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विश्व प्रसन्नता दिवस 20 मार्च पर विशेष
फिर एक पग प्रसन्नता की ओर…
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मानव एक सामाजिक प्राणी है एवम् उसकी प्रसन्नता का मुख्य आधार उसके पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध होते हैं| किसी विवशता में भी भौतिक या मानसिक अलगाव असंतोष और अप्रसन्नता का कारण बन जाता है| पिछले दो वर्षों से अधिक समय से मनुष्य कोविड के भय से अपने आप में सिमटा सामाजिक दूरी के अनुपालन में अपनों से दूर हो गया है| भय अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लकिन अब स्वजनों से सतर्कता के साथ सम्पर्क साधकर फिर से एक कदम ख़ुशी की ओर बढाने का समय है| संभवत इसीलिए इस वर्ष वैश्विक प्रसन्नता दिवस का मुख्य विषय ‘वापस प्रसन्न बनाये’ है| परन्तु मूल प्रश्न यह है कि कैसे प्रसन्न रहे और प्रसन्न बनाए ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए प्राचीन भारतीय ज्ञान सम्पदा का पुनरावलोकन समीचीन होगा|
रोग व ऋण से मुक्ति के साथ पद, प्रतिष्ठा व सम्मान प्राप्ति भी प्रसन्नता के आधार बनते हैं| शास्त्रीय विवेचनों में भौतिक उपलब्धियों से इतर त्रिदुखों; आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक से मुक्ति को भी प्रसन्नता के रूप में माना गया है| दीर्घावधि के दुःख ने भौतिक संसाधनों में प्रसन्न होने की अवधारणा को नकार दिया और एक दूसरे के प्रति सहयोग (दान) और कृतज्ञता जैसे सद्गुणों की सार्थकता को पुनः स्थापित किया है| इस सन्दर्भ में ईश्वरकृष्ण द्वारा रचित सांख्य कारिका प्रमोद, मुदिता और मोदमान के माध्यम एक सर्वांगीण दृष्टि प्रदान करता है|
सांख्य में प्रमोद, मुदिता और मोदमान का विवेचन मानव प्रसन्नता का व्यापक मनोवैज्ञानिक पटल प्रस्तुत करता है| यहाँ वेदों के अध्ययन, आप्तपुरुष के शब्दों और गुरुजनों के तर्कशक्ति से प्राप्त ज्ञान- संपन्न मानव की दृष्टि इतनी व्यापक हो जाती है कि वह अपनी प्रसन्नता का विस्तार अन्य मानव में देखता है| दुःख से मुक्ति का भाव आते ही वह प्रमोदपूर्ण हो जाता है, प्रमोद परिपूर्ण वह अपने सगे-सम्बन्धियों की मुदिता भाव में अपने प्रमोद को विस्तारित करता है तथा परिणामतः मोदमान भाव से प्रसन्नता का एक वातावरण का निर्माण करता है| साथ ही प्रमोद, मुदिता और मोदमान का लक्ष्य प्राप्त करने की पूर्वशर्त के रूप में सांख्य दर्शन अध्ययन, शब्द और तर्क की अनिवार्यता को स्वीकार करता है तो नैतिक व्यवहार के रूप में दान और कृतज्ञता जैसे महत्त्वपूर्ण गुणों की अनुशंसा भी करता है|
कोविड महामारी से बाहर निकले अनेक ऐसे लोग है, जो अभी भी आजीविका का संघर्ष झेल रहे हैं | ऐसे व्यक्तियों के लिए दान की प्रवृति एक संजीवनी का कार्य कर सकती है| दान मात्र भौतिक वस्तुओं, या वित्तीय संसाधन का दान ही नहीं होता | किसी को सुझाव देना, सहारा देना, रास्ता बताना या हौसला बढ़ाना भी दान के ही रूप है| दान देने के पश्चात् मानव दाता होने के अभिमान से भर न जाये इसलिए यह दर्शन दान स्वीकार करने वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने का सुझाव देता है| अन्य कोई भी मत शायद ही प्रसन्नता के लक्ष्य को इतनी सूक्ष्मता और व्यापकता से बताता हो, जितना यह सांख्य में विवेचित है| एक लम्बे महामारी के पश्चात् ‘वापस प्रसन्न बनाए” के व्यवहारिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रमोद, मुदिता और मोदमान का आदर्श अपनाकर फिर एक पग प्रसन्नता की ओर बढ़ा सकते हैं|
प्रो. इन्दू पाण्डेय खंडूड़ी
आचार्य, दर्शनविभाग
हे.न.ब.ग.वि.वि. श्रीनगर [गढ़वाल] उत्तराखण्ड
मो. 09411355018