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NMM पांडुलिपियों का संग्रह ही काफी नहीं है, बल्कि उसका संपादन एवं प्रकाशन भी जरूरी है : डॉ. अरुण कुमार यादव

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*पांडुलिपियों का संग्रह ही काफी नहीं है, बल्कि उसका संपादन एवं प्रकाशन भी जरूरी है : डॉ. अरुण कुमार यादव*

पांडुलिपियों का संग्रह अपने आपमें महत्वपूर्ण है। लेकिन पांडुलिपियों का संग्रह ही काफी नहीं है, बल्कि उसका संपादन एवं प्रकाशन जरूरी है। हमें पांडुलिपियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

यह बात नव नालंदा महाविहार, नालंदा के डॉ. अरुण कुमार यादव ने कही।वे शनिवार को तीस दिवसीय उच्चस्तरीय राष्ट्रीय कार्यशाला में व्याख्यान दे रहे थे। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत संचालित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन योजना के तहत यह कार्यशाला केंद्रीय पुस्तकालय, भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा में आयोजित हो रही है।

*उत्थान एवं पतन स्वाभाविक*
उन्होंने कहा कि जीवन एवं जगत में उत्थान एवं पतन की प्रक्रिया चलती रहती है।‌ बौद्ध धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। एक समय बौद्ध धर्म पूरे भारत और कई अन्य देशों में फैला था, लेकिन कालांतर में बौद्ध धर्म का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो गया।

*हम बुद्ध को लेकर अनभिज्ञ थे*
उन्होंने बताया कि 11वीं 12वीं सदी में भारत पर बाहरी आक्रमण शुरू हुआ। इस्लाम के आक्रमण ने बौद्ध धर्म को काफी नुकसान पहुंचाया। लेकिन इसमें थोड़ा योगदान हिन्दू धर्म का भी रहा। चूंकि बुध के उपदेशों में हिन्दू धर्म के कर्मकांडों का विरोध किया गया था, इसलिए हिन्दू पुरोहित बौद्धों के खिलाफ हो गए।
उन्होंने बताया कि अंग्रेजों के समय में एक वक्त ऐसी स्थिति आ गई थी कि लोग बुद्ध को लगभग भूल गए थे। बुद्ध की मूर्तियों को लोग कोई न कोई बाबा बताते थे। अनभिज्ञयता इस हद तक थी कि बुद्ध को अफ्रीका या इथोपिया का व्यक्ति भी बताया जाता था।

उन्होंने बताया कि बौद्ध धर्म को आगे लाने में फाहियान, ह्वेशांग, इत्सिंग एवं कनिंघम आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कनिंघम ने जब ब्राह्मी लिपि में लिखी पांडुलिपियों को पढ़ा तो बौद्ध धर्म के बारे में काफी जानकारी सामने आई। बाद में कई अन्य पांडुलिपियों का अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ और उसके माध्यम से हम बौद्ध धर्म को जान सके।

उन्होंने कहा कि नालंदा,
विक्रमशिला, उदंतपुरी, बल्लभी आदि में बड़े-बड़े पुस्तकालय थे। लेकिन हमारी अधिकांश पुस्तकें एवं पांडुलिपियां नष्ट हो गईं और जो बची हैं, उनमें से अधिकांश का संपादन एवं प्रकाशन बाकि है।

इस अवसर पर केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, अगरतला कैंपस, अगरतला में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. उत्तम कुमार सिंह, विकास पदाधिकारी डॉ. ललन प्रसाद अद्री, एनएसएस पदाधिकारी डॉ. अभय कुमार, कुलपति के निजी सहायक शंभु नारायण यादव, संयोजक डॉ. अशोक कुमार, आयोजन सचिव सह उप कुलसचिव (शै.) डॉ. सुधांशु शेखर, डॉ. सरोज कुमार, डॉ. संजय परमार, पृथ्वीराज यदुवंशी, सिड्डु कुमार, राधेश्याम सिंह, नीरज कुमार सिंह, सौरभ कुमार चौहान, खुशबू, डेजी, लूसी कुमारी, रुचि कुमारी, स्नेहा कुमारी, श्वेता कुमारी, इशानी, प्रियंका, निधि, कपिलदेव यादव, अरविंद विश्वास, अमोल यादव,‌ रश्मि कुमारी, ब्यूटी कुमारी, मधु कुमार, त्रिलोकनाथ झा, ईश्वरचंद सागर, बालकृष्ण कुमार सिंह आदि उपस्थित थे।

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