही पसंद था ।’ और विनोबा जी 7 जून, 1916 को कोचराब आश्रम पहुंच गए। जब विनोबा जी कोचराब आश्रम पहुंचे तो गांधीजी सब्जी काट रहे थे । गांधीजी ने एक चाकू विनोबाजी की तरफ बढ़ा दिया और बातचीत शुरू कर दिया। विनोबा जी के लिए यह पहला अवसर था, इस तरह का काम कभी उन्होंने किया नहीं था। अहिंसा का पहला पाठ उन्होंने यहां सीखा। इस मुलाकात के बारे में विनोबा जी कहते हैं कि ‘मैं गांधी जी से मिला और मिलते ही उन पर मुग्ध हो गया । अंदर बाहर की उनकी एकता ने मुझे मोह लिया । वे कहते हैं ‘मैं नहीं जानता कि गांधी जी ने मेरी परीक्षा ली और मुझे अपनी कसौटी पर चढ़या या नहीं, लेकिन बुद्धि के अनुसार मैंने कई तरह से उनकी परीक्षा ले ली थी। अगर मेरी इन परीक्षा में वे कमजोर साबित होते तो मैं उनके पास टीक न पाता । मेरी परीक्षा करके उन्होंने मुझसे चाहे जितनी खामियां क्यों न देखी हो या आगे देखने वाले हो फिर भी वह मुझे अपने साथ रखते । लेकिन अगर मुझे उनकी सत्यनिष्ठा में कोई कमी , न्यूनता या खामी नजर आती, तो मैं उनके पास टिक नहीं पाता। बापू हमेशा कहा करते थे कि मैं अपूर्ण हूं, अधूरा हूं। बात उनकी सच थी । मैंने तो ऐसे बहुत महापुरुष देखे हैं जिनको आभास होता था कि वे मुक्त पुरुष हैं, पूर्ण पुरुष हैं। फिर भी ऐसे किसी महापुरुष का कोई आकर्षण मुझे कभी नहीं रहा। इसके विपरीत अपने को हमेशा अपूर्ण मानने वाले वाले बापू के प्रति मुझे एक प्रकार का अनोखा आकर्षक बना रहा।’ विनोबा जी कहते हैं कि बापू के पास आश्रम में जीवन के मूलभूत तत्व ‘एब्सलूट मोरल वैल्यूज’ के बारे में साफ दृष्टि मिली।
विनोबाजी ज्ञान की खोज में हिमालय और वंदे मातरम क्रांति की भावना से बंगाल जाना चाहते थे। पर वे न बंगाल गए न हिमालय । वे कहते हैं कि ‘ मैं गांधी के पास गया और उनके पास हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति मिली। वहां जो पाया उसमें क्रांति और शांति दोनों का अपूर्व संगम था।’ विनोबा जी की गांधीजी से मुलाकात युगांतकारी साबित हुआ। जो कदम ब्रह्म साक्षात्कार की जिज्ञासा से बढे थे, सत्याग्रह आश्रम में उन्हें वह मार्ग मिला। जिसकी उन्हें तलाश थी। आश्रम का सीधा सादा जीवन उन्हें पसंद आया। विनोबा जी ने पूरी तरह से आश्रम जीवन को आत्मसात किया, कठोर साधना की। ‘ 1917 में विनोबा जी अध्ययन और स्वास्थ्य की दृष्टि से आश्रम से 1 वर्ष की छुट्टी लेकर वाई गए। इस 1 वर्ष में विनोबा जी ने जो कार्य किया उसका पूरा विवरण पत्र द्वारा बापू को दिया। उससे विनोबा जी के विलक्षण प्रतिभा का परिचय मिलता है, जिसके बारे में गांधीजी ने कहा कि ‘गोरख ने मछंदर को हराया। भीम है, भीम। तुम्हारे लिए कौनसे विशेषण का प्रयोग करु समझ में नहीं आता। तुम्हारे प्रेम और चारित्र्य मुझे मुग्ध कर रहे हैं।’ इस एक वर्ष में उन्होंने उपनिषद, गीता, ब्रह्म सूत्र, शंकरभाष्य, याज्ञवल्क्य स्मृति, मनुस्मृति, और पातंजल योगदर्शन, न्याय सूत्र, वैशेषिक सूत्र का अध्ययन किया । स्वास्थ्य सुधार के लिए 10 –12 मील पैदल चलना, 6 – 8 सेर आटा पीसना, 300 सूर्य नमस्कार करना , टहलना आदि शामिल था। सेवा के क्षेत्र में गीता की कक्षा चलाई, 6 विद्यार्थियों को अर्थ के साथ गीता सिखाया, ज्ञानेश्वरी के 6 अध्याय 4 विद्यार्थियों को सिखाया, उपनिषद 2 विद्यार्थियों को सिखाया तथा वाई में विद्यार्थी मंडल का गठन किया। 400 मील पैदल पदयात्रा किया। आश्रम से बाहर रहते हुए भी उन्होंने आश्रम के सारे नियमों का पालन किया। एकादश व्रत का पूरी निष्ठा के साथ पालन किया। ठीक एक वर्ष पूरा होने पर वे आश्रम में वापस आ गए। 1917 में गांधी जी ने दीनबंधु एंड्रयूज से विनोबा जी के बारे में कहा था कि ‘वह आश्रम के दुर्लभ रत्नों में से एक है, वह यहां लेने नहीं, देने आया है
जमना लाल बजाज ने गांधी जी से वर्धा में सत्याग्रह आश्रम की शाखा खोलने का अनुरोध किया। 1921 में गांधीजी के सुझाव पर विनोबा जी अपने कुछ मित्रों के साथ वर्धा आ गए। 1921 से 1951 तक तीस वर्ष (जेल यात्रा को छोड़कर) विनोबा जी वर्धा में रहे इस अवधि में उन्होंने कठोर साधना, चिंतन और नए नए प्रयोग किए। उन्होंने भंगी का काम, चमड़े का काम और बुनाई, खादी, गो – सेवा आदि का कार्य किया।उनके प्रयोगों में कांचनमुक्ति, ऋषि खेती आदि कई प्रयोग शामिल थे। उन्हेंने रचनात्मक कार्यों को गति एवं दिशा प्रदान किया । वे सन् 1932 में दो-तीन साल ग्राम सेवा के निमित्त गांव गांव घूमे । 1934 में ग्राम सेवा मंडल की स्थापना हुई और पूरे वर्धा तहसील के लिए ग्राम सेवा की योजना बनाई गई । 1936 में दत्तपुर में कुष्ठ धाम शुरू हुआ और मनोहर जी दीवान विनोबा जी की सहमति से वहां बैठे गए।
स्वराज आंदोलन में विनोबा जी कई बार जेल गए । पहली बार झंडा सत्याग्रह में 1923 में नागपुर में जेल गए फिर वहां से अकोला जेल भेज दिए गए। फिर 1932 में 6 मास के लिए धुलिया जेल में रहे। सन् 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल गए और लगभग पौने दो साल जेल में रहे। फिर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल जाना पड़ा और सन् 1945 में वे रिहा हुए। पहले नागपुर फिर वेलूर और बाद में सिवनी जेल में रहे।
विनोबा जी (उन्हें लोग ‘बाबा’ के नाम से पुकारते है ) उच्च कोटि के साधक, चिंतक और विचारक थे। उन्होंने विपुल साहित्य का निर्माण किया। गीता पर उनका प्रवचन ‘गीता प्रवचन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1932 में उन्होंने धूलिया जेल में कैदियों के बीच प्रवचन दिया। उसे साने गुरुजी ने लिपिबद्ध किया और वह आज 26 देशी – विदेशी भाषाओं में उपलब्ध है। जिसकी कई लाख प्रतियां अब तक बिक चुकी है। इस पुस्तक के बारे में स्वयं विनोबा जी ने कहा था कि ‘ बाबा का असली दर्शन तो गीता प्रवचन में होता है।’ जेल में ही गीता का सरल मराठी पद अनुवाद भी ‘गीताई’ के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसकी मूल प्रेरणा विनोबा जी को अपनी मां से मिली थी। विनोबा जी ने दुनिया के सभी प्रमुख धर्म ग्रंथों के भाष्य लिखे हैं। जिसमें कुरान सार, जपुजी , धम्मपद नवसंहिता, ख्रिस्त धर्म – सार, आदि प्रमुख है । उनकी रचनाओं में साम्य सूत्र, स्थितप्रज्ञ दर्शन, अष्टादशी, राम नाम एक चिंतन, ईशावास्य वृत्ति, ऋग्वेद – सार, गुरुबोध, मनुशासनम, भागवत धर्म – सार, विनयांजलि , विचार पोथी, स्वराजशास्त्र, गीताई चिंतनिका, आदि शामिल है।
स्वराज्य प्राप्ति के बाद, खास कर गांधीजी के निर्वाण के बाद हमें किस तरह प्रगति करनी चाहिए, क्या रास्ता लेना चाहिए इसका बहुत मंथन विनोबा जी के मन में चल रहा था। गांधीजी के निर्वाण के बाद देश में व्यापक हिंसा हुई। विनोबा जी अहिंसा की सामूहिक प्रगटिकरण के बारे सोचने लगे । उन्हें महसूस हुआ कि राजनीतिक आजादी तो मिल गई मगर सामाजिक, आर्थिक क्रांति का काम हाथ में लेना चाहिए। इसके लिए पुराने तरीके नहीं चलेंगे। इसी समय सरदार वल्लभभाई पटेल ने एक व्याख्यान में कहा कि जब गांधी जी की बात लोगों ने नहीं मानी तो हमारी कौन मानेगा। अब भारत आजाद हुआ तो ऐसे उद्योग विकसित करने होंगे जिनमें ‘वार पोटेंशियल’ हो। ‘वार पोटेंशियल’ शब्द पर विनोबा जी का चिंतन चला। उन्हें लगाकि ‘ वार पोटेंशियल’ की जितनी आवश्यकता है उससे ज्यादा पीस पोटेंशियल की आवश्यकता है। इस बीच हैदराबाद के निकट शिवरामपल्ली में 7-14, अप्रैल,1951 को सर्वोदय सम्मेलन होने वाला था, जिसका निमंत्रण विनोबा जी को मिला। विनोबा जी ने वहां पैदल जाना तय किया। उस समय तेलंगना में कम्युनिस्टों का आंदोलन चल रहा था। विनोबा जी को लगा कि भले ही उनका तरीका गलत है मगर उनके जीवन में कुछ विचार का उदय हुआ है, जहां विचार का उदय होता है, वहां सिर्फ पुलिस से प्रतिकार नहीं हो सकता। विनोबा जी ने वहां पैदल घूमने का निश्चय किया। यात्रा के तीसरे दिन 18 अप्रैल , 1951 को पोचमपल्ली गांव में 40 हरिजन परिवारों ने 80 एकड़ भूमि की मांग रखी। विनोबा जी ने सोचा उनकी अर्जी हम सरकार को देंगे। तभी एक व्यक्ति (रामचन्द्र रेड्डी) ने 100 एकड़ जमीन देने की पेशकश की । थोड़ी देर के लिए तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। उस दिन विनोबा जी रात भर सोचते रहे । इसे उन्होंने ईश्वर का संकेत माना। इस प्रकार भूदान यज्ञ की शुरुआत हुई। इस घटना के बारे में विनोबा जी कहते हैं उन्हें अहिंसा का साक्षात्कार हुआ। पंडित नेहरू ने उन्हें पत्र लिखा। उन्हें यह विश्वास हो गया कि सारे मसले अहिंसा से हल हो सकती । प्रेम और करुणा की जो भूदान गंगा पोचमपल्ली में स्फुटित हुई वह पूरे देश में फैल गई। शुरू के 1 वर्ष में विनोबा जी अकेले घूमे और 1लाख एकड़ भूमि प्राप्त की। सन् 1952 में सेवापुरी , वाराणसी, उत्तर प्रदेश में सर्वोदय सम्मेलन हुआ। वहां सर्व सेवा संघ ने 2 साल में 25 लाख एकड़ भूमि प्राप्त करने का लक्ष्य तय किया। वहां बिहार से जो लोग आए थे उन्होंने बाबा विनोबा से बिहार आने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि बिहार में चार लाख एकड़ जमीन मिलेगी तो मैं वहां आऊंगा। लक्ष्मी बाबू ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और विनोबा जी बिहार की ओर निकल पड़े । बाद में उन्होंने बिहार में 32 लाख एकड़ जमीन प्राप्त करने का लक्ष्य रखा। विनोबा जी 14 सितम्बर, 1952 से 31 दिसंबर, 1954 तक बिहार में रहे । उन्हें कुल 23 लाख एकड़ जमीन भूदान में प्राप्त हुआ ।
बिहार से विनोबा जी बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल , कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब, जम्मू और कश्मीर, असम आदि सभी राज्यों में 13 वर्षों तक अनवरत पदयात्रा करके भूमिहीनों के लिए 45 लाख एकड़ जमीन प्राप्त किया। जो इस देश की क्या पूरे विश्व के लिए एक अभूतपूर्व घटना थी। इस बीच एक बिल्कुल अप्रत्याशित घटना घटी, जिसका उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। चंबल के बागी मान सिंह के बेटे तहसीलदार सिंह ने विनोबा जी को पत्र लिखा कि फांसी से पहले आपका दर्शन चाहते हैं। विनोबा जी ने जनरल यदुनाथ सिंह, जो उसी क्षेत्र के थे, को उनके पास भेजा । तहसीलदार सिंह ने इच्छा जाहिर की कि बाबा इस क्षेत्र में घूमे और हमारे बागी (चंबल के डाकूओं को बागी कहा जाता है) भाइयों से मिले। उनके कहने पर विनोबा जी भिंड मुरैना गए और बागियों से बात की । जिसके फलस्वरूप 19 मई, 1960 को कनेरा गांव (भिंड – मुरैना) में 20 बागियों ने आत्मसमर्पण किया। यह अपने आप में अभूतपूर्व घटना थी जिसकी कल्पना विनोबा जी ने भी नहीं की थी। जिस देश में 1 इंच जमीन के लिए महाभारत युद्ध हुआ, उस देश में प्रेम के आधार पर 45 लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों के लिए प्राप्त करना अहिंसा की प्रचंड शक्ति का उदय का प्रतीक था । इस प्रचंड अहिंसा की शक्ति ने देश में अहिंसक क्रांति की संभावना पैदा कर दी थी । लेकिन बाद के दिनों में विनोबा जैसे तेजस्वी और निर्मल चित्त वाले व्यक्तित्व के अभाव में यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। विनोबा जी की कठोर साधना और 30- 35 वर्षों का चिंतन और इश्वर पर अखंड विश्वास के कारण जो विराट व्यक्तित्व का उदय हुआ, उसका सुखद परिणाम भूदान गंगा के रूप में प्रकट हुआ ।
भूदान , ग्रामदान , संपत्ति दान आदि चलते-चलते अंत में जीवनदान निकला । बोधगया सर्वोदय सम्मेलन में जयप्रकाश नारायण ने जीवनदान दिया था। बाबा को उम्मीद थी कि भूदान यज्ञ मुलक, ग्राम उद्योग प्रधान अहिंसक क्रांति बिहार से होगी। 13- 14 वर्षों की पदयात्रा में बाबा ने न केवल भूमिहीनों के लिए 45 लाख एकड़ जमीन प्राप्त किया, बल्कि देश के सामने अनेक नए विचार और कार्यक्रम रखें। इसमें भूदान यज्ञ, ग्रामदान यज्ञ, राज्य दान, संपत्ति दान, जीवनदान, सम्मति दान, शांति सेना, आचार्यकुल, सर्वोदय पात्र आदि। ‘सर्वोदय पात्र’ के विचार को वे ऋषि तुल्य विचार मानते थे। पूरी यात्रा के दौरान तीन बार ऐसा हुआ जब बाबा ने महसूस किया कि उन्हें अहिंसा का साक्षात्कार हुआ। पहली बार पोचमपल्ली, तेलंगाना में । दूसरी बार बिहार में और तीसरी बार भिंड – मुरैना में बीस बागियों के आत्मसमर्पण के समय। यह भी एक सुखद संजोग है कि महात्मा गांधी को भी 18 अप्रैल 1917 को मोतिहारी कोर्ट में ईश्वर के दर्शन का अनुभव हुआ था और विनोबा को भी 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली में साक्षात्कार का अनुभव हुआ। और उन्हें बिहार भी में इसी तरह का अनुभव हुआ।
विनोबा जी ने छ: आश्रमों की स्थापना की। पहला समन्वय आश्रम की स्थापना 18 अप्रैल, 1954 को बोधगया, बिहार में हुई। दूसरा ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना 25 मार्च , 1959 को पवनार, वर्धा महाराष्ट्र में किया गया। प्रस्थान आश्रम की स्थापना अक्टूबर 1959 में पठानकोट , पंजाब में हुई। विसर्जन आश्रम की स्थापना 15 अगस्त, 1960 को इंदौर, म.प्र. में की गई । 5 मार्च, 1962 को मैत्री आश्रम असम में स्थापित हुई। बल्लभ स्वामी के संस्मरण में बल्लभ निकेतन की स्थापना 1965 में हुई। दरअसल 1959 में बेंगलुरु से 7 किलोमीटर दूर विश्व निडम की स्थापना की गई और उसका भार बल्लभस्वामी को सौंपा गया था । उसीका बाद में बल्लभ निकेतन के रूप में रुपांतरण कर दिया गया।
7 जून, 1916 को विनोबा जी महात्मा गांधी जी के संपर्क में आए और तब से पूरे पचास साल उन्होंने सेवा कार्य किया । सेवा कार्य के 50 साल पूरे होने के उपरांत उन्हें उन्होंने 7 जून, 1966 को सूक्ष्म में प्रवेश किया। बिहार दान जैसे महत्वपूर्ण कार्य को छोड़कर बाकी अन्य कार्यों से अपने को अलग किया । 2 नवंबर, 1969 को वर्धा आ गए। सेवाग्राम और शांति कुटीर, गोपुरी के बाद 7 जून, 1970 को ब्रह्मविद्या मंदिर आ गए। 7 अक्टूबर, 1970 को क्षेत्र सन्यास लिया। शेष जीवन बाबा का सूक्ष्म से सूक्ष्मत्तम प्रवेश के गहन आध्यात्मिक प्रयोगों में बीता । 15 नवंबर, 1982 को सुबह 9:30 बजे महाप्रयाण। इस तरह प्रेम और करुणा से ओतप्रोत एक दिव्य जीवन सदा के लिए इस लोक को छोड़ कर उस पथ पर आरुढ हो गया जिसकी साधना उन्होंने जीवन पर्यन्त किया।
विनोबा जी की विज्ञान की भक्ति अप्रतिम थी। उनकी दृष्टि में विज्ञान एक महान शक्ति है , जो अपने आप में न नैतिक है न अनैतिक है। विज्ञान का सही मार्गदर्शन आध्यात्मिकता का काम है। उन्होंने विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की बात की । उन्होंने इसके लिए एक सूत्र दिया। विज्ञान और राजनीति का मेल सर्वनाश है। विज्ञान और अध्यात्म का मेल सर्वोदय है। विनोबा जी ने गांधी के सर्वोदय विचार को विस्तार दिया, उसमें अर्थ और आशय भरा और उसे समृद्ध किया। अपने साधना, चिंतन और प्रयोगों के माध्यम से उसे साकार किया।
विनोबा जी के विलक्षण व्यक्तित्व में गहन ज्ञान, उत्कट भक्ति और अविरल कर्मयोग का अद्भुत समन्वय था । उनके द्वारा सर्वधर्म समभाव के लिए किया गया कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका धार्मिक ग्रंथ वेद, उपनिषद , गीता , कुरान, बाइबल आदि का अध्ययन अप्रतिम है । उनका हृदय प्रेम और करुणा से भरा था। विनोबा जी प्राचीन ऋषियों की पंक्ति के अमूल्य रत्न हैं। वे पूरे विश्व में करुणा का सम्राज्य चाहते थे । उन्होंने जय जगत का नारा दिया, जिसका उद्घघोष आज पूरे विश्व में हो रहा है। उनका चिंतन, विचार और कार्य असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत है और वह अपने आलोक से पूरी मानव जाति को प्रकाशित करता रहेगा।
-अशोक भारत
मो. 8709022550

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