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Poem। कविता। समय के समक्ष
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Poem। कविता। समय के समक्ष

समय के समक्ष जब- भिक्षुक हो जाएँ सभी विकल्प; जीवित रखना होता तब; अन्तःप्रज्ञा का ही दृढ़ संकल्प। लक्ष्य निष्ठुर हो जाते हैं जब- रातों में पहाड़ी पगडंडी -से; अपना लहू प्रपंच-मन में भर; जिजीविषा की दियासलाई से- चिमनी को जलाना होता तब। निचोड़ आँखों को स्वयं की; कामनाओं की बाती सुलगाना- जीवन-अनिवार्य प्रश्न-सा; उत्तर लिखकर भी; विकल्पहीन- असफल ही कहलाता; जबकि वह दिन-रात- वेश्या सा अपना तन-मन सुलगाता... डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'...
Poem। कविता। कैसा होगा देश का नजारा
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Poem। कविता। कैसा होगा देश का नजारा

कैसा होगा देश का नजारा एक तरफ आजादी तो दूसरी तरफ बंटवारा कैसा वीभत्स होगा हमारे देश का नजारा, एक तरफ मिलन तो दूसरी तरफ बेसहारा, लोगों का प्रेम तो लाशों की ढेर, बहुत मुश्किल से संभाला होगा देश हमारा। वो त्रासदी की रातें कैसे कटी होंगी, आजादी के लिए लहू से मिट्टी सनी होगी। अपनों का बिछड़ना क्या मरने से कम होगा, बिछड़ने वालों की आंखों में आंसू का समंदर होगा, बच्चों की बेबस आंखें अपनों को ढूंढती होंगी, अनगिनत लोगों को न जाने कितनी पीड़ा होगी। जिसके लहू में कट्टरता होगी उसे ये रात बहुत भाई होगी, लेकिन देशप्रेमियों की आंखें पथराई होगी। उस स्नेह का क्या विकल्प होगा, जिसने ना बिछड़ने की कसम खाई होगी। उस प्रेम का क्या नाम होगा, जिसने दूसरे मुल्क में पनाह पाई होगी। वो द्रवित क्षण, वो द्रवित पल क्या किसी के मन से भुलाई होगी। उस विभाजन वेदना से, किस आंगन की मिट्टी ने शीतलता पा...
गीत/ कोमल चितबन मधुर प्रेम तुम/ अश्विनी प्रजावंशी
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गीत/ कोमल चितबन मधुर प्रेम तुम/ अश्विनी प्रजावंशी

https://youtu.be/5IkmWRhveKI कोमल चितबन मधुर प्रेम तुम तुम्हीं तो जीवन थाती हो कब से मेरे लिये खड़ी तुम तुम्हीं दीये की बाती हो। पीयूष धार चंचल ये घटायें तुम्हीं तो मीठी फाग हो तुमसे ही जीवन महका है तुम्हीं राग अनुराग हो तेरे आलिंगन में बंधकर सुध बुध मैनें खोया है प्रेम मधुरस पीकर झूमा तेरी सुंदर काया है तुम्हीं तो मेरी प्राण दीपिका तम को दूर भगाती हो। शबनम सी है चमक तुम्हारी प्रीत गीत औ आश तुम्हीं यादों में तुम खिली खिली हो लगता जैसे पास तुम्हीं तुम वँशी की मधुर तान हो मगर टेर क्या पाता हूँ बाट घाट में जब भी मिलती तुम्हें घेर क्या पाता हूँ यह अनन्त जन्मों का मधुवन रोज तुम्हीं महकाती हो। कुछ तो बात हुई है देखो घटा घोर उत्पाती क्यों राह में ओले पड़े हुये हैं बूझ रही संझबाती क्यों अदा तुम्हारी लचक लचीली लगती रूपरति रमणी है मयंक भी तुम्हें देखता हँसती सौम...
कविता/जिनका बचपन जिनके कंधे पर है/ डॉ. कर्मानंद आर्य
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कविता/जिनका बचपन जिनके कंधे पर है/ डॉ. कर्मानंद आर्य

जिनका बचपन जिनके कंधे पर होता है उनकी जवानी उनके कंधे पर कभी नहीं होती यानी वह किसी और के कंधे पर सवार हो तय करती है शेष यात्रा एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड तक एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक एक दुनिया से दूसरी दुनिया तक शेष बची रहती है शरीर में बचे हुए बचपन की तरह वह पहाड़ सी उठ जाती है किसी ऊँची चीज की ही तरह गगनचुंबी बातें करती है उड़ती है आसमानों से ऊपर बनकर चील वह मुर्गे की तरह बांग देती है जगाती है श्रमशीलों को देखती है वहां से लौटकर बचपन के कंधों पर उभरे हुए घाव और मरहम अमरता कुछ नहीं एक शब्द मात्र है एक शब्दकोश में क्योंकि बचपन भी एक शब्द है जो सब डिक्शनरियों में नहीं मिलता जिनका बचपन जिनके कंधे पर कभी नहीं आता जिसके साथ साथ चलता रहता है उनका भाग्य विधाता वे बचपन की कीलों के बारे में क्या जानें वे सधी दलीलों के बारे में क्या जाने मेरा बचपन म...
कविता / मुझे अँधेरों में रखा / डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’ श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड
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कविता / मुझे अँधेरों में रखा / डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’ श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड

मुझे अँधेरों में रखा डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री' श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड मेरी सरलता ने मुझे अंधेरों में रखा, वरना, कोई कमी न थी मुझे उजालों की। उसके मोह ने इस शहर के फेरों में रखा, हवा न लगी मुझे मशहूर होने के ख्यालों की। झिर्रियों की रोशनी को बाँह के डेरों में रखा, जिससे घबरायी वो परछाईं थी मेरे ही बालों की। उसने हमराज़-हमदर्द शब्दों के ढेरों में रखा, नैनों की भाषा हारी, लिपि भावों के उबालों की। चाँद ने उस रात प्यार के घेरों में रखा, सूरज ने हमेशा गवाही दी मेरे पैरों के छालों की। दूर के पर्वत की चोटी को मैंने पैरों में रखा, जानकर 'कविता' अनदेखी करती रही चालों की डॉ. कविता भट्ट लेखिका/साहित्यकार, सम्पादिका तथा योग-दर्शन विशेषज्ञ हैं। आप 'उन्मेष' की राष्ट्रीय महासचिव के रूप में समाज सेवा में निरन्तर निरत हैं। शैक्षणिक एवं साहित्यिक लेखन हेतु आपको अनेक प्रत...
Poem। कविता। खुलेंगे घरों के दरवाजे/डॉ. सरोज
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Poem। कविता। खुलेंगे घरों के दरवाजे/डॉ. सरोज

खुलेंगे घरों के दरवाजे डॉ. सरोज खिसक गयी है                      महाशक्तियों के पैरों तले  की जमीन          कोरोना निगल रही                      जीवन सुरसा की तरह जीवनदान देने जूझ रहा धरती का भगवान, हर दिन हो रहे नए-नए प्रयोग महामारी मारने को नहीं बना अभी कोई वैक्सीन, धैर्य और संयम को बना लो दवा की पुड़िया घरों में कैद हो जाओ।                  अमेरिका, रूस, इटली, जापान दो-चार देश नहीं हर मुल्क में है मौत का मंजर, पर्वत श्रृंखलाओं की तरह खड़ा  हो रहा शवों का पहाड़ मानव जीवन पर बना महासंकट एक मुल्क की मक्कारी का वायरस विस्मित, असहाय, हताश है दुनिया            छिड़ा है महासंग्राम मानवता की रक्षा का मोर्चा पर सबसे आगे डटा है, अपने ही शहर में घर- परिवार, दुधमुंहे बच्चों से दूर अस्पतालों में सेवा दे रहे स्वास्थ्यकर्मी, सड़कों पर मुस्तैद जवान, जरूरतमंदों का सहारा बन रहे लोग...
Poem। कविता / तय नहीं कर पाते/प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग, हे. न. ब. गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखण्ड
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Poem। कविता / तय नहीं कर पाते/प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग, हे. न. ब. गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखण्ड

तय नहीं कर पाते, दुनिया के इस मेले में आकर्षणों की भरमार है। कहीं हंसी की खिलखिलाहट, कहीं मुस्कुराहट के उजाले। पसरी है खामोशियों की सांसें, कहीं आँसुओ की बरसात है। पर, मेरे अनजान रास्तों पर, सन्नाटे गूँजते रहते हैं अपनी तो ख्वाहिश बची नहीं लेकिन आसपास जरूरते चीखती हैं। शांति के समंदर में डूब जाऊ, या कर्तव्य के राह अनथक चलूँ, असमंजस के बादल कहाँ बरसे, हवा के झोंके तय नहीं कर पाते। प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखण्ड  ...
POEM कविता / सच पूछो तो/ प्रो. . इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड
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POEM कविता / सच पूछो तो/ प्रो. . इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड

सच पूछो तो, कभी तो सच में लगता है कि मैं ही गलत हूँ। कुछ तो वजह होगी, दुनियादारी में मैं ही नासमझ हूँ। जब तक सामने वाले को, अपने नहीं, उसके नज़रिये से, समझे जाओ, मैं देवत्व से पूर्ण होती जाती हूँ पर जैसे ही अपने नजरिये से देखने की सोच भी आई मुझे मैं अहमक और नासमझ कही जाती हूँ, और हद तो तब होती जब झूठ पर पर्दा डालती हूँ, ताकि झूठ बोलने वाला शर्मिंदा न हो और वो इस सोच के साथ मुस्कुरा उठता है कि मैं उस पर विश्वास से, उसके झूठ तक पहुँच न सकी। सच पूछो तो,इसके बाद भी, मैं बस सामने वाले को शर्मिंदगी से बचा लेने में खुश हूँ। प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी दर्शन विभाग हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर-गढ़वाल, उत्तराखंड ...