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Yaden यादें बोरसी की आग की /ध्रुव गुप्त

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यादें बोरसी की आग की /ध्रुव गुप्त

सर्दी के बढ़ने के साथ हीटर या ब्लोवर्स के सामने बैठकर सर्दी से लड़ने के कुछ पारंपरिक हथियारों की याद आने लगी है। बोरसी की आग उनमें सबसे प्रमुख हुआ करती थी। शहरों में बस चुके जिन लोगों की जड़ें गांवों में हैं उन्हें जाड़े की रातों में बोरसी की आग जी स्मृतियां भूली नहीं होंगी। घर के दरवाजे पर जलती, सुलगती बोरसी का मतलब होता था शीत से संपूर्ण सुरक्षा। अब शहरों या गांवों में भी पक्के, सुंदर घरों वाले लोग धुएं से घर की दीवारें काली पड़ जाने के डर से बोरसी नहीं सुलगाते। मिट्टी और खपरैल के मकानों में ऐसा कोई डर नहीं होता था। घर के बुजुर्ग कहते थे कि दरवाजे पर बोरसी की आग हो तो ठंढ तो क्या, सांप-बिच्छू और भूत-प्रेतो का भी घर में प्रवेश बंद होता है। सार्वजनिक जगहों पर जलनेवाले अलाव जहां गांव-टोले के चौपाल कहे जाते थे, बोरसी को पारिवारिक चौपाल का दर्जा हासिल था। उसके पास शाम के बाद जब घर के लोग एकत्र होते थे तो वहां घर-परिवार और पास-पड़ोस की समस्याओं से लेकर देश-दुनिया की दशा-दिशा पर घंटों बहसें चलती थीं। घर के कई मसले बोरसी के गिर्द सुलझ जाते थे। देश-दुनिया के मसलों से सरकारों की नाकामी या भगवान की इच्छा बताकर छुट्टी पा ली जाती थी। बच्चों के लिए बोरसी का रोमांच यह था वहां आग सेंकने के अलावा आलू , शकरकंद, सुथनी आदि पकाने-खाने के अवसर उपलब्ध थे। किशोरों के रूमानी सपनों को बोरसी की आग ऊष्मा और उड़ान देती थी। बिस्तर पर जाते समय बोरसी कोउसके बचे-खुचे अंगारों सहित बुजुर्गों या बच्चों के बिस्तरों के पास या खाट के नीचे रख दिया जाता था।

ब्लोवर्स के सामने हाथ में मोबाइल लेकर बैठे आज के युवाओं और बच्चों के पास बोरसी की यादें नहीं हैं। जिन बुजुर्गों ने कभी बोरसी की गर्मी और रूमान महसूस किया था उनके पास घरों की डिजाइनर दीवारों और छतों के नीचे बोरसी की आग सुलगाने की आज़ादी अब रही ही नहीं।

-ध्रुव गुप्त जी के फेसबुक वॉल से

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