MAITHILI पूर्वी भाषाओं की सांस्कृतिक एकता में मैथिली की भूमिका

युवा प्राध्यापक एवं कवि डॉ. अरुणाभ सौरभ ने 27 जुलाई, 2020, सोमवार को अपराह्न 4:00 से 5:00 बजे तक बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के फेसबुक पेज Facebook.com/bnmusamvad पर एक व्याख्यान दिया। इसका विषय था- पूर्वी भाषाओं की सांस्कृतिक एकता में मैथिली की भूमिका।

यहां हम आप सबों के लिए इस शीर्षक से लिखित उनका एक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं-

पूर्वी भाषा अर्थात भारत के पूर्वी क्षेत्र की भाषा। इस बहुभाषिक बहुसांस्कृतिक देश भारत में पूरब का एक खास महत्व है । भारतीय सभ्यता को पूर्वी सभ्यता कहा जाता है। ‘पूर्व’ से बना ‘पौर्वात्य’ शब्द पाश्चात्य के विलोम के रूप में उपयोग होता है । पूर्वी भाषाओं में कई छोटी-बड़ी भाषाएं आएंगी पर मुख्यतया हम बांग्ला, असमिया, उड़िया ,नेपाली और मैथिली को केंद्र में रखकर उसके आंतरिक भाषाई सूत्र की पड़ताल कर एकात्मता का प्रयास करेंगे । पूरब की ओर चलना एक सकारात्मक संकेत है।  पूरब में ही प्राचीन ज्ञान-विज्ञान और दर्शन विकसित हुए हैं वहीं पूर्वी भारत सभ्यताओं की लीला भूमि है। चुकि भारतीय संस्कृति में पूरब का विशेष महत्व रेखांकित किया गया है । मैथिली भाषा को एकात्मता के सूत्ररूप में विभिन्न पूर्वी भाषाओं से निकटता के आधार पर हम प्रवेश द्वार के रूप में उपयोग कर सकते हैं । मैथिली भाषा के लिए मेरा कोई अतिरिक्त आग्रह नहीं है अपितु भाषाई सांस्कृतिक एकता के लिए पूर्वी भाषाओं की एकात्मता के रूप में उपयोग करने की आवश्यकता पर संदर्भ के साथ मूल्यांकन करने और उसके शैक्षिक महत्व पर प्रकाश डालने का काम जरूरी है।  मैथिली भाषा हिंदी और बंगला के निकट है इसे भाषाविदों ने बंगला का प्रारंभिक स्वरूप भी स्वीकार किया है। उड़िया, नेपाली तक से मैथिली की खास निकटता है। इसी आधार पर मैथिली को पूर्वी भाषाओं का प्रवेश द्वार मानकर हम पूर्वी क्षेत्र की भाषाओं में आसानी प्रवेश कर सकते हैं।

जटिलता से सरलता एवं संश्लिष्टता से विश्लिष्टता की ओर विकसित होने की नवीन भारतीय भाषा की जो सामान्य प्रवृत्ति है वह मैथिली में भी है। मैथिली की धातु रूपावली में अद्भुत संश्लेष्णात्मक जटिलता की स्थिति इसे किसी प्राचीन भाषा से विलक्षण और पृथक बनाती है।  एक मैथिली भाषा सीखकर आप बांग्ला,असमिया,उड़िया नेपाली आदि पूर्वी भाषाओं को आसानी से समझ सकते हैं। इन पूर्वी भाषाओं में मैथिली भाषा हिंदी के सर्वाधिक निकट है। हिंदी के लोगों को मैथिली सीखने में आसानी होगी। मैथिली सीखने के साथ ही आप पूरब और पूर्वोत्तर की भाषा में प्रवेश कर सकते हैं। कोई भी भाषा किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं होती, भाषा अर्जित संपत्ति होती है । मैथिली में शिक्षण की मेरी व्यक्तिगत मंशा इतनी है कि रवीन्द्रबाबू,शरद बाबू और बंकिमचंद्र से लेकर श्रीमंत शंकरदेव, माधव देव तक पहुंचने का आसान रास्ता वाया विद्यापति है।
मैथिली,बांग्ला,असमिया,उड़िया और नेपाली की भाषिक संरचना एक जैसी है। अगर विद्यापति के पाठ को आधार बनाएंगे तो शंकरदेव के असमिया  पद हों या बंकिमचंद्र, रवींद्र तक राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान तक पर उनके प्रभाव को समझ पाएंगे ।
जैसे कनक भूधर शिखरवासिनी – (विद्यापति)
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनी-  (बंकिमचंद्र)
पूर्वी भाषाओं की समता के कारण शब्द साम्यता, संस्कृत शब्दों का प्रयोग मैथिली में मिलता है। मैथिली आदिकालीन काव्य भाषा है।  बांग्ला,असमिया, उड़िया और नेपाली को कुछ विद्वान इसका स्वाभाविक विकास मानते हैं। मैथिली में रचित वैष्णव पदावली कालांतर में ब्रजबुली या ब्रजबोली के रूप में प्रचलित हुआ।  ब्रजबोली मूलतः वैष्णव पदावली है।
बंगला साहित्य के आचार्य डॉ सुकुमार सेन इस संदर्भ में लिखते हैं- ”ब्रजबुली मूलतः मैथिली भाषा से उत्पन्न होकर भी बंगाली कवियों द्वारा बंगला भाषा एवं बंगला साहित्य के रस संचार से पुष्ट एवं परिवर्द्धित हुई है ।” 1

मैथिली और बांग्ला का अंतः संबंध
(पदों के आधार पर)
भावसाम्य/ छंद साम्य

”कनक भूधर शिखर-वासिनी
चंद्रिका-चय -चारू -हासनी
दसन-कोटि-विकास-बंकिम
तुलित-चंद्रकले
क्रुद्ध-सुररिपु-बलनिपातिनी
महिष- शुंभ -निशुंभ घातिनी
भीत-भक्त-भयापनोदन-
पाटला-प्रबले”

राष्ट्रगीत पर प्रभाव  संबंध
बंकिम चंद्र चटर्जी लिखते हैं

”शुभ ज्योत्सना पुलकित यामिनीं
फुल्ल कुसुमित द्रुम दल शोभिनीं
सुहासिनी सुमधुर भाषनीं
सुखदां वरदां  मातरम

सप्त-कोटि-कंठ-कल-कल –
निनाद कराले
द्विसप्त-कोटि-भुजैर्धृत-
खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणी
नमामि तारिणी
रिपुदल वारिणी
मातरम॥

राष्ट्रगान से लेकर राष्ट्रगीत की पृष्ठभूमि में जो भाषा है, उसी का नाम है- मैथिली । उसी मैथिली के प्रभाव में निर्मित छंद जन गण मन से लेकर वंदे मातरम तक जाकर अपना विकास करता है। ध्यान रहे कि यहाँ सिर्फ छंदों  कि साम्यता नहीं है, सिर्फ़ तत्समनिष्ठ शब्दों को आधार लेकर व्याकरण सम्मत साम्यता नहीं है, यहाँ उस भाषा की भाषिक परंपरा का विकास है जिसका आधार विद्यापति की मैथिली है । इस संदर्भ में त्रिलोक्य नाथ भट्टाचार्य का यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है-
” विद्यापति और चंडीदास की अतुलनीय प्रतिभा से समस्त बंग साहित्य उज्जवल और सजीव हुआ है।  वैष्णव गोविंद दास और ज्ञानदास से लेकर हिंदू बंकिमचंद्र और ब्रह्म रवींद्रनाथ ठाकुर तक सभी उन लोगों की आभा से आलोकित हैं और उन लोगों का अनुकरण करके कविता रचना में व्यस्त पाए जाते हैं ।”2
बांग्ला साहित्य के प्रायः सभी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि विद्यापति और चंडीदास वैष्णव साहित्य के आदि गुरु थे।  श्रीकुमार बंद्योपाध्याय (बंगला साहित्येर कथा पृष्ठ संख्या-9) विद्यापति ओ चंडीदास वैष्णव पदावली साहित्येर आदिम उत्स, डॉ. जे.सी. घोष (बंगाली लिटरेचर), सुनीति कुमार चटर्जी (ओ एंड डे ऑफ बंगाली लिटरेचर भाग 1 पृष्ठ 103 ), दिनेश चंद्र सेन (बंगाली लैंग्वेज एंड लिटरेचर पृ.-53), सुकुमार सेन (हिस्ट्री ऑफ ब्रजबोली लिटरेचर)  आदि कई बंगला के आचार्यों के उद्धरण से इस बात की पुष्टि होती है ।
बंगाल और मिथिला में भौगोलिक समीपता  ही नहीं,अपितु सांस्कृतिक समता भी है । ”बंगाल और मिथिला में भौगोलिक समीपता तो है ही  साथ ही दोनों प्रांतों के तदयुगीन सारस्वत समाज में साहचर्य था। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से मैथिली खड़ी बोली की अपेक्षा बंगला के अधिक निकट है।”3

जयदेव विद्यापति और चंडीदास ने एक समान भाव भूमि की काव्य रचनाएं प्रस्तुत की हैं।
जयदेव- ”स्तविनिहितमपि हार मुदारम ।
सा मुनते कृशतनुरतिमारम ।
सर्ग-4,पृ.-42
विद्यापति- ”निंदय चंदन परिहरि भूसन
चाँद मानए जनि आगी ।”4

चंडीदास- ”तनेर उपर हारे। आन मानए जेहन  तारे ।
अति हृदये खिनि राधा  चलिते ना पारे ।
राधा विरह, पृ.-149
बाबू नागेंद्र नाथ गुप्त का बंगला का यह कथन एकदम उपयुक्त है-
”विद्यापतिर जे रूप अनुकरण हइआछिल , बोध हय कोन देशे कोन कविर तद्रूप हय नाई ……”5
ब्रजभाषा, वैष्णव साहित्य, ब्रजबोली की जड़ में वही मैथिली है जिसका प्रत्यक्ष संबंध विद्यापति से है। यानी कालांतर में जिस साहित्यिक ब्रजभाषा का निर्माण हुआ उसकी जड़ में वैष्णव पदावली है जो ब्रजबोली है जिसका विकास मैथिली से ही होता है ।  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -”जयदेव,चंडीदास और विद्यापति की पदावली के बिना परवर्ती ब्रजभाषा के पद साहित्य का अध्ययन पूर्णांक नहीं हो सकता।”6  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन जयदेव,चंडीदास और विद्यापति के अध्ययन की अनिवार्यता पर बल देता है और सपष्ट करता है इनके अध्ययन के बिना ब्रजभाषा का अध्ययन क्रमांक पूर्ण नहीं हो सकता। विद्यापति की उपमा योजना कालिदास के समान है।  बंगला के महत्वपूर्ण विद्वान डॉ दिनेश चंद्र सेन का यह कथन इस संदर्भ में देखा जा सकता है –
”तहार उपमा गुलि एतो सूंदर ।….एइ रूप उपमा गूलिर संख्या नाई । उपमा भिन्न कथा नाई ।   ….विद्यापति सेई रूप एई पृथ्वीर अति सचराचर दृश्य हइते उत्कृष्ट सौंदर्य आविष्कार करिया छेन। उपमार यशे भारतवर्षे मात्र कालीदासेर ई एकाधिपत्य । यदि द्वितीय एक जन किछु भाग दितै आपत्ति ना थाके तबे बोध हय विद्यापतिर नाम करा असंगत हइबे ना।” 7
बांग्ला भाषा और साहित्य पर विद्यापति का जो अमित और अमित प्रभाव पड़ा उसी का यह परिणाम है कि बंगाली समाज में जातीय कवि के रूप में सम्मानित हैं। विद्यापति बंगला साहित्य के साथ एकाकार हो गए हैं।  बंगाल के वैष्णव साहित्य की श्रीवृद्धि में उनका सहयोग अनुपम है। ‘भक्ति रत्नाकर’ कर्त्ता नरहरि चक्रवर्ती ने इसे ही लक्ष्य कर लिखा है- ब्रजेर मधुर लीला –या सुनी दरबे शिला गाइलेन कवि विद्यापति।”8
”ब्रजबुली विद्यापति की मैथिली का अपभ्रंश मात्र है तथा तत्परवर्ती कवियों की कल्पना की सृष्टि है।”9
दिनेश चंद्र सेन भी विद्यापति के पद का प्रभाव बांग्ला साहित्य पर स्पष्ट रेखांकित करते हैं-” वैष्णव पद कर्ताओं को विद्यापति के पद से निरंतर प्रेरणा मिली तथा उन सबों ने उनके भाव-शिल्प का अनुसरण किया इस तथ्य को बंगला साहित्य के इतिहासकार ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है।”10
अंततः यही कहा जा सकता है कि-”ब्रजबोली के उद्भव विषयक उपर्युक्त विवरण से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह बंग्लादि भाषाओं के साथ मैथिली का क्षेत्रीय समीकरण है। इसे जो मैथिली का प्रादेशिक प्रयोग कहा गया है उसके पीछे यही धारणा थी। यहां मैथिली ना कह कर विद्यापति की पदावली की भाषा कहेंगे।”11

असमिया और मैथिली
मैथिली भाषा को सीखने के उपरांत असमिया भाषा भी अपनी लगने लगी लगेगी।असमिया और मैथिली में भी उतनी ही समता है जितनी बंगला और मैथिली में।  श्रीमंत शंकरदेव जो असमिया के वैष्णव परंपरा के महत्वपूर्ण कवि हैं उन्होंने स्वयं कई ऐसे पदों की रचना की है जिनकी भाषा के अध्ययनोपरांत वह भाषा असमिया है या मैथिली यह कहना मुश्किल है। उसी प्रकार माधवदेव आदि कवियों ने भी कई पद इसी प्रकार लिखे हैं, उदाहरण के लिए
”श्याम तनु पीत अंबर लासा
वदन छंद रुचि ईषत हासा ।
नयन पंकज भुज लंबी जानु ,
कंठे कौस्तुभ नव शोभित भानु’।
हार मुकुट मणि कुंडल दोले,
चरण पंकज मनि मंजीर बोले
शशधर कोटि कांति परकाशा
शंकर कह उहि  केशवदासा।”12
-शंकरदेव ।
इसी प्रकार माधवदेव का भी पद है-
”ब्रज मंडल रस रासे रसिक गुरु करत अनंग रस केलि
राधा परत मन साधु अधर मधु पाने मोहित मति भेलि ।”13
असमिया से मैथिली की समीपता के पीछे भी कारण स्पष्ट है। ब्रजबोली जिसमें असमिया भाषा की वैष्णव पदावली निर्मित होती है।  असम का ब्रजबोली साहित्य आसामिया भाषा का आधार है। असम के साहित्य का प्राण तत्व इसमें बसता है। ”असमिया ब्रजबोली साहित्य के दो रूप भेद हैं- वरगीत और अंकीयानाट !अंकीयानाट में गद्य पद्य का सम विभाग है। असाम का ब्रजबोली गद्य उसकी खास विशेषता है। इस प्रकार बंगाल एवं उड़ीसा के ब्रजबोली साहित्य से इसका विशेष अंतर है। उन दोनों स्थानों का साहित्य जहां गीतो तक सीमित रहा वहां असाम में नाटकों की रचना हुई और उसमें गीतों के साथ ही गद्य  का भी प्रयोग हुआ।”14
बी.के. बरुआ असमिया साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान हैं । उन्होंने लिखा है कि-”मैथिली के साथ शंकरदेव के इस प्रत्यक्ष संपर्क का श्रेय कामता  (कूच बिहार) की राजसभा को है। उस समय (1540 ई.) में मल्लदेव कामता के अधिपति थे। मल्लदेव की उपाधि ‘नरनारायण’ थी । नरनारायण कला और संस्कृति के महान पृष्ठपोषक थे । उनका दरबार विभिन्न भाषाओं एवं देशों के विद्वानों एवं कवियों से भरा रहता था ।”15
असमिया और मैथिली की समानता के कारण ऐतिहासिक हैं । कामरुप एवं विदेह  का परंपरागत संबंध इतिहास से है। शंकरदेव ने जिस परंपरा को आगे बढ़ाया,वह विद्यापति की परंपरा ही है ।

उड़िया और मैथिली

उड़िया और मैथिली में भाषिक समता अत्यधिक  है। इतनी भाषिक समता कि एकात्मता के लिए तमाम क्षेत्रीय बाधाएं दूर हो जाती हैं।

” न खोजलौ दोति न खोजलौ आन, दुहुंक मिलाने मध्यत पाँच-वाण
अवसो विरागे तुहु भेलि दोति, सुपुरुष पेमाक एच्छन रीति ।
वर्धन रुद्रनराधिप मान, रमानन्द राय मनि कवि मान।”

(उड़ीसा के सुप्रसिद्ध कवि रमानन्द राय द्वारा)
उड़ीसा के राजा प्रतापरूद्रदेव के समय यानी (1504-1532 ) उड़िया की भाषिक परंपरा में उसी ब्रजबोली  का योगदान है। ब्रजबुलि के विशेषज्ञ शैलेंद्र मोहन झा ने लिखा है- “उत्कल प्रदेश के वैष्णव साहित्य का काफी अंश ब्रजबोली से है। यह ब्रजबोली बंगाल की ब्रजबोली की ही भांति विद्यापति के अनुकरण की परिणति है । अनुकरण क्रम में उड़ीसा  के प्रभाव से इसके स्वतंत्र स्वरूप का विकास होता है। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि उड़ीसा में ब्रजबोली का प्रचार महाप्रभु चैतन्य एवं बंगाल के प्रभाव से हुआ। परंतु इस धारणा का निराकरण सहज ही हो जाता है।  उपलब्ध साधनों से यह सिद्ध होता है कि महाप्रभु के उड़ीसा आने के पहले ही यहां मैथिली प्रभावापन्न पदों की रचना की जाने लगी थी।”16
ब्रजबोली का जो स्वरूप उडिया में विकसित हुआ उसके आदिकर्त्ता  वैद्यनाथ या बैजलदेव हैं । विद्यापति के पदों में जिस प्रकार भणिता है उससे भी एकात्मता देखी जा सकती है ।
— भनई विद्यापति अभिनव देवा ।
चंदल देवि-पति बैजल देवा   ।

— भनई विद्यापति पुनपुन सेवा
चंदल देवी पति बैद्यनाथ देवा ।

मैथिली से अन्य भाषाओं में प्रवेश व्याकरणिक आधार पर

क्रियापद के आधार पर

‘थ’- मैथिली (थिक), बंगला (थाके), हिन्दी (था), नेपाली (थ्यो )’

‘ह’-   (हएत/हएब) ,  (हलो/हबे) ,   है/हुआ , हो ‘

‘छ’-  छल/छलनि  , छिलो अ

अछि-अहि, छैक = हइ, छौक-होउ हो = हो अए / होअहो/ होअए / होथु/ होअथु / होअथि / होथि  इत्यादि भी मैथिली में स्वीकृत हैं ।

कारक चिन्ह के आधार पर समता

कर्ता कर्म करण संप्रदान अपादान संबंध अधिकरण
ओडिया           0,ए कु           रे कु      रु/ठारु र रे
मैथिली             0,ए कें        एँ कें        सं क’ मे
असमिया           लै क’         एँ/ए/सं र        त रपरा

ओड़िया-    तु आ तुमे जाअ      आपण जाअ
मैथिली-      तूँ आ , तों जाह         अपने जाउ

भूत और भविष्यत काल में
ओड़िया –   तु गलु , जिबु      तुमे गल, जिब आपण गले
मैथिली-      तूँ गेलें , जएबें     तों गेलह, जएबह अपने गेलहुं / जाएब

सार्वनामिक
मैथिली –  मोरा/ हमर
बांग्ला –   मोय/ आमार
आसामिया-मो/ मोय

संबंध कारकीय सर्वनाम
मैथिली-मोरा/मोर                     बांग्ला- मोर/आमार
तोहर/तोरा/तोर                   तोर

संस्कृत- अस्ति= मैथिली-अछि/छै, ओड़िया-अछु, बंगला-आछे, असमिया-आसे,
हिन्दी- है

सभी पूर्वी भाषाओं की तरह मैथिली में भी ‘अछ’ से उद्भूत सहायक क्रिया के अतिरिक्त ‘रह’ के रूप भी प्रयुक्त होते हैं । वर्त्तमान तथा पूर्णता सूचक कालों में इसके रूप मिलते है- ‘रही’ अथवा- ‘रहलहु’ आदि यह सर्वत्र सहायक क्रिया का काम देती है और हिन्दी के ‘था’ का अर्थ देती है। पूरब की सभी भाषाओं की भाँति मैथिली में भी उपर्युक्त क्रियाओं के अतिरिक्त ‘होयब’ या ‘होएब’= होना के कुछ कालों का प्रयोग सहायक क्रिया के रूप में होता है । पूर्वी भाषाओं के समान मैथिली में भी विकारी पूर्णकाल का ‘भेलौं’ आदि का भ’ संस्कृत-‘भू’ को सुरक्षित रखे हुए है । पूर्णता द्योतक कृदंत में ‘भेल’ और यौगिक कृदंत में ”भ’ क’ / भए कए ” इनमें विकारी पूर्णकाल सहायक क्रिया के रूप में प्रयुक्त नहीं होता । मैथिली,बंगला,उड़िया,असमिया और नेपाली में व्याकरण के आधार पर भी इतनी समानता है कि किसी अनजान व्यक्ति को निर्णय करना कठिन हो जाता है कि इनमें अंतर क्या है ? अथवा इन भाषाओं की लिपियों में जो अंतर है और बोलने के तरीके में जो क्षेत्रीय प्रभाव है उतना ही अंतर इन भाषाओं में है । मैथिली भाषा की अपनी लिपि है जिसे ‘तिरहुता’ या ‘मिथिलाक्षर’ कहा जाता है, पर मैथिली के प्रयोगकर्त्ताओं ने ‘चलन के आधार पर ‘देवनागरी’ को ही प्रमुखता दी है । ‘तिरहुता’ या ‘मिथिलाक्षर’ की समीपता बंगला और असमिया से बहुत ज्यादा है, देखने में सिर्फ़ ‘र’ और ‘व’ का अंतर है । आज मैथिली सिर्फ़ देवनागरी में लिखी जाती है। व्याकरण के नियम भी इन पूर्वी भाषाओं के लगभग एक जैसे हैं ।  वाक्य विन्यास भी इन भाषाओं का लगभग समान है । क्रिया पद मैथिली का थोड़ा जटिल अवश्य है, चुकि मैथिली एक लोकभाषा है । इसीलिए एक मैथिली को सीखकर सभी पूर्वी भाषाओं में प्रवेश का मार्ग आसान हो जाता है ।
मैथिली के पास विद्यापति जैसा कवि है जो भारतीय भाषाओं में भूगोल की सीमा का सर्वाधिक अतिक्रमण करते हैं । भारतीय लोक परंपरा का सबसे विस्तृत और विश्वसनीय स्वर विद्यापति का स्वर है। यही कारण है कि पूर्वी भाषाओं में इन की आवाजाही सर्वाधिक है। समूचे भारत की भू परिक्रमा करने की विराट चेष्टा इन्हीं में है। अपनी रचनाओं से भक्ति, श्रृंगार,नीति, राजधर्म, शिक्षा, समाज और संपूर्ण सांस्कृतिक चेतना का ताना-बाना बुनते हुए विद्यापति आपको दिख जाएंगे।  विद्यापति होने का सीधा अर्थ है वाक और अर्थ का समन्वय; धर्म और मनुष्यता का समन्वय, अध्यात्म और मूल्यों का समन्वय, साथ ही विराट पंथनिरपेक्ष अवधारणा और उपासना पद्धति का समन्वय । लोक और शास्त्र दोनों परंपराएं इनके यहां खूब फली-फूलीं । इसीलिए विद्यापति के गीत जिस तरह मिथिला के समस्त लोक संस्कारों में प्रचलित हैं, उसी तरह शास्त्रीय गायकों के मधुर कंठों में भी । पदावली के गीत आंगन से रसोई ,पूजाघर और चौपाल से लेकर खेत खलिहान तक और महफिलों में शामिल हैं।  वहां के सभी वर्गों,जातियों के बीच उनके गीत उतने ही लोकप्रिय हैं। बंगाल,उड़ीसा,नेपाल,असम,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश और समूचे बिहार से लेकर उत्तरी और पूर्वी भारत में भी इनके गीतों से सभी संस्कार जुड़े हैं। खेत खलिहान से लेकर देहरी द्वार और चौराहे-चौपाल-मचान तक और कीर्तन में विद्यापति आज भी गाए जाते हैं। ऐसे कवि विरल हैं जो गांव से लेकर अभिजात्य जन तक के बीच बराबर लोकप्रिय हों ।
विद्यापति मैथिली कविताएं भाषाओं का प्रवेश द्वार है। अगर एक  विद्यापति को पढ़ लिया जाए तो एक साथ मैथिली,नेपाली,भोजपुरी,संताली,ओड़िया, बांग्ला और असमिया  भाषा समझ सकने में आसानी होगी । विद्यापति भारतीय भाषाओं का इंद्रधनुष रचते हैं।भाषाई इंद्रधनुष के  कवि विद्यापति हैं , या यूं कहें कि भाषिक इन्द्रधनुष के संस्थापक कवि हैं-विद्यापति! पूर्वी भाषाओं की एकात्मता के केंद्र में मैथिली है। मैथिली पर कोई बात करने से पूर्व विद्यापति पर बात करना तर्कसंगत है।  जो विद्यापति मिथिला समाज की जड़ों में गहराई से जमे हैं। बंगला,नेपाली,असमिया,उड़िया समाज से भी उनका जुड़ाव उसी रूप में है। यही कारण है कि विद्यापति को लेकर अलगाव नहीं एकात्मता आवश्यक है। विद्यापति पर अधिकार को लेकर बंगाल और मिथिला के लोगों में पर्याप्त रार हुई है ।  जनभाषा और लोकभाषा की सांस्कृतिक गरिमा स्थापित करने वाले सर्वथा अनूठे सर्जक के रूप में विद्यापति प्रस्तुत होते हैं । हमारे लिए विद्यापति राष्ट्रीय कवि हैं, जिनका क्षेत्र सर्वाधिक भाषाओं का अतिक्रमण करके निर्मित होता है । विद्यापति की कविता की भाषा का क्षेत्र ही पूर्वी भाषा का क्षेत्र है।  विद्यापति की परंपरा जिसका परिणाम भक्ति आंदोलन में दिखलाई पड़ता है, इस कवि की परंपरा का विस्तार तुलसी ,सूर, कबीर ,मीरा ,रसखान रैदास,जायसी, रहीम केशवदास और वृंद के रूप में आगे दिखलाई पड़ता है।
डॉ नामवर सिंह लिखते हैं –
”…… मैथिली का उदय इतना पहले इसलिए संभव हो सका कि मिथिला शासन की स्वतंत्र इकाई के रूप में एक ही राजवंश के अंतर्गत कई शताब्दियों तक स्थापित रहा । ज्योतिरीश्वर और विद्यापति उसी राजयकाल कि उपज हैं । सांस्कृतिक इकाई के रूप में इस जाति का संगठन दीर्घ परंपरा से होता आया है। भौगोलिक और राजनीतिक दोनों दृष्टियों से उन दिनों मिथिला मध्यदेश से अलग और स्वतंत्र था ।” 17

मैथिली में शिक्षण

भाषाई बहुभाषिकता जो बच्चों की अस्मिता का निर्माण करती है उसके केंद्र में विद्यापति को रखकर भारत के भाषा परिदृश्य पर विचार कर सकते हैं।  एन सी एफ 2005 के पृष्ठ संख्या 41 में लिखा है कि –
”बहुभाषिकता जो बच्चों की अस्मिता का निर्माण करती है और जो भारत के भाषा परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है उसका संसाधन के रूप में उपयोग कक्षा की कार्य नीति का हिस्सा बनाना तथा उससे लक्ष्य के रूप में रखना रचनात्मक भाषा शिक्षक का कार्य है।  यह केवल उपलब्ध संसाधन का बेहतर इस्तेमाल नहीं है बल्कि इसे यह भी सुनिश्चित हो सकता है कि बच्चा स्वीकार्य और संरक्षित महसूस करे और भाषिक पृष्ठभूमि के आधार पर किसी को पीछे ना छोड़ा जाए।”18 ,
वहीं भारतीय भाषाओं का आधार पत्र फोकस समूह एन सी एफ-2005 में इस बात को लेकर स्पष्ट रुप से लिखा गया है-
” मातृभाषा में शिक्षा से कक्षा में पढ़ाई को समृद्ध करने में सुविधा होगी, शिक्षार्थियों की अधिकाधिक प्रतिभागिता होगी और बेहतर परिणाम निकलेंगे। इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं। सभी में मातृभाषा में शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जाए ताकि शिक्षार्थी वह माध्यम अपनाने में संकोच ना करें जिसमें वह आसानी से समझ सके।”19
एक भाषा का विकास दूसरी भाषा के विकास में भी सहायक होता है ।
मैथिली में शिक्षण दोनों रूपों में संभव है -पहला मातृभाषा के रूप में मैथिली का शिक्षण, जिसमें संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ बालकों में मातृभाषा का विकास हो सके।  वैसे मातृभाषा में शिक्षा के लिए कोई अलग तकनीक तो होती नहीं अपितु बालकों के बौद्धिक विकास, चिंतन और बोधन का आधार मातृभाषा बन सकती है। और हमारी बहुभाषिक अवधारणा में मदद मिल सकती है। मातृभाषा के रूप में मैथिली का शिक्षण आवश्यक है ताकि इस भाषा भाषी बच्चों  को अपनी भाषा को लेकर कोई हीनताबोध ना हों और उसे समझने में आसानी हों ।

दूसरा माध्यम भाषा के रूप में मैथिली
मातृभाषा हिन्दी शिक्षण पृष्ठ संख्या 4 एनसीईआरटी के 1998 के संस्करण में लिखा गया है कि-
” विश्व के सभी शिक्षा शास्त्री तथा भाषा वैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है।  उनकी मान्यता है कि जितनी सरलता और स्वाभाविकता से मातृभाषा के माध्यम से बालक शिक्षा प्राप्त करता है किसी अन्य भाषा माध्यम से नहीं।”20

पूर्वी भाषाओं में एकात्मता हेतु प्रवेश द्वार के रूप में मैथिली विचार-बिनिमय में और अध्यापक प्रशिक्षण की भाषा के रूप में पूरब की भाषाओं में समता के आधार पर मैथिली एकात्मता में एक कड़ी सिद्ध हो सकती है।

सर्जनात्मक संवाद और लोक ज्ञान परंपरा के विकास में सहायता के लिए मैथिली, हिंदी और बांग्ला दोनों से निकटता, उड़िया,असमिया और नेपाली से निकटता के कारण हिंदी भाषियों को सरलता और सुगमता से कई-कई भाषाओं में प्रवेश कराने हेतु मैथिली का शिक्षण आवश्यक है।

माध्यमिक स्तर तक मैथिली की अनिवार्य पढ़ाई मातृभाषा के रूप में और माध्यम भाषा के रूप में कक्षा 1 से 8 तक मैथिली माध्यम से पढ़ाई की व्यवस्था से भाषा विकास में बल मिल सकता है।

बुनियादी शिक्षा के रूप में प्राथमिक स्तर से माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर तक मैथिली की पढ़ाई से न सिर्फ़ इस भाषा का विकास होगा अपितु मैथिली सीख लेने के बाद बच्चों को सभी पूर्वी भाषाएँ आसानी से समझ में आएंगी और एक भाषाई राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा ।

निष्कर्ष
भारतीय भाषाओं पर छाए  घटाटोप और अंधकार काल में भाषाओं की एकात्मता पर विचार आवश्यक है । भाषाओं के बीच आंतरिक सूत्र की पड़ताल आवश्यक है।  भारतीय सभ्यता के पास अपनी भाषाओं की ताकत है जो उसे विशिष्ट बनाती है। भारतीय संस्कृति पूरब की संस्कृति है पूर्वी भाषाओं में प्रवेश करने का द्वार मैथिली है।  मैथिली की भाषिक संरचना पर विचार करके मैथिली के प्रति उदार दृष्टि रखकर पूर्वी भाषाओं की ताकत को समझने में आसानी होगी । जिस प्रकार भाषा का भूगोल होता है उस भूगोल की पड़ताल जरूरी है।  विद्यापति अकारण भारत के सबसे बड़े भूगोल का अतिक्रमण नहीं करते। मैथिली आपको पूरब की ओर ले जाएगी और सूरज पूरब से ही निकलता है भाषाई संस्कृति के विकास को समझना जरूरी है। आज भाषा की जड़ता तोड़कर एकात्मता का सूत्र ग्रहण कर आगे बढ़ने की जरूरत है अन्यथा सारी भाषाओं के साथ हिंदी का भी नुकसान ही होगा । हिंदी का प्रचार-प्रसार छोटी-छोटी भाषाओं को समाप्त कर नहीं संभव है।  हिंदी को देश की संपर्क की सबसे बड़ी भाषा होने का गौरव कोई नहीं छीन सकता,छीन पाना असंभव है। इसलिए हिंदी को सहजता के साथ आगे बढ़ने दीजिए। सभी भाषाओं के बीच हिंदी संवाद का व्यापक माध्यम बन सकती है।

डॉ. अरुणाभ सौरभ का संक्षिप्त परिचय निम्न है-


जन्म : 9 फरवरी,1985, चैनपुर,सहरसा (बिहार)
शिक्षा :
एम. ए, बी.एड, पीएच. डी, नेट (जेआरएफ ), एन. ई. स्लेट

प्रकाशन : हिन्दी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से कविताएं प्रकाशित साथ ही समीक्षाएँ और आलेख भी प्रकाशित। हिंदी के साथ-साथ मातृभाषा मैथिली में भी समान गति से लेखन।

प्रकाशित कृतियाँ :
1. एतबे टा नहि (मैथिली कविता संग्रह 2011), नवारम्भ पटना
2. दिन बनने के क्रम में ( हिन्दी कविता संग्रह, 2014 भारतीय ज्ञानपीठ )
3. लम्बी का वितान (आलोचना पुस्तक) विजया बुक्स दिल्ली, 2017
4. तेँ किछु आर (मैथिली कविता संग्रह 2018)
5. आद्य नायिका (लंबी कविता) 2017
अनुवाद
1. कन्नड़ के वचन साहित्य का अनुवाद
2. जैसे अंधरे में चाँद मैथिली कवि तारानन्द वियोगी की कविताओं का अनुवाद, रू पुस्तिका से 2013)
3. असमिया कवयित्री कविता कर्मकार की रचनाओं का हिंदी अनुवाद
युवा द्वादस 3 में निरंजन श्रोत्रीय के सम्पादन में बोधि प्रकाशन जयपुर से साझा संकलन में कवितायें संकलित 2015
पुरस्कार एवं सम्मान :
भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली का नवलेखन पुरस्कार
साहित्य अकादेमी नई दिली का युवा पुरस्कार
माहेश्वरी सिंह महेश स्मृति ग्रंथ पुरस्कार पटना
देसिल बयना सम्मान, हैदराबाद,
महेश अंजुम स्मृति युवा कविता सम्मान ।

संप्रति : एनसीईआरटी के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं स्वतंत्र लेखन

संपर्क : डॉ. अरुणाभ सौरभ, असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी) क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, एनसीईआरटी,श्यामला हिल्स भोपाल-462002, मध्य प्रदेश