उत्पीड़ितों का स्वतंत्र भाषा-मनोविज्ञान जरूरी

उत्पीड़ित वह है, जो अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहा है। वह ना हारा है, ना जीता है। वह ना सफल है और न असफल है। वह न पक्ष में है और न विपक्ष में है। वह विकल्पहीन है और वह अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है।

यह बात उच्च शिक्षा विभाग, भारत सरकार में निदेशक जयप्रकाश फ़ाकिर ने कही। वे रविवार को बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के फेसबुक पेज पर उत्पीड़ितों का भाषा-मनोविज्ञान विषय पर व्याख्यान दे रहे थे।

उन्होंने कहा कि उत्पीड़ित की अवधारणा व्यापक है। इसके दायरे में हाशिए पर ढ़केला गया पूरा समूह आ जाता है। स्त्री, दलित, आदिवासी, अश्वेत आदि सभी किसी न किसी तेरा उत्पीड़ित हुए हैं।

उन्होंने कहा कि औपनिवेशिक काल में पूरा भारत उत्पीड़न का शिकार रहा है। अंग्रेजों ने भारत की पूरी प्राकृतिक संपदा एवं मानव श्रम का शोषण एवं दोहन किया। एक व्यक्ति का भी शोषण होता है, तो उसे भी उपनिवेश की तरह बना दिया जाता है।

उन्होंने कहा कि उत्पीड़ित का जीवन दूसरों के लिए होता है। वह दूसरे के लिए ही जीता है और दूसरे की सेवा में ही अपना जीवन खपा देता है। उत्पीड़ित के पास उतनी ही आजादी होती है, जितनी उसे उत्पीड़क देता है। उतनी ही आजादी जितनी से उत्पीड़ित की सेवा उत्पीड़क के काम आ सके। उत्पीड़ित को स्वतंत्र क्रियाकलाप की आजादी नहीं होती है।

उन्होंने कहा कि कई लोगों ने यह मान लिया कि उत्पीड़ितों की कोई भाषा नहीं है। वह अहिल्या की तरह पत्थर बन गई है। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उत्पीड़ितों की भी अपनी भाषा है, जो उत्पीड़क से अलग है। यह बात दीगर है कि उत्पीड़कों ने उत्पीड़ितों की भाषा को भी नष्ट किया। जैसे कि अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को हीन समझा और उसे बोली करार दिया‌। अतः हमें अपना मानसिक वि-औपनिवेशिकरण कर अपनी भाषाओं का पुनर्वास करना करना है।

उन्होंने कहा कि प्रारंभ में पीड़ित व्यक्ति भी उत्प्रेरक की नकल करना चाहता है। भारतीयों ने भी अंग्रेजों से सीख कर अंग्रेजों जैसी आजादी की मांग की मांग की थी। पिछड़ी एवं दलित जातियां भी उच्च जाति का सरनेम लगाती हैं।

उन्होंने कहा कि उत्प्रेरक की नकल करने की आकांक्षा में वास्तविक मुक्ति नहीं है। वास्तविक मुक्ति तो तब होगी जब हम मुखौटे से बाहर निकल कर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानेंगे। आत्मबोध के साथ अपना स्व-निर्णय करेंगे। इसके लिए उत्पीड़क द्वारा लादे गए ज्ञान एवं उसकी भाषा को छोड़कर हमें अपनी स्वतंत्र ज्ञान मीमांसा एवं भाषा मनोविज्ञान तैयार करना होगा।

उन्होंने कहा कि भारत आज राजनीतिक रूप से आजाद हो गया है, लेकिन मानसिक रूप से अभी भी गुलाम है। हमारी पूरी मानसिकता पश्चिमीकरण की शिकार है। हमें अपना भी वि-उपनिवेशीकरण करके अपनी परंपराओं को अपनी दृष्टि से समझने की जरूरत है।

संक्षिप्त परिचय
शिक्षा- बी. टेक. (आई. आई. टी.) एम. ए. (IGNOU), अनुवाद में गोल्ड मेडल।
सम्प्रति – भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग में निदेशक।

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बहुजन साहित्य में कविता कहानी आलोचना में सक्रिय। गणित की दो और एक बहुजन इतिहास की पुस्तक (Zeroth tradition of India) प्रकाशित। बहुजन मुद्दे पर लेख आदि लिखते रहे हैं।
अम्बेडकरवादी आंदोलन में सक्रिय। मुख्यत: इसके सामाजिक पक्ष के लिए जागरूकता फैलाने को समर्पित।

पूर्वज कश्मीर से बिहार आकर बसे। पिता भी बहुजन आंदोलन में सक्रिय थे।