Poem। कविता। खुलेंगे घरों के दरवाजे/डॉ. सरोज

खुलेंगे घरों के दरवाजे
डॉ. सरोज

खिसक गयी है                      महाशक्तियों के पैरों तले  की जमीन          कोरोना निगल रही                      जीवन सुरसा की तरह
जीवनदान देने जूझ रहा
धरती का भगवान,
हर दिन हो रहे नए-नए प्रयोग
महामारी मारने को
नहीं बना अभी कोई वैक्सीन,
धैर्य और संयम को बना लो दवा की पुड़िया
घरों में कैद हो जाओ।                  अमेरिका, रूस, इटली, जापान
दो-चार देश नहीं
हर मुल्क में है मौत का मंजर,
पर्वत श्रृंखलाओं की तरह
खड़ा  हो रहा शवों का पहाड़
मानव जीवन पर बना महासंकट
एक मुल्क की मक्कारी का वायरस
विस्मित, असहाय, हताश है दुनिया            छिड़ा है महासंग्राम
मानवता की रक्षा का
मोर्चा पर सबसे आगे डटा है,
अपने ही शहर में
घर- परिवार, दुधमुंहे बच्चों से दूर
अस्पतालों में सेवा दे रहे स्वास्थ्यकर्मी,
सड़कों पर मुस्तैद जवान,
जरूरतमंदों का सहारा बन रहे लोग,
पेट की आग को दबाए घरों में बंद मेहनतकश मजदूर।महायुध्द ने बदल दी हैं कई परिभाषाएं,
घरों तक सिमट गयी दुनिया में
झूठी लगने लगी
वैश्विक गांव की अवधारणा,
दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात से
पैदल बदहवास निकल पड़े जनसैलाब ने
पलट दिए हैं इतिहास के कई पन्ने,
विकास की अवधारणाओं पर खड़ा हो रहा सवाल
पर, वक्त नाजुक है
त्रासदी बड़ी है
हमें झेलना है इसे।                      बंद रहने दो तोपखाने
बंदूक मत उठाओ
महासमर में हमलावर है अदृश्य,
देश में फैलता जा रहा संक्रमण का जाल
दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे मौत के आंकड़े
मुल्क को मरघट बनने से रोकने का कर संकल्प
एकांत साधना करो
पूरी दुनिया में बांट दो
गुफाओं, कंदराओं में साधना का सूत्र
यही महामारी रोकने में है कारगर हथियार
जगत का कल्याण होगा।                 

प्रकाश-पुंज की तरह फैलेगा
धरा पर उम्मीदों का उजाला
खुलेंगे घरों के दरबाजे,
स्वच्छंद विचरण की होगी आज़ादी,
पटरियों पर फिर दौड़ेंगी गाड़ियां,
बाज़ार में फिर लौटेंगी रौनक
और, हम फिर उड़ेंगे स्वच्छंद,
अनंत आकाश में।